उद्योगों के लिये पूरा
जिला खाली
सुनील शर्मा जशपुर से लौटकर
अगर किसी ज़िले की पूरी आबादी को विस्थापित कर दिया जाये तो ? आपके पास इसका जो भी जवाब हो, कम से कम छत्तीसगढ़ में तो इस सवाल पर भी कोई बात नहीं करना चाहता. सिवाय उन आदिवासियों के, जो डरे हुये हैं और आक्रोशित भी.
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अगर सब कुछ सरकार और औद्योगिक घरानों के मुताबिक ठीक-ठाक रहा तो आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ की साढ़े आठ लाख की आबादी वाला जशपुर जिला पूरी तरह से खाली करवा दिया जायेगा. इन साढ़े आठ लाख लोगों में शामिल 64 फीसदी उन आदिवासियों को भी खदेड़ने की तैयारी चल रही है, जो हज़ारों साल से जशपुर के इलाके में रहते आये हैं. जशपुर के लाखों आदिवासी सरकार से सवाल पूछ रहे हैं, उनसे जवाब चाहते हैं लेकिन राजधानी रायपुर से लेकर दिल्ली तक उनकी गुहार अनसुनी रह जा रही है.
गरीबी, लाचारी और अभावों की दिशा में नया इतिहास गढ़ने वाले इस जिले ने देश को कई आईएएस, आईपीएस के साथ कई उच्चाधिकारी दिये हैं लेकिन इनकी ताकत भी जशपुर में कमजोर पड़ रही है. जशपुर के भूगर्भ में खनिज संपदाओं का विपुल भंडार तो है ही यहां की नदियों में प्राकृतिक स्वर्णकण भी पाये जाते हैं. लेकिन प्रकृति की यह विरासत ही इन आदिवासियों के लिये मुश्किल का सबब बन गई है.
पिछले कुछ सालों से इस जिले में औद्योगिक घरानों ने अंधाधुंध तरीके से अपने विस्तार की तैयारी शुरु की है. यहां आने वाले 122 बड़े उद्योगों ने सरकार से उद्योगों की स्थापना के लिए 6023 वर्ग किलोमीटर जमीन की मांग की है. और जानते हैं, जिले का पूरा क्षेत्रफल कितना है ? कुल 6205 वर्ग किलोमीटर. यानी केवल 182 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र ऐसा है, जिसे औद्योगिक घराने बचे रहने देना चाह रहे हैं.
जाहिर है, जिले की लगभग साढ़े आठ लाख की आबादी के पास, ऐसी स्थिति में कई सवाल हैं. आखिर सब कुछ खाली हो जायेगा तो लोगों का क्या होगा ? लोग कहां जाएंगे ? खेती की जमीन छीन जायेगी तो खेती किसमें करेंगे और खायेंगे क्या ?
हाल देश का
एक बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर विकास की सारी विपदा आदिवासियों के हिस्से ही क्यों हैं ? देश में साढे आठ करोड़ सूचीबद्ध आदिवासी हैं जबकि ढाई करोड़ गैर सूचीबद्ध (डिनोटीफाइड)हैं यानी कुल लगभग 11 करोड़ आदिवासी हैं. पर इन आंकड़ों में सबसे महत्वपूर्ण है आदिवासियों का विस्थापन. जानकारों की मानें तो प्रत्येक दस में से एक आदिवासी आज वहां नहीं है, जहां वह पैदा हुआ था, जहां उसकी संस्कृति फल-फूल रही थी. न उसके पास अब जमीन है और न जंगल. पिछले एक दशक की ही बात लें तो औद्योगिक परियोजनाओं की स्थापना के कारण देश के महज चार राज्यों आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और उडीसा में 14 लाख लोग विस्थापित हुये. इनमें 79 प्रतिशत लोग आदिवासी थे. तथ्य बताते हैं कि इस लोकतांत्रिक राष्ट्र में जनता के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाने वाली सरकार ने 66 प्रतिशत विस्थापितों का पुनर्वास तक नहीं किया और उन्हें उनके हाल पर जानवरों की तरह मरने-जीने के लिये छोड़ दिया.
डा.एम.एम.स्वामीनाथन द्वारा तैयार 'ड्राफ्ट पेपर' में चौंकाने वाले तथ्य हैं. यह रिपोर्ट बताती है कि देश में औद्योगीकरण और विकास से संबंधित विभिन्न परियोजनाओं के कारण वर्ष 1990 तक की अवधि में जो आदिवासी विस्थापित हुए उनका पूरी तरह पुनर्वास नहीं हुआ. विस्थापित आदिवासियों की कुल संख्या 85.39 लाख रही, जो कुल विस्थापितों का 55.16 प्रतिशत थी. विस्थापित आदिवासियों में 64.23 प्रतिशत अब भी पुनर्वास से वंचित है और अपनी जमीन एवं जड़ से उखडे हैं.
ऐसे में भला छत्तीसगढ़ अलग कैसे होता ! छत्तीसगढ़ में भी सरकार उसी परंपरा के पालन की कोशिश कर रही है, जिसमें आदिवासियों की छाती पर उद्योग लगा कर कथित विकास की इबारत दर्ज की जाती है.
जीवन का अधिग्रहण
जशपुर में औद्योगिक घरानों के लिये जमीन अधिग्रहण के खिलाफ शुरू से ही संघर्षरत सेवती पन्ना को जैसे सब कुछ मुंहजुबानी याद है. वह बताती हैं- "2008 में जमीन अधिग्रहण के लिए बगीचा ब्लाक के तेरह पंचायतों को नोटिस भेजा गया. इसमें गुल्लू भी शामिल था, जहां हाईड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट बनाने की तैयारी की जा रही है. नोटिस पंचायतों के सरपंच-सचिव के हाथ में दिया गया. तब तक उन्हें यह भी मालूम नहीं था कि जमीन अधिग्रहण क्या होता है ? नोटिस में साफ शब्दों में लिखा था कि यदि वे जमीन अधिग्रहण के संबंध में 7 अगस्त 2008 तक न्यायालय के समक्ष पंचायत का अभिमत पेश नहीं करेंगे तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. लोग घबरा गए. उन्होंने पहले तो सभी तेरह पंचायतों की एक बैठक बुलाई फिर एक निजी कंपनी में बतौर असिस्टेंट मैनेजर काम कर चुके एक बुजुर्ग से इस बाबत सलाह ली. बुजुर्ग ने कंपनियों के जमीन अधिग्रहण की मंशा को स्पष्ट किया. बाद में खनिज संसाधनों का उत्खनन रोकने ग्रामीणों ने खुद से ही तहसील में जाकर उस नोटिस का जवाब दिया.’’
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गरीबी, लाचारी और अभावों की दिशा में नया इतिहास गढ़ने वाले इस जिले ने देश को कई आईएएस, आईपीएस के साथ कई उच्चाधिकारी दिये हैं लेकिन इनकी ताकत भी जशपुर में कमजोर पड़ रही है. जशपुर के भूगर्भ में खनिज संपदाओं का विपुल भंडार तो है ही यहां की नदियों में प्राकृतिक स्वर्णकण भी पाये जाते हैं. लेकिन प्रकृति की यह विरासत ही इन आदिवासियों के लिये मुश्किल का सबब बन गई है.
पिछले कुछ सालों से इस जिले में औद्योगिक घरानों ने अंधाधुंध तरीके से अपने विस्तार की तैयारी शुरु की है. यहां आने वाले 122 बड़े उद्योगों ने सरकार से उद्योगों की स्थापना के लिए 6023 वर्ग किलोमीटर जमीन की मांग की है. और जानते हैं, जिले का पूरा क्षेत्रफल कितना है ? कुल 6205 वर्ग किलोमीटर. यानी केवल 182 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र ऐसा है, जिसे औद्योगिक घराने बचे रहने देना चाह रहे हैं.
जाहिर है, जिले की लगभग साढ़े आठ लाख की आबादी के पास, ऐसी स्थिति में कई सवाल हैं. आखिर सब कुछ खाली हो जायेगा तो लोगों का क्या होगा ? लोग कहां जाएंगे ? खेती की जमीन छीन जायेगी तो खेती किसमें करेंगे और खायेंगे क्या ?
हाल देश का
एक बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर विकास की सारी विपदा आदिवासियों के हिस्से ही क्यों हैं ? देश में साढे आठ करोड़ सूचीबद्ध आदिवासी हैं जबकि ढाई करोड़ गैर सूचीबद्ध (डिनोटीफाइड)हैं यानी कुल लगभग 11 करोड़ आदिवासी हैं. पर इन आंकड़ों में सबसे महत्वपूर्ण है आदिवासियों का विस्थापन. जानकारों की मानें तो प्रत्येक दस में से एक आदिवासी आज वहां नहीं है, जहां वह पैदा हुआ था, जहां उसकी संस्कृति फल-फूल रही थी. न उसके पास अब जमीन है और न जंगल. पिछले एक दशक की ही बात लें तो औद्योगिक परियोजनाओं की स्थापना के कारण देश के महज चार राज्यों आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और उडीसा में 14 लाख लोग विस्थापित हुये. इनमें 79 प्रतिशत लोग आदिवासी थे. तथ्य बताते हैं कि इस लोकतांत्रिक राष्ट्र में जनता के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाने वाली सरकार ने 66 प्रतिशत विस्थापितों का पुनर्वास तक नहीं किया और उन्हें उनके हाल पर जानवरों की तरह मरने-जीने के लिये छोड़ दिया.
डा.एम.एम.स्वामीनाथन द्वारा तैयार 'ड्राफ्ट पेपर' में चौंकाने वाले तथ्य हैं. यह रिपोर्ट बताती है कि देश में औद्योगीकरण और विकास से संबंधित विभिन्न परियोजनाओं के कारण वर्ष 1990 तक की अवधि में जो आदिवासी विस्थापित हुए उनका पूरी तरह पुनर्वास नहीं हुआ. विस्थापित आदिवासियों की कुल संख्या 85.39 लाख रही, जो कुल विस्थापितों का 55.16 प्रतिशत थी. विस्थापित आदिवासियों में 64.23 प्रतिशत अब भी पुनर्वास से वंचित है और अपनी जमीन एवं जड़ से उखडे हैं.
ऐसे में भला छत्तीसगढ़ अलग कैसे होता ! छत्तीसगढ़ में भी सरकार उसी परंपरा के पालन की कोशिश कर रही है, जिसमें आदिवासियों की छाती पर उद्योग लगा कर कथित विकास की इबारत दर्ज की जाती है.
जीवन का अधिग्रहण
जशपुर में औद्योगिक घरानों के लिये जमीन अधिग्रहण के खिलाफ शुरू से ही संघर्षरत सेवती पन्ना को जैसे सब कुछ मुंहजुबानी याद है. वह बताती हैं- "2008 में जमीन अधिग्रहण के लिए बगीचा ब्लाक के तेरह पंचायतों को नोटिस भेजा गया. इसमें गुल्लू भी शामिल था, जहां हाईड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट बनाने की तैयारी की जा रही है. नोटिस पंचायतों के सरपंच-सचिव के हाथ में दिया गया. तब तक उन्हें यह भी मालूम नहीं था कि जमीन अधिग्रहण क्या होता है ? नोटिस में साफ शब्दों में लिखा था कि यदि वे जमीन अधिग्रहण के संबंध में 7 अगस्त 2008 तक न्यायालय के समक्ष पंचायत का अभिमत पेश नहीं करेंगे तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. लोग घबरा गए. उन्होंने पहले तो सभी तेरह पंचायतों की एक बैठक बुलाई फिर एक निजी कंपनी में बतौर असिस्टेंट मैनेजर काम कर चुके एक बुजुर्ग से इस बाबत सलाह ली. बुजुर्ग ने कंपनियों के जमीन अधिग्रहण की मंशा को स्पष्ट किया. बाद में खनिज संसाधनों का उत्खनन रोकने ग्रामीणों ने खुद से ही तहसील में जाकर उस नोटिस का जवाब दिया.’’
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सेवती पन्ना के अनुसार किसी को इस बात का अनुमान नहीं था कि नोटिस की यह शुरुवात असल में नोटिस के एक अंतहीन सिलसिले में तब्दिल हो जाएगी. अलग-अलग पंचायतों को जब नोटिस मिलना शुरु हुआ तो लोगों को समझ में आने लगा कि कोई गहरी साजिश रची जा रही है. आदिवासियों ने गांव-गांव में बैठकें की. लोग एकजुट होने लगे. 10 अगस्त को तहसील परिसर के सामने हजारों की संख्या में एकत्र हुये ग्रामीणों ने चक्का जाम कर दिया. बुजुर्गों को याद नहीं कि आजादी के बाद इससे पहले कभी कोई इस तरह का आंदोलन हुआ हो. सरकारी अफसर थोड़े घबराये. अगले दिन आदिवासियों का विरोध देखते हुये अपर कलेक्टर विपिन मांझी ने तहसीलदार की अब तक की कार्रवाई को खारिज किया और इस दौरान 105 वर्ग किमी क्षेत्र में सर्वेक्षण पर विराम लग गया.
लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री का जशपुर में ज़मीन अधिग्रहण को लेकर दिया गया भाषण दिलचस्प है. मुख्यमंत्री रमन सिंह के जशपुर दौरे (4 अगस्त 2010
) के दौरान दिया गया भाषण गौरतलब है- "कौन कहता हैं कि आदिवासियों की जमीन उद्योग के लिए ली जायेगी? न तो उद्योगों को जमीन
आबंटित की जा रही है और न ही इसकी प्रक्रिया शुरू हुई है, यह महज अफवाह है.’’ पूछने का मन होता है कि अगर यह सब कुछ अफवाह था तो फिर अपर कलेक्टर ने तहसीलदार के 105 वर्ग किलोमीटर के किस सर्वेक्षण को खारिज किया था?
तपकरा इलाके के युवक संदीप एक्का बताते हैं "मुख्यमंत्री के बयान पर जशपुर के किसी भी व्यक्ति को शायद ही भरोसा हो. उनके इस कथन को किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया.’’ जन संघर्ष समिति जशपुर के अध्यक्ष श्याम सुंदर पैकरा के पास मुख्यमंत्री के बयान का अलग ही जवाब है. "यदि मुख्यमंत्री सच बोल रहे हैं तो फिर उद्योग वहां क्या कर रहे हैं ? औद्योगिक घरानों ने जशपुर में अपने दफ्तर क्यों खोले हैं ? इसके पीछे उनकी मंशा क्या है ? यदि प्रदेश सरकार जशपुर में उद्योग स्थापित करने की योजना नहीं बना रही है तो निजी कंपनी से खनिज की उपलब्धता का सर्वेक्षण क्यों करा रही है ?" ज़ाहिर है, इस फैसले ने जमीन अधिग्रहण के विरोध में खड़े हुए लोगों में खासा असर डाला और लोगों में अपने अधिकारों के प्रति पहली बार जागरूकता भी आई. यह है जशपुर जशपुर छत्तीसगढ़ के उत्तर-पूर्व भाग में स्थित एक ऐसा जिला है जो अपनी प्राकृतिक सुषमा के कारण अलग पहचान रखता है. कुल आबादी का लगभग 65 फीसदी आदिवासियों का है. यहां विशेष पिछड़ी जनजाति पहाड़ी कोरवा के अलावा, उरांव, बिरहोर भी बड़ी संख्या में निवास करते हैं. यह ज़िला ओडिशा और झारखंड की सीमाओं तो छूता है. वर्तमान में जिले की कुल जनसंख्या 8,52043 है. इसमें पुरुष 4,25085 व 4,26958 महिलाएं हैं. कुल साक्षर जनसंख्या 5,02105 है, इसमें से 2,84985 पुरुष व 2,17120 महिलाएं है. प्रतिशत में जिले की साक्षरता 68.60 प्रतिशत है, जिसमें 78.24 प्रतिशत पुरुष व 59.05 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं. जन संघर्ष समिति जशपुर के अध्यक्ष श्री पैकरा बताते हैं कि "सूचना के अधिकार के अंतर्गत मिली जानकारी के मुताबिक जिला प्रशासन के पास 112 कंपनियों के आवेदन मिले. कंपनियों की मंशा जानकर जनसंघर्ष समिति का गठन किया गया. इसका विस्तार जिले के साथ ही ब्लाक स्तर पर हुआ. पहली बार हम लोग संगठित हुये.’’ डॉ. आस्कर केंद्र और राज्य शासन पर जशपुर जिले को उद्योग घरानों के हाथों बेच देने का आरोप लगाते हैं. उनका आरोप है कि बिना जनसुनवाई और ग्रामसभा की सहमति के सरकार ने जिले में 112 उद्योग लगाने की सहमति दे दी. इसके लिए सरकार 29 लाख करोड़ रूपए औद्योगिक घरानों से ले चुकी है. इस बात में कोई शक नहीं है कि छत्तीसगढ़ उद्योगपतियों का चारागाह बन चुका है. छत्तीसगढ़ में विकास के जो कारपोरेट मॉडल तैयार हुये हैं, उसमें औद्योगिक घराने सरकार की गोद में बैठ कर आदिवासियों, मजदूरों और किसानों को नाकों चने चबवा रहे हैं. जशपुर जिला इसका एक छोटा उदाहरण है. मुख्यमंत्री के बयान को गलत ठहराते हुये सामाजिक कार्यकर्ता ममता कुजूर कहती हैं "सरकार झूठ बोल रही है क्योंकि यदि यहां के आदिवासियों ने संघर्ष नहीं किया होता तो अब तक कईयों की जमीन अधिग्रहित हो चुकी होती और उद्योग भी लग चुके होते, कड़े विरोध के फलस्वरूप उद्योगपति जशपुर में अपनी जड़े नहीं जमा पा रहे हैं.’’ पिछले पांच सालों में कई बार आदिवासियों के प्रतिनिधि मंडल ने कलेक्टर के माध्यम से राज्यपाल, मुख्यमंत्री और अन्य म़ंत्रियों को ज्ञापन सौंपा है. इन ज्ञापनों में जशपुर की जमीन के सर्वेक्षण के लिए निजी उद्योग कंपनियों को दिए गए लाईसेंस को निरस्त करने, ग्राम सभा की सहमति के बिना उद्योग स्थापना की अनुमति न दिए जाने, जाति प्रमाण पत्र की प्रक्रिया सरल करने, बांध और उद्योग के लिए स्थानीय लोगों को विस्थापित न करने और वन अधिकार अधिनियम 2006 लागू करने की मांग की गई है लेकिन यह बेनतीजा ही रहा है.
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अब जरा औद्योगिक घरानों की सुन लें. जशपुर में उद्योग की स्थापना को जिन्दल स्टील एवं पावर लिमिटेड के महाप्रबन्धक संजीव चौहान सिरे से खारिज कर देते हैं. हालांकि तथ्य यह है कि सबसे पहले बगीचा, मनोरा और कुनकुरी के इलाके में जमीन अधिग्रहण के लिए इस कंपनी के लिये ही नोटिस भेजा गया था.
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संजीव चौहान का दावा है कि जशपुर जिले में उद्योग स्थापित करने की कोई योजना नहीं है. बगीचा, मनोरा और कुनकुरी तहसील क्षेत्र के 3800 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में हीरा, सोना और अन्य बहुमूल्य पत्थर ब्रैस मैटल खनिज का सर्वे का कार्य चल रहा है. इसके लिए किसी की भी जमीन अधिग्रहित करने की जरूरत नहीं है. बहुमूल्य खनिज का सर्वेक्षण के लिये हवाई सर्वे तथा बोर खनन से रेत पत्थर आदि के नमूने एकत्रित किये जा रहे है.
सामाजिक कार्यकर्ता संजीव चौहान के दावे पर कई सवाल उठाती हैं. मालती तिर्की कहती हैं कि यदि ऐसा है तो फिर उद्योगपतियों ने जमीन अधिग्रहण के लिये किसानों को नोटिस क्यों भिजवाया और वह हर हाल में उनकी जमीन लेने पर क्यों आमादा है ? यदि उनकी नीयत में खोट नहीं है तो नोटिस आखिर क्यों, किसलिए ? गांवों में कंपनियों के एजेंट क्यों चक्कर लगा रहे हैं और आदिवासियों को भड़का रहे हैं. उन्हें लालच क्यों दिया जा रहा है ? वे कहती है कि जिंदल कंपनी की यह चाल है वह अंदर ही अंदर जमीन अधिग्रहण कर जशपुर को दूसरा रायगढ़ बनाना चाहती है.
पड़ोसी जिले रायगढ़ में आज की तारीख में जिंदल की सत्ता चलती है. जल, जंगल और ज़मीन पर कब्जा करने वाले सैकड़ों की संख्या में लगे हुये उद्योगों ने रायगढ़ को नरक बना दिया है.
रायगढ़, जशपुर के आदिवासियों के विभिन्न मुददों पर पिछले कई वर्षों से कलम चलाने वाले पत्रकार रमेश शर्मा कहते हैं ‘’ आदिवासियों का कसूर इतना ही है कि उन्होंने उस जमीन पर बसने की गलती की, जिस जमीन के नीचे अमूल्य खनिज की अपार संपत्ति है! जबरन केस में फंसवाना पुरानी और कारगार नीति है जिसमें यहां के औद्योगिक घरानों को महारत हासिल है. इस नेक काम में सरकार का भरपूर सहयोग उन्हें मिलता है. रहा सवाल ग्राम सभा के प्रस्ताव का, तो शासन उन्हीं प्रस्तावों पर ध्यान देती है जिन्हें औद्योगिक घरानों ने प्रस्तुत किये हों.’’
खेती का विकास करे सरकार
एक ओर सरकार जहां पूरे छत्तीसगढ़ में औद्योगिक विकास चाहती है, वहीं जशपुर के आदिवासी और गैर आदिवासी उ़द्योगों की स्थापना को षड़यंत्र बता रहे हैं. वे उद्योगों की जगह खेती का विकास चाहते हैं. उद्योगों की स्थापना और इससे होने वाले विकास के मसले पर फरसाबहार के इलाके में संघर्ष कर रहे बिलासियस कुजूर कहते हैं कि सरकार आंख मूंदकर कंपनियों को प्रश्रय दे रही है. प्रशासन के दम पर कंपनी के एजेंट गांव-गांव पहुंच रहे हैं और ग्रामीणों को उनकी जमीन देने के लिए मान-मनौव्वल कर रहे हैं. ग्रामीणों को कारखानों में नौकरी, नगद रुपया, शराब सहित अन्य कई तरह के लालच दिया जा रहा है. पर वे लगातार पांच सालों से ग्रामीणों की मीटिंग लेकर उन्हें उद्योगपतियों और सरकार के द्वारा बुने गये जाल में न फंसने की बात समझा रहे हैं.
बिलासियस कुजूर के साथी ए. कुजूर लगातार ग्रामीणों से संपर्क करते हैं और उन्हें सरकार और उद्योगों की नीयत और नीतियों से आगाह करते हैं. वे कहते हैं "कारखाना खुलने से हमारी खेती-बाड़ी उजड़ जायेगी और वहां काम करने वाले श्रमिक भी बाहरी होंगे. हम खेती का विकास चाहते हैं उद्योगों की स्थापना नहीं. सरकार खेती का विकास क्यों नहीं करती. हम चाहते हैं कि सरकार खेती का विकास करें, नहर बनवायें, सिंचाई की व्यवस्था करें.”
बिलासियस इस बात से खुश हैं कि अब आदिवासी जाग चुके हैं. वे कहते हैं- “अब तो वे स्वयं ही इतने सक्रिय है कि सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं को भी पीछे छोड़ चुके हैं. जशपुर में सरकार और उद्योग के खिलाफ बयार तेज हो चुकी है.’’
लेकिन बिलासियस शायद इस बात से अनजान हैं कि सत्ता और उद्योगों का गठबंधन जब साजिशें रचने पर आमदा हो जाये तो ऐसी बयारों के लिये लंबे समय तक टिक पाना मुश्किल हो जाता है. जिंदल के अधिकारियों के बयान और मुख्यमंत्री के भाषण को एक बार फिर से पढ़ लेने से इस बात को समझना आसान हो जाता है.
सामाजिक कार्यकर्ता संजीव चौहान के दावे पर कई सवाल उठाती हैं. मालती तिर्की कहती हैं कि यदि ऐसा है तो फिर उद्योगपतियों ने जमीन अधिग्रहण के लिये किसानों को नोटिस क्यों भिजवाया और वह हर हाल में उनकी जमीन लेने पर क्यों आमादा है ? यदि उनकी नीयत में खोट नहीं है तो नोटिस आखिर क्यों, किसलिए ? गांवों में कंपनियों के एजेंट क्यों चक्कर लगा रहे हैं और आदिवासियों को भड़का रहे हैं. उन्हें लालच क्यों दिया जा रहा है ? वे कहती है कि जिंदल कंपनी की यह चाल है वह अंदर ही अंदर जमीन अधिग्रहण कर जशपुर को दूसरा रायगढ़ बनाना चाहती है.
पड़ोसी जिले रायगढ़ में आज की तारीख में जिंदल की सत्ता चलती है. जल, जंगल और ज़मीन पर कब्जा करने वाले सैकड़ों की संख्या में लगे हुये उद्योगों ने रायगढ़ को नरक बना दिया है.
रायगढ़, जशपुर के आदिवासियों के विभिन्न मुददों पर पिछले कई वर्षों से कलम चलाने वाले पत्रकार रमेश शर्मा कहते हैं ‘’ आदिवासियों का कसूर इतना ही है कि उन्होंने उस जमीन पर बसने की गलती की, जिस जमीन के नीचे अमूल्य खनिज की अपार संपत्ति है! जबरन केस में फंसवाना पुरानी और कारगार नीति है जिसमें यहां के औद्योगिक घरानों को महारत हासिल है. इस नेक काम में सरकार का भरपूर सहयोग उन्हें मिलता है. रहा सवाल ग्राम सभा के प्रस्ताव का, तो शासन उन्हीं प्रस्तावों पर ध्यान देती है जिन्हें औद्योगिक घरानों ने प्रस्तुत किये हों.’’
खेती का विकास करे सरकार
एक ओर सरकार जहां पूरे छत्तीसगढ़ में औद्योगिक विकास चाहती है, वहीं जशपुर के आदिवासी और गैर आदिवासी उ़द्योगों की स्थापना को षड़यंत्र बता रहे हैं. वे उद्योगों की जगह खेती का विकास चाहते हैं. उद्योगों की स्थापना और इससे होने वाले विकास के मसले पर फरसाबहार के इलाके में संघर्ष कर रहे बिलासियस कुजूर कहते हैं कि सरकार आंख मूंदकर कंपनियों को प्रश्रय दे रही है. प्रशासन के दम पर कंपनी के एजेंट गांव-गांव पहुंच रहे हैं और ग्रामीणों को उनकी जमीन देने के लिए मान-मनौव्वल कर रहे हैं. ग्रामीणों को कारखानों में नौकरी, नगद रुपया, शराब सहित अन्य कई तरह के लालच दिया जा रहा है. पर वे लगातार पांच सालों से ग्रामीणों की मीटिंग लेकर उन्हें उद्योगपतियों और सरकार के द्वारा बुने गये जाल में न फंसने की बात समझा रहे हैं.
बिलासियस कुजूर के साथी ए. कुजूर लगातार ग्रामीणों से संपर्क करते हैं और उन्हें सरकार और उद्योगों की नीयत और नीतियों से आगाह करते हैं. वे कहते हैं "कारखाना खुलने से हमारी खेती-बाड़ी उजड़ जायेगी और वहां काम करने वाले श्रमिक भी बाहरी होंगे. हम खेती का विकास चाहते हैं उद्योगों की स्थापना नहीं. सरकार खेती का विकास क्यों नहीं करती. हम चाहते हैं कि सरकार खेती का विकास करें, नहर बनवायें, सिंचाई की व्यवस्था करें.”
बिलासियस इस बात से खुश हैं कि अब आदिवासी जाग चुके हैं. वे कहते हैं- “अब तो वे स्वयं ही इतने सक्रिय है कि सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ताओं को भी पीछे छोड़ चुके हैं. जशपुर में सरकार और उद्योग के खिलाफ बयार तेज हो चुकी है.’’
लेकिन बिलासियस शायद इस बात से अनजान हैं कि सत्ता और उद्योगों का गठबंधन जब साजिशें रचने पर आमदा हो जाये तो ऐसी बयारों के लिये लंबे समय तक टिक पाना मुश्किल हो जाता है. जिंदल के अधिकारियों के बयान और मुख्यमंत्री के भाषण को एक बार फिर से पढ़ लेने से इस बात को समझना आसान हो जाता है.
*यह आलेख नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की मीडिया फेलोशीप के तहत किये जा रहे अध्ययन का हिस्सा है.
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