हमने आधे कर दिए हैं किसान; संख्या में भी और वैसे भी
‘किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं। हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम अाए थे नहीं।’-जयशंकर प्रसाद
हमने बचपन में पढ़ा था कि देश की 80 प्रतिशत जनता गांवों में रहती है। इनमें अधिकांश खेती पर जीवन यापन करते हैं। ये किसान हैं।
> आज 60 प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं।
> आजादी के बाद 1951 में हुई पहली जनगणना में किसानों की संख्या, कुल जनसंख्या का 50% थी। यानी आधा देश किसान था।
आज ये घटकर आधे रह गए हैं। 24%, यदि 2011 की जनगणना देखें तो।
> 40 साल में ऐसा पहली बार हुआ है कि 90 लाख किसान पिछले दस वर्षों में कम हो गए।
> आज देश में कुल 26 करोड़ लोग किसान और खेत पर काम करने वाले मजदूर हैं। इनमें खुद की कृषि भूमि के मालिक किसान 12 करोड़ ही बचे हैं।
ये किसान आज भयानक संकट में हैं। बेमौसम बारिश, ओले और मौसमी त्रासदियों से तबाह हैं। गरीबी और भूख से संघर्षरत हैं। आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाते जा रहे हैं। ऐसा क्यों है?
– जबकि कृषि उत्पादन में हम विश्व में दूसरे क्रम पर आते हैं।
– जबकि विश्व में सबसे ज्यादा भूमि को सिंचित हमने बनाया है।
– जबकि गेहूं, चावल, दालें, कपास के उत्पादन में हम विश्व के सबसे बड़े तीन उत्पादक देशों में हैं।
– जबकि चावल में तो हम चीन से कभी आगे, कभी बराबरी जैसी नेक-एंड-नेक रेस में बने हुए हैं।
– जबकि फल और सब्जियों में हम विश्व में दूसरे नंबर पर हैं।
– जबकि टमाटर, मटर, बीन्स, नारियल में हम टॉप तीन में हैं।
– जबकि दुनिया में सबसे अधिक भैंसें, गाय, गोवंश सहित दुधारू पशुधन हमारे देश में हैं।
– जबकि हम दुनिया के सबसे बड़े दुग्ध उत्पादक हैं।
इसका उत्तर एक ही है। किसान को मिलता ही क्या है?
> किसी भी तरह फसल बोए, किसान को बेची हुई पैदावार के 30 फीसदी से अधिक के दाम नहीं मिल पाते। कहीं-कहीं तो यह 10% है।
अमेरिका में किसान को 75% तक मिल जाते हैं।
हर सरकार इसके बारे में अलग-अलग तरह से नीतियां बनाती रही है। योजनाएं लाती रही हैं।
कागजों पर सरकारी तर्क अलग रहा है, किसानों के बीच जाकर अलग।
हर सरकार ‘खेती को फायदे का काम’ बनाने की घोषणा करती रही है।
जबकि खेती का जीडीपी में योगदान घटकर 14% से भी कम रह गया है।
1950-51 में पहली बार निकाले गए जीडीपी में कृषि का योगदान 52% था!
सरकारों का संसद में एक ही उत्तर रहा है : कि परम्परागत एग्रेरियन इकोनॉमी से अब लोग इंडस्ट्री और सर्विस सेक्टर की ओर जा रहे हैं। यह बदलाव कृषि के योगदान को कमजोर करता जा रहा है।
इसीलिए जो कृषि देश में रोजगार पैदा करने वाला सबसे बड़ा सेक्टर है, वही जीडीपी में सबसे छोटा सहयोगी बचा।
एग्रीकल्चर, इंडस्ट्री और सर्विस - इन तीन सेक्टर्स के आधार पर ही हम अर्थव्यवस्था को जांचते और मापते हैं।
आज कोई एक करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र के खेतों में फसलें बर्बाद होने से किसान टूट चुका है।
हमारे किसानों की आत्महत्या पर अनेक जांच दल, शोध, खोज, रिपोर्ट, कमेटी, पैनल और आयोग बन चुके हैं। किन्तु सर्वाधिक चर्चित रहा है राष्ट्रीय कृषि आयोग जिसने कई भागों में इस पर विस्तृत रिपोर्ट दी।
2006 की इस स्वामीनाथन रिपोर्ट में अंतत: जो बातें आईं वे थीं, और आज नौ वर्ष बाद भी हैं :
> भूमि सुधार कार्यक्रम का अधूरा ही रहना
> पानी की कमी और जो पानी मिल रहा है उसकी क्वालिटी खराब
> टेक्नोलॉजी; कमी और घबराहट
> समय पर किसान को पैसे न मिलना, पैसे न होना, बैंक और संस्थाओं से लोन न मिलना, ज़रूरत पर जल्दी न मिलना
> उसकी फसल का तयशुदा सिस्टम से न बिकना
> सही मार्केट, मार्केटिंग नहीं होना
> मौसम खराब होने और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान
इनसे निपटने के लिए स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट में अनेक उपाय दिए गए हैं।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने कहा है कि वह उन सिफारिशों को लागू करेगी। मनमोहन सिंह सरकार ऐसा आठ वर्षों तक कहती रही।
यह अलग विषय है कि उक्त रिपोर्ट में अनेक सिफारिशें पूरी तरह मैदानी सच्चाई से परे होकर, नौकरशाही और लालफीताशाही बढ़ाने वाली ही हैं।
जैसे :
> हर सुसाइड हॉटस्पॉट पर निगरानी रखी जाए। नेशनल रूरल हेल्थ मिशन के तहत वहां सक्रिय ढंग से सेवाएं दी जाएं।
– पूरा देश निगाह रख रहा है। हजारों हजार किसान हर वर्ष आत्महत्या कर रहे हैं। नेशनल हेल्थ मिशन घोटालों के लिए विवादों में रहा है।
> किसान आयोग राज्यों में बनें। वे हर संवेदनशील इलाकों की समस्या देखें, तत्काल हल करें।
– एक और आयोग यानी एक और बोझ। मध्यप्रदेश में किसान आयोग बना था। जिसने सालभर में दो बैठकें तक नहीं कीं।
> माइक्रोफाइनेंस को नए सिरे से लागू किया जाए। जैसे लाइवलीहुड फाइनेंस के तहत लोन। क्रेडिट जो टेक्नोलॉजी, मैनेजमेंट और मार्केट तीनों को कवर करे।
– ऐसा तो तत्काल किया जा सकता है। जो वित्त मंत्रालय व रिजर्व बैंक आज बैंकों को कह रहे हैं - एक किसान की आत्महत्या राजधानी मेें रैली के दौरान ऐसे पेड़ पर होने के बाद - वे तब भी कह सकते थे।
> नेशनल लैंड यूज़ एडवाइज़री बॉडी बनाई जाए।
– सवाल है कि जब दूर कहीं कोई किसान तबाह हो रहा होगा, आगे की कोई राह नहीं दिख रही होगी तो ऐसी सलाहकार समितियां क्या करेंगी?
ऐसे सुझावों को लागू करने से किसानों का संकट किसी तरह कम नहीं होगा।
अब एक आने वाली प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना। कृषि मंत्री ने इसे महत्वपूर्ण हल बताया है। नाम से तो नहीं लगता। काम से पता चलेगा कि कितना काम की है।
किसानों की अनदेखी समाप्त हो असंभव है। किन्तु करनी ही होगी।
जहां-जहां किसान खुश है, उसका परिवार खुशहाल है, उसी गांव, उसी प्रदेश और उसी देश की समृद्धि सुनिश्चित है। सच्ची है।
बाकी सारे आंकड़े झूठे हैं। सुविधा से घटाए-जोड़े जा सकते हैं। दुविधा में गढ़े जा सकते हैं। असुविधा होने पर मढ़े जा सकते हैं। इस कॉलम के ऊपरी हिस्से में दिए आंकड़े भी ऐसे हों, तो क्या पता?
आंकड़ों पर नहीं, किसान की हालत पर भरोसा करें।
- (लेखक दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर हैं।
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