आमदनी बढ़े तो बेहतर होंगे किसान
- देविंदर शर्मा
- Apr 24, 2015, 06:32 AM IST
दिल्ली सदमे में है। राजस्थान में दौसा के 41 वर्षीय किसान गजेंद्र सिंह ने किसानों की आत्महत्या के मुद्दे को इसकी दहलीज पर ला खड़ा किया है। यह पहले भी गंभीर समस्या थी, लेकिन आत्महत्या की घटनाएं सत्ता केंद्र से दूर होती थीं, लेकिन अब यह सत्ता के मठाधीशों के नजदीक पहुंचकर उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी एक ट्वीट के जरिए यह बताना पड़ा कि हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले किसान खुद को कभी अकेला न समझें। देश के किसानों के लिए बेहतर कल बनाने में हम सब साथ हैं।
बेमौसम बारिश के बाद छह सप्ताहों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के 150 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से हर एक मौत दुखदायी और शासन को गहरी नींद से जगाने वाली है, लेकिन दिल्ली से बाहर हुई घटनाओं के प्रति वैसा रोष देखने को पहले नहीं मिला जो अब मिल रहा है। हद तो यह है कि राज्य सरकारें अब भी सच्चाई से मुंह मोड़ने की कोशिश कर रही हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इन घटनाओं का कारण कृषि क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही समस्याएं हैं।
राजनेता संसद के अंदर और बाहर एक-दूसरे पर किसानों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों के हाथ खून से सने हैं। किसानों की आत्महत्या कोई ताजा मामला नहीं है। पिछले 20 वर्षों में करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हर साल औसतन 14 से 15 हजार किसान अपनी जान ले रहे हैं, जबकि देश में हर घंटे में दो किसानों की मौत हो रही है। आत्महत्या निराशा का सूचक है, लेकिन इसके लिए हिम्मत की जरूरत होती है। आत्महत्या करने वाले ये किसान राजनीतिक तंत्र तक अपनी आवाज पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनकी मौतें भी संवेदनहीन हो चुकी व्यवस्था को तंद्रा से जगा नहीं सकीं।
जंतर-मंतर पर गजेंद्र सिंह की मौत के बाद टीवी चैनल वाले फिल्म पीपली लाइव का दृश्य दोहराने में व्यस्त हो गए। वे राजस्थान में उसके गांव तक पहुंच गए। वहां उन्हें जो भी मिला, उसी के जरिये हमें गजेंद्र के बारे में तमाम निरर्थक जानकारियां दे रहे हैं। हर चैनल पर चर्चाएं चल रही हैं जहां राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता किसानों के हित में उठाए गए कदमों का हवाला देकर अपनी पार्टी को आरोपमुक्त करने की कवायद में लगे हैं। हर पार्टी अपना दामन पाक-साफ बताने की कोशिश में लगी है, लेकिन मौतों के सिलसिले को रोकने के लिए इसके मूल कारणों की तह में जाने का प्रयास कोई नहीं करना चाहता है। इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं है।
यदि मुझे इसकी एक और सबसे महत्वपूर्ण वजह बताने को कहा जाए तो खेती से लगातार कम होती आमदनी का नाम लूंगा। वर्ष 2014 की एनएसएसओ रिपोर्ट के अनुसार खेती के कामों से एक किसान परिवार को हर महीने केवल 3,078 रुपए की आमदनी होती है। यह पर्याप्त नहीं होती और आमदनी बढ़ाने के लिए दूसरे विकल्पों की तलाश करना किसान के लिए मजबूरी है। मनरेगा जैसे गैर-कृषि कार्यों में लगने के बाद भी उनकी औसत मासिक आमदनी 6 हजार रुपए प्रतिमाह होती है। कोई आश्चर्य नहीं कि देश के 58 फीसदी किसान भूखे पेट सोने को मजबूर हैं तो 76 फीसदी रोजगार का विकल्प मिलने पर खेती छोड़ने को तैयार हैं।
मैंने जब इसका गंभीरता से अध्ययन किया तो पता चला कि वर्ष 1970 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपए प्रति क्विंटल था। आज यह 1450 रुपए प्रति क्विंटल है यानी बीते 45 वर्षों में इसमें करीब 19 गुना वृद्धि हुई है। इससे किसानों की बढ़ी आमदनी की तुलना दूसरे तबकों के वेतन में हुए इजाफे से करें। इन वर्षों में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की तनख्वाह 110 से 120 गुना, स्कूल शिक्षकों की 280 से 320 गुना और कॉलेज शिक्षकों की 150 से 170 गुना बढ़ी है। कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करने वालों की आमदनी 350 से 1000 गुना तक बढ़ गई है। यदि खर्चोँ की अोर नजर डालें तो इस दौरान स्कूल फीस और इलाज के खर्चों में 200 से 300 गुना और शहरों में मकान का किराया 350 गुना तक बढ़ गया है।
इससे स्पष्ट है कि किसानों को खाद्यान्नों की कम कीमत का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इस साल भी गेहूं का समर्थन मूल्य 50 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ाया गया है, जिससे खाद्यान्न की कीमतें नियंत्रित रहें। धान के मूल्य में भी इतना ही इजाफा किया गया है, जो पिछले साल के मुकाबले 3.2 फीसदी ज्यादा है। इसी बीच केंद्रीय कर्मचारियों को महंगाई भत्ते की दूसरी किस्त भी मिल गई, जो पहले से 6 फीसदी ज्यादा है। उन्हें जल्दी ही सातवें वेतन आयोग के अनुरूप वेतन और भत्ते भी मिलने लगेंगे। इसमें सबसे निचले स्तर पर काम करने वाले कर्मचारी का वेतन भी 26 हजार रुपए महीने करने की मांग हो रही है।
यदि 45 वर्षों में सबसे कम वेतन वृद्धि के आधार पर भी देखा जाए तो किसान के लिए गेहूं के मूल्य में कम से कम 100 गुना इजाफा होना चाहिए था। इसका मतलब यह कि प्रति क्विंटल गेहूं के लिए किसान को 7,600 रुपए मिलने चाहिए, लेकिन उसे केवल 1450 रुपए मिल रहे हैं। हम मानें या नहीं मानें, लेकिन यह उसका हक है। फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाने से खाद्यान्न की कीमतें बढ़ सकती हैं, लेकिन इसके लिए ज्यादा चिंतित होने की भी जरूरत नहीं है। मैं यह नहीं चाहता कि खाद्यान्न की कीमतें आसमान छूने लगें। मेरा मानना है कि सारा बोझ गरीब किसानों के ऊपर डालने की बजाय उसे फसलों की ज्यादा कीमत दें। फिर कृषि उत्पादों को सब्सिडी के दायरे में ले आएं जिससे आम उपभोक्ताओं को भी ज्यादा कीमत न देनी पड़े। जापान के अलावा कई अमीर देशों में ऐसा ही होता है।
खेती से होने वाली आमदनी में इजाफा नहीं हुआ तो किसानों के लिए कोई उम्मीद नहीं हो सकती। उत्पादकता बढ़ाने या सिंचाई के साधनों का बेहतर इस्तेमाल करने की सलाह देने से खास फायदा नहीं क्योंकि ये सब तो नई तकनीकों को बेचने के तरीके हैं। आसान और कम ब्याज पर ऋण की सुविधाएं बढ़ाने से भी किसान कर्ज के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल सकते। किसान को कर्ज नहीं, आमदनी चाहिए। हम वर्षों से किसानों को बेहतर कमाई से वंचित करते रहे हैं। एक के बाद एक आने वाली सरकारें जानबूझकर किसानों को गरीब बने देखना चाहती हैं।
देविंदर शर्मा - कृषि विशेषज्ञ और खाद्य व कृषि नीतियों के विश्लेषक।
> किसानों की आत्महत्या ताजा मामला नहीं है। पिछले 20 वर्षों में करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हर साल औसतन 14 से 15 हजार किसान अपनी जान दे रहे हैं, जबकि हर घंटे में दो किसानों की मौत हो रही है।
> 2014 की एनएसएसओ रिपोर्ट के अनुसार खेती के कामों से एक किसान परिवार को हर महीने केवल 3,078 रुपए की आमदनी होती है।
> सारा बोझ गरीब किसानों के ऊपर डालने की बजाय उसे फसलों की ज्यादा कीमत दें। फिर कृषि उत्पादों को सब्सिडी के दायरे में ले आएं, जिससे आम उपभोक्ताओं को ज्यादा कीमत न देनी पड़े। जापान के अलावा कई अमीर देशों में ऐसा ही होता है।
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