गुजरातः टाडा, मकोका और पोटा के बाद...
- 7 घंटे पहले
भारत में सामान्य क़ानूनों में पुलिस के सामने अपराध क़ुबूल कर लेना इंसाफ़ के लिहाज़ से स्वीकार्य नहीं होता है.
लेकिन गुजरात की सरकार ने अपने नए चरमपंथ निरोधक कानून में इस प्रावधान को रखा है कि पुलिस के सामने आरोप क़ुबूल करना अदालत में स्वीकार किया जाएगा.
हम लोगों को इस बात पर आपत्ति है. इस मामले में सभी सरकारों का रवैया एक जैसा ही रहा है. कांग्रेस के वक्त टाडा बना था, एनडीए के दौरान पोटा लाया गया.
दोनों ही कानूनों में पुलिस को दिए गए इक़रारनामे को कोर्ट में स्वीकार्य क़रार दिया गया था.
नागरिक अधिकार
नए क़ानून के मुताबिक पुलिस अभियुक्तों को ज़्यादा दिन तक हिरासत में रख सकती है. ये प्रावधान शुरू में टाडा में भी था.
नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग इसकी मुख़ालफ़त शुरू से कर रहे हैं.
टाडा हो या पोटा या फिर मकोका, नागरिक अधिकारों को लेकर सरकारों की सोच एक ही लाइन पर रही हैं.
जितनी भी सरकारें आती हैं, वे अपने फायदे के लिए इस किस्म का कानून बनाती रही हैं. जब वे विपक्ष में होते हैं तो शोर मचाती हैं.
चरमपंथ विरोधी
गुजरात के चरमपंथ निरोधक कानून पर राष्ट्रपति ने अतीत में तीन बार दस्तख़त करने से इनकार कर दिया था. लेकिन मोदी को अब लग रहा है कि वे केंद्र में हैं तो इसे पारित करा सकते हैं.
इस क़ानून को अभी लाए जाने की बात बेतुकी है. इस वक्त ऐसे हालात भी नहीं हैं कि इस क़ानून को वाज़िब ठहराया जा सके.
हालांकि ये सवाल उठाया जा सकता है कि तीन बार वापस लौटा दिए जाने के बाद राष्ट्रपति नए क़ानून पर क्या रुख अख़्तियार करेंगे.
लेकिन राष्ट्रपति अपनी तरफ़ से कुछ नहीं कर सकते हैं, उनका रवैया सरकार की मर्ज़ी पर निर्भर करता है.
नए क़ानून से सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि पुलिस को दिए गए इक़रारनामे का कोर्ट में अभियुक्त के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा सकता है.
टाडा, पोटा, मकोका जैसे अपवादों को छोड़ दें तो आम क़ानून इसकी इजाज़त नहीं देते. इस लिहाज़ से यह नागरिक अधिकारों पर हमला है.
(बीबीसी संवाददाता निखिल रंजन से बातचीत पर आधारित)
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