Wednesday, October 5, 2016

देशभक्ति का यह कौन सा मॉडल है,जो सिर्फ सरहदों पर मरने वाले सैनिकों की लाशों के जुलूस से ही खुराक पाता है,

** दिल्ली के किसी सुरक्षित ठिकाने पर बैठ कर यह कह देना आसान है कि परमाणु युद्ध हो जाना चाहिए चाहे दस करोड़ देश वासी ही क्यूँ न मर जाएँ.


** लेकिन देशभक्ति का यह कौन सा मॉडल है,जो सिर्फ सरहदों पर मरने वाले सैनिकों की लाशों के जुलूस से ही खुराक पाता है,
** क्या वे बताएँगे कि सीमाओं पर जो मरते हैं वे क्या रोबोट हैं, माटी के गुड्डे हैं जिनको आपकी खूंरेज देशभक्ति के लिए कभी भी मटियामेट कर दिया जाना चाहिए ?
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आतंक कहीं भी हो नेस्तनाबूद किया जाना चाहिए,कट्टरपंथ कहीं भी हो धराशायी किया जाना चाहिए
.लेकिन प्रश्न यह भी है कि क्या वाकई यहाँ के कट्टरपंथ से वहां के कट्टरपंथ का मुकाबला किया जा सकता है? एक मुल्क का कट्टरपंथ,जब दूसरे मुल्क के कट्टरपंथ को जमींदोज करने की हुंकार भरता है तो क्या वह ,उसे कमजोर करता है या  मजबूत करता है?
 सरहदें हैं तो उन पर फौजें भी होंगी और बंदूकें व तोपें भी गरजेंगी ही.
लेकिन देशभक्ति का यह कौन सा मॉडल है,जो सिर्फ सरहदों पर मरने वाले सैनिकों की लाशों के जुलूस से ही खुराक पाता है,
इन्हीं से फलता-फूलता है?उधर के कितने मरे से पहले तो सवाल यह है कि हमारे कितने मरे ?
जंग के लिए जो मचल रहे हैं
और  वे इस पागलपन तक पहुँच गए हैं कि दस करोड़ हिन्दुस्तानी भी मर जाएँ तो कोई बात नहीं
,क्या वे बताएँगे कि सीमाओं पर जो मरते हैं वे क्या रोबोट हैं, माटी के गुड्डे हैं जिनको आपकी खूंरेज देशभक्ति के लिए कभी भी मटियामेट कर दिया जाना चाहिए ?
दिल्ली के किसी सुरक्षित ठिकाने पर बैठ कर यह कह देना आसान है कि परमाणु युद्ध हो जाना चाहिए चाहे दस करोड़ देश वासी ही क्यूँ न मर जाएँ.
.ऐसी हत्यारी सनक में यह आश्वस्ति है कि दस करोड़ मरने वालों में हम तो न होंगे,हम तो सुरक्षित ठिकानों पर हैं.
अपने मरने की लेश मात्र आशंका होने पर तो सारे नीले,पीले,काले कैट कमांडो आप ही को चाहिए.

स्टूडियो और सोशल मीडिया में जंग का ऐलान करने वाले अपने घर से स्टूडियो तक जाने के लिए जेड श्रेणी की सुरक्षा पाए हुए हैं.जो घर,स्टूडियो और पार्टी दफ्तरों में अपनी सुरक्षा के लिए भारीभरकम सुरक्षा से शांतिकाल में भी घिरे हुए हैं,
जो अपने प्राणों को लेकर हर समय आशंकित रहते हैं,वे जब देश के लिए मर-मिटने का डायलाग बोलते हैं तो बेहद भौंडे प्रतीत होते हैं.

दो देशों के सुरक्षित ठिकानों पर बैठे रक्तपिपासुओं की खूनी प्यास की कीमत सीमाओं पर जो सैनिक चुकाते हैं,
वे माटी के गुड्डे नहीं हैं,जिन्हें जब चाहे चाक पर मिट्टी से गढ़ लिया और जब चाहे मिटटी में मिला लिया.
उनके खून से राजनीति भले ही चमक उठती हो पर उनका परिवार तबाह हो जाता है.
माँ-बाप बेटे की अर्थी ढोते हैं,पत्नी को आजीवन बिछोह झेलना होता है और बच्चे असमय ही अनाथ हो जाते हैं.क्या इनकी भरपाई कोई मैडल,कोई मुआवजा कर सकता है  ?
 सेना का गुणगान करने वाले सैनिकों को मरने पर देते क्या हैं ?
कुछ पांच-दस लाख रूपया.
 अरे महाराज इतनी तो प्रधानमन्त्री जी के एक सूट की कीमत थी और सुनते हैं इससे कई गुना ज्यादा उनके पिछले नवरात्रों के उपवास के पानी पर खर्च हो गया था !
यानी जिसको आप सर्वाधिक बड़ा देशभक्ति का काम समझते हैं,क्या उस मौत की कीमत प्रधानमन्त्री जी द्वारा नौ दिनों में पिए जाने वाले पानी से भी कम है ?

यह तो ठीक है कि सैनिकों के मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए.
लेकिन जब आप सीमा पर फ़ौज की कार्यवाही के लिए स्वयं के लिए दाद ही नहीं वोट भी चाहते हैं और अपने गुणगान के पोस्टर छपवाते हैं तो क्या यह गैर राजनीतिक कार्यवाही है?
यह भी कैसा कमाल है कि सीमा पर सैनिक मरते हैं और ब्लैक कैट कमांडो के पीछे महफूज बैठी सत्ता बहादुर कहलाती है !
यह भी तो कोई समझाए भाई कि सिंहासन पर बैठने के लिए और सिंहासन के नजदीक पहुँचने के लिए तुम्हें हर बार ही लाशों के पहाड़ क्यूँ चाहिए ?
लाशें चाहे नागरिकों की हो या सैनिकों की ,वे जितनी अधिक गिरती हैं,गद्दी उतनी मजबूत होती चली जाती है !    

** इन्द्रेश मैखुरी

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