जेलों में महिला क़ैदियों की दास्तां [ भारत ]
- 4 घंटे पहले
भारत की जेलों में विचाराधीन कैदियों में एक बड़ा तबका महिलाओं का भी है.
वे महिलाएँ जेलों में अकेली नहीं हैं. उनके साथ उनके बच्चे भी इस यातना के बीच पल-बढ़ रहे हैं. बात सिर्फ जेल में बंद होने भर की नहीं होती.
पहली नज़र में छोटी उम्र के बच्चों का कसूर सिर्फ इतना लगता है कि उन्हें पता ही नहीं कि उनकी मां कसूरवार है भी या नहीं.
इन जेलों में बंद औरतों के स्वास्थ्य का मुद्दा भी किसी अस्पृश्य विषय की तरह लगने लगता है. आखिर वे 'विचाराधीन' जो हैं.
अंडरट्रायल सिरीज़ की तीसरी कड़ी
सुबह के नौ बज रहे हैं. नन्हे-मुन्ने बच्चों की यह जमात यूनिफॉर्म पहने जगदलपुर केंद्रीय कारागार से कतारबद्ध होकर निकल रही है.
अपने-अपने बस्ते पीठ पर टाँगे हुए पास के ही सरकारी स्कूल की तरफ़ इनका रुख हैं. मैं इनमें से किसी बच्चे का नाम नहीं ले सकता.
क्योंकि वैसे तो ये जेल के बाशिंदे हैं लेकिन ये यहाँ सजा नहीं काट रहे हैं. चूँकि ये छोटे हैं इसलिए ये अपनी माताओं के साथ जेल में ही रह रहे हैं.
अधिकारी बताते हैं कि इनमें से कुछ बच्चों का जन्म जेल में ही हुआ है.
छत्तीसगढ़ के बस्तर स्थित जगदलपुर की इस सेंट्रल जेल में बच्चों के लिए अलग इंतज़ाम किए गए हैं.
जेल प्रशासन
यहाँ 97 महिला कैदी हैं, जिनमें 29 विचाराधीन हैं जबकि बाक़ी वो हैं जो सज़ायाफ्ता हैं या फिर विशेष सुरक्षा अधिनियम के तहत बंद हैं.
इन महिला कैदियों के साथ रह रहे 12 बच्चे, अब जेल प्रशासन की ही ज़िम्मेदारी हैं.
इनके रहने, खाने-पीने, शिक्षा और स्वास्थ्य का इंतज़ाम जेल प्रशासन को ही करना पड़ता है.
लेकिन कैदियों की तरह इन बच्चों पर कोई पाबंदी नहीं है. कभी जेल अधीक्षक की कमरे में तो कभी जेलर के कमरे में या फिर जेल के बाहर यह खेलते रहते हैं.
जिनकी उम्र बहुत कम है, उन्हें मालूम तक नहीं है कि जेल किस चिड़िया का नाम है. उन्हें लगता है कि यह उनका घर ही है.
'मां को जेल'
लेकिन जो बच्चे बड़े हो गए हैं, मसलन जिनकी उम्र 10 साल तक की है, उनको अब समझ में आने लगा है कि उनकी माँ को जेल में क्यों रखा गया है.
जेल के अधिकारी कहते हैं कि जिन बच्चों की उम्र छह साल से ऊपर है, उन्हें सरकारी स्कूल के छात्रावास में रखा गया है जबकि छोटे बच्चे अपनी माताओं के साथ महिला वार्ड में ही रह रहे हैं.
यहीं जेल में मेरी मुलाक़ात शशिकला से हुई जो पिछले छह महीनों से जगदलपुर की जेल में बंद हैं. उनपर अपने ही पति की हत्या का मामला चल रहा है.
लेकिन इस दौरान उनको किसी भी तरह की न्यायिक मदद नहीं मिल पाई है. इसका कारण वो बताती हैं कि उनका इस दुनिया में कोई नहीं है. उनकी कोई औलाद भी नहीं है.
उनसे जेल में मिलने भी कोई नहीं आता है. उनका कहना है कि वो अब तक अपने लिए कोई वकील तक नहीं कर पाई हैं.
नक्सली होने के आरोप
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब बस्तर के न्यायिक सहायता प्रकोष्ठ ने उन्हें क़ानूनी मदद देने की पहल की है.
इन्हीं महिला कैदियों में से एक हैं गुलशन, जिन्हें बहू की हत्या के आरोप में सात साल की सज़ा हो गई है.
वो पिछले छह साल और आठ महीने से सज़ा काट रही हैं. अब उनकी सज़ा की अवधि ख़त्म होने वाली है. उनके साथ उनके पति और दो बेटे भी इसी जेल में सज़ा काट रहे हैं.
हालांकि बस्तर की जेलों में बंद महिला कैदियों में ज़्यादातर नक्सली होने के आरोप में बंद हैं, लेकिन दहेज प्रताड़ना के अधिकतर मामले महिलाओं पर दर्ज किए गए हैं.
यह मामला सिर्फ एक जेल तक ही सीमित नहीं है.
जमानत याचिका
बिहार से स्थानीय पत्रकार मनीष शांडिल्य ने हीरामनी उर्फ आशा के बारे में पता किया है जो छपरा के ग्राम टिलकार की रहने वाली हैं.
44-साल की आदिवासी महिला हीरामनी को 2010 में छह फरवरी को नक्सल गतिविधियों में शामिल रहने के आरोप में यूपी के गोरखपुर के आस-पास गिरफ्तार किया गया था.
उन पर आईपीसी की बाक़ी धाराओं के साथ-साथ यूएपीए भी लगाया गया है. जिनके तहत उनको उम्र-कैद तक की सज़ा हो सकती है.
वर्ष 2011 के फ़रवरी महीने में उनके मामले की सुनवाई शुरू हुई. 2012 के दिसंबर महीने में सेशन कोर्ट ने उनकी ज़मानत याचिका खारिज़ कर दी.
इसके बाद उन्हें मार्च, 2014 में इलाहाबाद हाईकोर्ट से ज़मानत मिली.
पहचान की पुष्टि
हाईकोर्ट ने उन्हें एक-एक लाख के दो मुचलकों पर ज़मानत देने का आदेश दिया था.
लेकिन, हीरामनी के बेटे सिद्धांत ने बताया कि पहले परेशानी इस कारण पैदा हुई क्योंकि अदालत से जो पत्र जारी किया गया उसमें एफ़आईआर के मुक़ाबले गलत धाराओं का ज़िक्र कर दिया गया था.
इस त्रुटिपूर्ण पत्र को सुधरवाने में दो महीने का समय लग गया.
रिहाई में देरी
इसके बाद के पांच महीने ज़मानतदारों की पहचान की पुष्टि करने और बतौर बॉन्ड (अचल संपत्ति के कागज़) की जांच में गुज़ार दिए गए.
इस बीच, हीरामनी के एक ज़मानतदार के अचल संपत्ति के कागजातों की जांच से संबंधित आवेदन भी बिहार के एकमा प्रखंड में गुम हो गया था.
इस कारण भी जांच की प्रक्रिया में लगभग एक महीने की देरी हुई. हाल ही में उनकी जेल से रिहाई हो सकी है.
वैसे तो महिलाओं के लिए विशेष तौर पर भारत में 19 जेल हैं. इन 19 के साथ अन्य जेलों में 4827 महिला क़ैदियों को रखा जा सकता है.
लेकिन इस समय इनकी संख्या 18,188 है. जिनमें 5345 महिलाओं की सज़ा तय कर दी गई है.
12,688 महिलाएं अंडरट्रायल यानी विचाराधीन हैं तो वहीं 98 महिलाओं को डिटेन यानी स्थानीय क़ानूनों के तहत हिरासत में रखा गया है.
पुरुषवादी मानसिकता
आंकड़ों के अनुसार 1603 महिलाएं अपने बच्चों के साथ जेलों में हैं, इनके बच्चों की संख्या 1933 है.
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के 'सरोजनी नायडू सेंटर फॉर वूमेन स्टडीज' की क़ानून विशेषज्ञ तरन्नुम सिद्दिक़ी कहती हैं कि महिलाओं में शिक्षा की कमी उनके जेल जाने की सबसे बड़ी वजह है.
तरन्नुम सिद्दिक़ी पुरुषवादी मानसिकता को ही महिलाओं के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों का बड़ा कारण मानती हैं.
उनका कहना है कि पुलिस में महिलाओं की संख्या काफी कम है. पुलिस कई बार अपनी इस मानसिकता की वजह से महिलाओं को उठाकर जेलों में डाल देती है और वहां उनका शोषण भी किया जाता है.
ज्यादा ध्यान
हालाँकि, केंद्रीय कारागारों की स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन कई जेलें ऐसी हैं जहाँ महिला कैदियों को खराब हालात में रखा गया है, जिससे उनके निजी स्वास्थ्य को लेकर उन्हें काफी सारी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं.
कई जेलों में तो उनकी दूसरी रोज़मर्रा की चीज़ें भी नहीं मिल पाती हैं. उप-जेलों या ज़िला जेलों में बंद महिला कैदियों का हाल ज़्यादा खराब है.
सामाजिक कार्यकर्ता सरोज गायकवाड़ कहती हैं कि बाक़ी के कैदियों की तुलना में महिला कैदियों पर ज़्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, "इसीलिए वो अपने संगठन के स्तर से उन्हें रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाली स्वास्थ्य की चीज़ों के साथ-साथ उनके साथ रहने वाले बच्चो के लिए भी दवाइयों से लेकर गर्म कपड़ों तक का इंतज़ाम सुनिश्चित करवाती हैं."
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