19 साल जेल में रहने के बाद दोषमुक्त पर...काश्मीर
- 4 घंटे पहले
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़ भारत की जेलों में क्षमता से काफ़ी ज़्यादा क़ैदियों को रखा गया है और इनमें से अधिकतर विचाराधीन क़ैदी ही हैं.
विचाराधीन क़ैदियों पर बीबीसी हिन्दी की विशेष सिरीज़ में कहानी कश्मीर के उन युवाओं की जिनकी ज़िंदगी के बेशकीमती साल जेलों में गुज़र गए.
भारत प्रशासित कश्मीर में आतंकवादी होने के शक में पकड़े गए कई नौजवान बाद में बेकसूर साबित हुए, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
इमरान किरमानी
भारत प्रशासित कश्मीर के हंदवाड़ा इलाक़े के रहने वाले 34 वर्षीय इमरान किरमानी को 2006 में दिल्ली पुलिस की एक विशेष सेल ने राजधानी के मंगोलपुरी इलाक़े से गिरफ़्तार किया था.
इमरान पर आरोप था कि वह दिल्ली में आत्मघाती हमला करने की योजना बना रहे थे. मगर पौने पांच साल बाद अदालत ने इमरान को सभी आरोपों से बरी कर दिया.
इमरान ने जयपुर से 'एयरक्राफ्ट मैकनिकल' इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है. जब उन्हें दिल्ली में गिरफ़्तार किया गया तो वो एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहे थे.
जेल में बिताए अपने जीवन के पांच सालों को याद करते हुए वह कहते हैं, "बरी तो अदालत ने कर दिया लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि मेरे पाँच साल, जो जेल में बीत गए उन्हें कौन वापस करेगा?"
इमरान को इस बात का भी काफ़ी सदमा है कि जिस वक़्त वह अपना भविष्य बनाने निकले थे, उसी वक़्त उन्हें जेल में डाल दिया गया और वह भी बिना किसी कसूर के.
वह कहते हैं, "जो मेरे साथ पढ़ाई करते थे, काम करते थे वे आज बहुत तरक़्क़ी कर चुके हैं. मैं भी करता लेकिन, मेरा क़ीमती समय जेल में ही बर्बाद हो गया."
इमरान अब अपने गाँव में एक स्कूल में पढ़ाते हैं.
उन्हें सरकार से किसी मदद की उम्मीद नहीं है और न ही वह इसके लिए सरकार के पास जाने के लिए तैयार हैं.
फारूक़ अहमद ख़ान
हाल ही में इंजीनियर फारूक़ अहमद ख़ान को भी 19 साल बाद अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया है. ख़ान पर भी दिल्ली में विस्फोट करने की योजना बनाने का आरोप लगा था.
अनंतनाग के रहने वाले फ़ारूक़ को स्पेशल टास्क फोर्स ने 23 मई 1996 को उनके घर से गिरफ़्तार किया था.
गिरफ़्तारी के वक़्त 30 साल के फ़ारूक़ पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग महकमे में जूनियर इंजीनियर के पद पर काम करते थे.
दिल्ली हाई कोर्ट ने चार साल बाद उन्हें लाजपत नगर विस्फोट मामले से बरी कर दिया था लेकिन उसके बाद उन्हें जयपुर और गुजरात में हुए बम धमाकों के मामले में जयपुर सेंट्रल जेल में रखा गया.
जयपुर के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने भी उन्हें रिहा करने का आदेश दिया और उनके ख़िलाफ़ लगाए गए सभी आरोपों को ख़ारिज कर दिया.
ज़िंदगी के 20 साल खोने के अलावा फ़ारूक़ को अपने मुक़दमे के ख़र्च के तौर पर एक मोटी रकम भी गंवानी पड़ी.
उनका कहना है कि दिल्ली में मुक़दमे के खर्च में 20 लाख रुपए लगे, जबकि जयपुर में 12 लाख रुपए का ख़र्च उठाना पड़ा.
वह कहते हैं कि 2000 में जब उनके पिता का निधन हुआ तो उन्हें पैरोल पर भी नहीं छोड़ा गया.
फ़ारूक़ की मां कहती हैं, “जिस दिन फ़ारूक़ के अब्बा ने बेटे की जेल की तस्वीर देखी थी तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई. अब बेटा तो घर आ गया लेकिन उसके खोए हुए 19 साल कौन लौटाएगा.”
मक़बूल शाह
भारत प्रशासित कश्मीर के श्रीनगर के लाल बाज़ार के रहने वाले मक़बूल शाह साल 2010 में 14 साल बाद जेल से रिहा हुए तो उन्हें लगा कि उन्हें एक नई ज़िंदगी मिल गई है.
उन्हें भी दिल्ली में विस्फोट का षड्यंत्र रचने के आरोप में 1996 में गिरफ्तार किया गया था. उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ 14 साल थी.
मक़बूल को भी अदालत ने आरोपों से बरी कर दिया.
मगर मक़बूल को लगता है कि जिन लोगों ने उन्हें फ़र्ज़ी मुक़दमे में फंसाया था उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई होनी चाहिए.
वह कहते हैं, "समाज में ज़िंदगी गुज़ारनी मुश्किल हो गई है. हर कोई समझता है कि मैं आतंकवादी हूं क्योंकि मैं 14 साल तक जेल में रहा. कोई नहीं मानता कि मैं बेगुनाह हूँ. मेरे पास अब कुछ नहीं बचा है. अब अपनी बेगुनाही का सबूत किसको दूं और कैसे दूं?"
उन्हें अफ़सोस इस बात का है कि जब वह जेल से बाहर आए थे तो राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने उन्हें यक़ीन दिलाया था कि वह उनके लिए कुछ न कुछ करेंगे. मगर कुछ भी नहीं हुआ और उनके पुनर्वास के लिए किसी ने पहल तक नहीं की.
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