क्यों क़ैदी राम सिंह बन गए 'सिस्टम सिंह'...
- 12 दिसंबर 2014
विचाराधीन क़ैदी भारत की न्यायिक व्यवस्था का वो हिस्सा हैं जो बहुत अधिक संवेदनहीनता का शिकार हैं.
अगर घर परिवार के लोग भी साथ छोड़ दे तो फिर सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं के बराबर लगता है.
भारत की जेलों में ऐसे कई विचाराधीन क़ैदी हैं जो शायद इसी बेरुख़ी की सज़ा भुगत रहे हैं. न तो उन्हें क़ानून का ही आसरा मिला और न ही अपनों का.
अंडरट्रायल सिरीज़ की चौथी कड़ी
बिखरे हुए बाल और शून्य में ताकतीं आंखें 50 साल के राम सिंह की पहचान बन चुकी हैं.
देखकर एक बार तो लगता है कि राम सिंह जैसे कुछ याद कर रहे हों. लेकिन उन्हें तो अपना नाम तक ठीक से याद नहीं. यह भी याद नहीं कि वो रायपुर की जेल में क्यों हैं.
लेकिन ठहरिए. ये बात तो शायद सरकार को भी याद नहीं है कि राम सिंह जेल में क्यों हैं.
राम सिंह को कबीरधाम ज़िले की एक स्थानीय अदालत ने 2004 में दोषमुक्त क़रार दिया था. लेकिन वे अदालत के आदेश के बाद भी पिछले 10 सालों से जेल के सींखचों के पीछे बंद हैं.
गिरफ़्तारी और जेल
छत्तीसगढ़ के संरक्षित बैगा आदिवासी राम सिंह का घर राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह के गृह ज़िले कबीरधाम में है.
जून, 2000 में राम सिंह की पत्नी से कुछ बहस हुई और उन्होंने अपनी पत्नी की हत्या कर दी. पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार किया और 13 जून 2000 को उन्हें जेल भेज दिया गया.
कबीरधाम के चिल्फी थाने में जो दस्तावेज़ हैं, उसमें राम सिंह का नाम अपराध क्रमांक 12/2000 धारा-302 भारतीय दंड संहिता के अभियुक्त के तौर पर दर्ज है.
लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ, उसकी मिसाल किसी दस्तावेज़ में नहीं है. कम से कम भारतीय दंड संहिता में तो कहीं नहीं.
अदालती आदेश
कबीरधाम की स्थानीय अदालत ने माना कि राम सिंह की मानसिक स्थिति ख़राब है और उसी स्थिति में उन्होंने पत्नी की हत्या की.
इस आधार पर 18 नवंबर 2004 को उन्हें दोषमुक्त क़रार दे दिया गया.
अदालती भाषा में जो आदेश दिया गया, उसमें कहा गया कि अगर राम सिंह के घर वाले 2000 रुपए की ज़मानत राशि जमा करें, उनका इलाज कराएं और राम सिंह ख़ुद या किसी दूसरे को क्षति न पहुंचाएं, इसकी ज़िम्मेवारी लें तो उन्हें रिहा कर दिया जाए.
लेकिन अदालती आदेश के 10 साल बाद भी राम सिंह जेल में ही पड़े रह गए.
दोषमुक्त क़रार
इस साल 20 अक्टूबर से 19 नवंबर तक हमने राम सिंह के गांव कुंडपानी से लेकर चिल्फी थाना, कबीरधाम, दुर्ग, रायपुर और बिलासपुर की अदालतों, जेल और थानों के कई चक्कर काटे.
लेकिन यह ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया कि फिर क्या हुआ. हां, पांच मार्च और नौ अगस्त 2005 को छत्तीसगढ़ के विशेष सचिव के नाम कलेक्टर कबीरधाम के दो पत्र ज़रूर मिलते हैं.
इनमें इस बात का हवाला है कि दोषमुक्त क़रार दिए जाने के बाद उनके परिजन रिहाई में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं और यह भी कि किसी को रिहा करने के आदेश के बाद भी जेल में रखना सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवमानना है.
क्रॉनिक सिजोफ्रेनिया
ऐसे में राम सिंह को ग्वालियर के मानसिक चिकित्सा अस्पताल भेज दिया जाए. लेकिन कलेक्टर की ये चिट्ठियां नौ साल बाद भी अनदेखी रह गईं और अनदेखे रह गए राम सिंह.
राम सिंह शायद जेल में अकेले ऐसे क़ैदी हैं, जो पिछले 14 साल से बंद हैं लेकिन उनसे मिलने आज तक कोई नहीं आया.
जेल के बंदियों और क़ैदियों के लिए राम सिंह के कई नाम हैं- बामड़ा, पगला, सिस्टम सिंह, बैगा महाराज. किसी भी नाम से उन्हें पुकारा जाए, राम सिंह बस मुस्कुरा देते हैं.
रायपुर के भीमराव अंबेडकर अस्पताल में राम सिंह के बारे में पूछने पर अधिकृत बयान देने वाला कोई नहीं मिलता.
एक डॉक्टर याद करते हुए कहते हैं- "हां, साल दो साल में उन्हें यहां लाया जाता है. वह क्रॉनिक सिजोफ्रेनिया से ग्रस्त हैं. लेकिन अगर ढंग से इलाज हो तो यह ठीक हो जाएगा."
'हम कहां ढूंढते'
तो क्या इन 10 सालों में कभी उनका ढंग से इलाज नहीं किया गया?
वे दस्तावेजों को देख कर कहते हैं, "2000 से वह जेल में हैं लेकिन यहां पहली बार तो उन्हें अप्रैल 2007 में लाया गया. हर तीन महीने में उन्हें यहां लाना चाहिए. लेकिन ऐसा होता नहीं है."
कुंडपानी के अपने घर में बीमार राम सिंह के पिता केजूराम कहते हैं, "सुना था कि बेमेतरा जेल में उसे भेजा गया था. फिर कहां गया, कोई ख़बर नहीं. हम तो रोज़ कमाने-खाने वाले, मज़दूरी करने वाले लोग हैं. काम छोड़ कर उसे कहां ढूंढते?"
अगर राम सिंह को रिहा कर ले आया जाए तो आपके लिए कैसा होगा? इस सवाल के जवाब में वे चुप रह जाते हैं. फिर खांसते हुए कहते हैं, "मैं तो बूढ़ा हूं. इसका फ़ैसला तो राम सिंह के बेटे को करना है."
सफ़र की थकान
राम सिंह के बेटे वीर सिंह घर में नहीं हैं. पता चला कि घने जंगलों को बीच से दो पहाड़ों को पार कर उनकी ससुराल है.
कोई 30 किलोमीटर दूर. दो घंटे पहले ही वे अपनी पत्नी के साथ ससुराल के लिए निकले हैं.
बिना रास्ते वाले जंगल में जानवरों, झाड़ियों और पेड़ों के बीच से जाने का हौसला हो तो भी दूर नज़र आने वाले पहाड़ को देख कर ही दम फूल जाता है.
गांव के एक पहचान वाले के साथ जब हम वहां पहुंचे तो वे चौंक गए.
वीर सिंह अपनी ससुराल रानीदेहरा में घरवालों के साथ सफ़र की थकान दूर करने में जुटे हुए हैं.
'पिता मर चुके'
जब हमने उनसे उनके पिता के बारे में पूछताछ शुरू की तो उनके चेहरे पर दुख, आक्रोश और बेबसी के भाव एक साथ झलकने लगते हैं.
वीर सिंह कहते हैं, "उसने मेरी मां को मार डाला. मैंने तय किया कि मैं उसे कभी अपने घर नहीं लाउंगा. इसलिए मैं उससे कभी मिलने भी नहीं गया. मेरे लिए तो मेरे पिता मर चुके हैं."
वीर सिंह की बातों में यह भी शामिल है कि वे बड़ी मुश्किल से अपना घर चलाते हैं. ऐसे में वे अपने पिता का ख़र्चा और उनके इलाज का ख़र्चा कैसे उठाएंगे?
लगभग घंटे भर तक हम उन्हें विस्तार से उनके पिता के बारे में बताते हैं, जिनकी आज तक कभी उन्हें कोई ख़बर नहीं मिली.
लेकिन पिता को घर नहीं लाने की बात पर वो अडिग हैं.
सिस्टम सिंह
चिल्फी थाने के एक कर्मचारी राम सिंह के मामले में पिछले साल की लिखाई-पढ़ाई का एक कागज़ दिखाते हैं, जिसमें राम सिंह के परिजनों के हस्ताक्षर हैं.
कागज में दर्ज है, "हम लोग रोज़ मज़दूरी करते हैं. हम लोगों की आर्थिक स्थिति ख़राब है. इसलिए हम लोग इनके पालन-पोषण, देख रेख नहीं कर पाएंगे और न ही हम लोग उनके पागलपन का इलाज करा पाएंगे."
राम सिंह को इस बीच रायपुर केंद्रीय जेल से बिलासपुर शिफ़्ट कर दिया गया है.
राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के सदस्य सचिव रजनीश श्रीवास्तव कहते हैं, "मानवाधिकार से लेकर ग़रीबों के मूलभूत अधिकारों के प्रति हम जो कुछ कर सकते हैं, कर रहे हैं. इस मामले में भी हम त्वरित कार्रवाई करेंगे."
बिलासपुर में राम सिंह से मिल कर हम उन्हें उनके गांव का क़िस्सा बताते हैं. राम सिंह चुपचाप सब कुछ सुनते हैं. कहते कुछ भी नहीं. मुस्कुराते हैं, फिर चुपचाप उठ कर दूसरी तरफ़ चल देते हैं.
कहने का मन करता है, यह राम सिंह नहीं हमारी व्यवस्था है. ठीक ही है, जो जेल में उनके साथियों ने उनका नाम रखा है, सिस्टम सिंह.
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