देश की संसद द्वारा वनों में रहने वाले वनाश्रित समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने के लिए विशिष्ट कानून 'वनाधिकार कानून' को 15 दिसम्बर 2006 को पारित किए अभी 8 वर्ष हो गए हैं लेकिन इस कानून को अभी तक देश में प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया है। ऐसे में पूरे वनक्षेत्र में एक टकराव की स्थिति बनी हुई है। जल-जंगल-जमीन आदिवासीयों, दलित एवं अन्य परम्परागत वनसमुदाय की पहचान व वजूद है जिसपर उनका सार्वभौमिक अधिकार है। इस सामाजिक व प्राकृतिक ताने बाने को यह सरकार व बहुराष्ट्रीय कम्पनियां मिल कर तबाह करने पर तुली हुई है जिससे केवल कुछ ही मुटठी भर पूंजीपतियों को मुनाफा होगा। वहीं दूसरी ओर देश की असंख्य वंचित समुदाय जो इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी जीविका के लिए र्निभर हैं उनके सामने जीवन का संकट खड़ा हो गया है। ऐसे मौके पर इस प्राकृतिक संसाधनों पर इस पूंजीवादी व साम्राज्यवादी ताकतों के हमले का मुंह तोड़ जवाब देना है जिसके के लिए देश के कई जनसंगठन व सामाजिक आंदोलन धिंकिया, जगतसिंहपुर, उड़ीसा में 29 व 30 नवम्बर को इकटठा हुए थे व उन्होंने यह कारपोरेट द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की इस लूट के खिलाफ जनमोर्चा बनाने का निर्णय लिया।
इस विशाल जन प्रदर्शन में प्राकृतिक संसाधनों पर समुदायों के अधिकार स्थापित करने के मुद्दों व अन्य जनमुद्दों पर काम करने वाले देश के जनसंगठन, यूनियन व सामाजिक संगठन शामिल हुए। इस मौके पर हमारी मुख्य मांगे हैंः-
- केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा राजनैतिक इच्छा ज़ाहिर करते हुए वनाधिकार कानून-2006 को प्रभावी तरीके से पूरे देश में क्रियान्वित किया जाए व वनाश्रित समुदायों के वनाधिकार और विकास के अधिकारों को तत्काल क्रियान्वित किया जाये।
- वनाधिकार कानून की मंशा के तहत वनाश्रित समुदायों के सामुदायिक अधिकारों को तत्काल स्थापित किया जाए व राजस्व अभिलेखों में सामुदायिक अधिकारों की एक नयी श्रेणी को बनाया जाए।
- सभी तरह के लघु वनसंसाधनों, इमारती व जालौनी लकड़ी पर समुदायों के अधिकार स्थापित किये जायें और इन तमाम संसाधनों से वनविभाग व वनविभाग को होने वाली 50 हजार करोड़ से अधिक की आमदनी पर वनाधिकार कानून नियमावली संशोधन-2012 के तहत वनाश्रित समुदाय की सहकारी समितियों के गठन की प्रक्रिया तत्काल शुरू की जाये, जिससे वनाश्रित समुदायों की आजीविका बहाल हो और उनकी गरीबी दूर हो सके। तथा वनविभाग एवं वननिगम को वनों से बेख़ल किया जाए।
- वनाधिकार कानून में अन्य परम्परागत वननिवासियों के लिये दी गयी 75 वर्ष के साक्ष्य की अनिवार्यता गैर संवैधानिक है, इसे संशोधित किया जाये।
- चूंकि वनविभाग और वननिगम जो कि वनाश्रित समुदायों के साथ औपनिवेशिक काल से होने वाले ऐतिहासिक अन्यायों के लिये पूरी तरह से जिम्मेदार हैं, इन्हें वनक्षेत्रों से बाहर निकाला जाये।
- भारतीय वन अधिनियम-1927 को रद्द किया जाये, क्योंकि ब्रिटिश काल में बना यह कानून पूरी तरह से वनाधिकार कानून-2006 और संविधान के अनुच्छेद 39बी के खिलाफ है। चूंकि भा.व.अ.-1927 को अंग्रेजीकाल में वनों का विदोहन करने के लिये वनों पर औपनिवेशिक शक्तियों का प्रभुत्व कायम करने के लिये बनाया गया था और यह काला कानून भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13(1) के भी खिलाफ है, जिसमें कि लिखा गया है कि "All laws in force in the territory of India immediately before the commencement of this Constitution] in so far as they are inconsistent with the provisions of the fundamental rights to the extent of such inconsistency] be void"
- वनप्रबंधन, नियंत्रण, रक्षण, विकास और आजीविका सम्बंधी कार्यक्रम के लिए वनाश्रित महिलाओं के ईदर्गिद कार्यक्रमों को ठोस रूप से विकसित किया जायें, जिनमें उनका प्रभावी हस्तक्षेप स्थापित किया जाये। क्योंकि महिला प्राकृति के ज्यादा नजदीक रहती है व वे ही हमारी प्राकृतिक सांस्कृतिक धरोहर को आने वाली पीढ़ीयों के लिए सुरक्षित रखने की क्षमता रखती हैं।
- वनविभाग व पुलिस द्वारा वनाश्रित समुदायों विशेषकर आदिवासियों, दलितों, गरीब तबकों व महिलाओं पर लगाये गये तमाम लाखों फर्जी आपराधिक मुकदमों को तत्काल खारिज किया जाये, व राजसत्ता द्वारा वनो पर निर्भरशील समुदायों का आपराधिक इतिहास बनाना बंद किया जाए।
- वनाधिकार कानून की धारा 3(एच) में दिये गये प्रावधान के अनुसार वनक्षेत्रों के सभी टाॅगिया गांवो, वनग्रामों को राजस्व ग्राम का दर्जा दिया जाये। अभी तक उ0प्र0 ही अकेला ऐसा राज्य है, जहां जनपद लखीमपुर खीरी दुधवा नेशनल पार्क क्षेत्र के गाॅव सूरमा व गोलबोझी सहित कई गाॅवों को वनाधिकार कानून के तहत राजस्व का दर्जा दिया गया है, इस प्रक्रिया को देश के अन्य वनक्षेत्रों वाले राज्यों में भी अपना कर ऐसे और उदाहरण खड़े किये जायें।
- राजधानी दिल्ली क्षेत्र में आने वाले भाटी माईन्स असोला सेन्चुरी के अंतर्गत भागीरथ नगर को वनग्राम का दर्जा दे कर वहां रहने वाले ओड समुदाय के घुमन्तु जनजाति को वनाधिकार कानून के तहत बसाया जाए व उन्हें उजाड़ना बंद किया जाए। दिल्ली राजधानी में रहने वाले आदिवासीयों को अनुसूचित जनजातियों का दर्जा दिया जाए जिन्हें अन्य राज्यों में जनजाति का दर्जा प्राप्त हैं लेकिन जब वे दिल्ली में अपनी जीविका चलाने आते हैं तो यह दर्जा उनसे छीन लिया जाता है उदाहरण के तौर पर झाड़खंड़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश व छतीसगढ़ के लाखों आदिवासी राजधानी में अपना बहुमुल्य श्रम का योगदान करते हैं।
- राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियां विशेष रूप से खनन और पावर प्रोजेक्ट कम्पनियां जो कि वनाधिकार कानून का खुला उलंघन कर रही है, उनपर आपराधिक मुकदमे दर्ज करके उन्हें सख्त सजा दी जाये, क्योंकि ये हमारे पर्यावरण को कभी ना सुधर ना सकने वाला विध्वंस कर रही हैं।
- जे.पी, बिड़ला, रिलायंस, लानको, अडानी, मित्तल, टाटा, एस्सार और अन्य ऐसी कम्पनियों जिन्हें बड़े बाॅधो और सुपर पावर प्रोजक्ट दिये जा रहे हैं, जोकि पर्यावरण के लिये अनुकूल नहीं हैं उनकी नये सिरे से जांच करके निरस्त किया जाये और इन कम्पनियों और समूहों पर बिड़ला के मालिक की तरह धोखाधड़ी, जालसाज़ी व प्राकृतिक सम्पदा की लूट का मुकदमा दर्ज कर इन्हें जेल भेजा जाए व भारी जुर्माना लगाया जाये।
- वनक्षेत्रों में रहने वाले आदिम जनजाति समूहों, घुमन्तु जनजातियों और अन्य कमजोर समूहों को वनाधिकार कानून के तहत विशेष सुरक्षा प्रदान की जाये और जिला व राज्य स्तर पर उनके अधिकारों को मान्यता देकर स्थापित किया जाये, क्योंकि उनके अधिकारों को मान्यता देने की प्रक्रिया अभी तक शुरू भी नहीं की गई जो कि सरकार के लिये बहुत शर्मनाक है।
- वनक्षेत्रों में श्रम अधिकारों और श्रम स्तरों को सुनिश्चित किया जाये, सभी को सामाजिक सुरक्षा और सम्मानजनक मजदूरी मुहैया कराई जाये। न्यूनतम मजदूरी का भुगतान ना करने को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में लाया जाये। समान काम-समान मजदूरी को सुनिश्चित किया जाये। सभी के लिये सकल स्वास्थ सुविधा और क्रमबद्ध पेंशन व्यवस्था सुनिश्चित की जाये, सभी की आजीविका के अधिकार सुरक्षित हों, सभी ठेका मजदूरों को नियमित किया जाये, सभी अस्थाई मजदूरों नियमित किया जाये व न्यूनतम मजदूरी का कम से कम 50 प्रतिशत बेरोजगार श्रमिकों के लिये सुनिश्चित किया जाये।
- भारत सरकार कम्पनियों की ऐजेंट के रूप में काम करना बन्द करे और देश के संविधान, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार नियमों और आई.एल.ओ कन्वेंशन नं0 169 के अनुरूप पर्यावरण और जनतंत्र को की रक्षा के लिये वनाश्रित समुदायों के अधिकारों को स्थापित करने के काम पर केन्द्र
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