गोरखपुर के नागरिकों के नाम गीता-प्रेस के मज़दूरों की एक अपील
कहने को तो गीता प्रेस से छपी किताबें धार्मिक सदाचार, नैतिकता, मानवता आदि की बातें करती हैं लेकिन गीता-प्रेस में हड्डियां गलाने वाले मज़दूरों का खून निचोड़कर सिक्का ढालने के काम में गीता प्रेस के प्रबन्धन ने सारे सदाचार, नैतिकता और मानवता की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं। संविधान और श्रम कानून भी जो हक-अधिकार मज़दूरों को देता है वह भी गीता प्रेस के मज़दूरों को हासिल नहीं है। प्रबन्धन के अनाचार, शोषण को सहते-सहते जब हमारा धैर्य जवाब दे गया तो हम अपनी समस्याओं को लेकर सड़कों पर उतरने को मजबूर हो गये।
गीता प्रेस में काम करने वाले लोगों की संख्या लगभग 500 हैं जिनमें 185 नियमित (परमानेण्ट) हैं और लगभग 315 ठेका और कैजुअल पर काम करते हैं। हमारी प्रबन्धन से मांग है कि शासनादेश दिनांक 24-12-06 जारी होने के बाद न्यूनतम मज़दूरी से अधिक पाने वाले मज़दूरों के मूल वेतन का निर्धारण शासनादेश के पैरा-6 के अन्तर्गत किया जाय। प्रदेश सरकार द्वारा स्पष्टस रूप से आदेश दिया गया है कि शासनादेश जारी होने के पूर्व यदि किसी कर्मचारी का वेतन न्यूनतम पुनरीक्षित वेतन से अधिक है, तो इसे जारी रखा जायेगा तथा इसे उक्त न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के अन्तर्गत न्यूनतम मज़दूरी माना जायेगा।
लेकिन गीता प्रेस के प्रबन्धन द्वारा हम सभी कर्मचारियों के मूल वेतन को दो भागों में बांट कर-एक सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल वेतन तथा दूसरे भाग में न्यूनतम से अधिक वेतन को एडहाक वेतन के अन्तर्गत रखा गया और इस एडहाक मूल वेतन पर कोई मंहगाई भत्ता नहीं दिया जाता। किसी भी न्यूनतम पुनरीक्षित वेतन शासनादेश में एडहाक वेतन निर्धारण नहीं है। गीता प्रेस द्वारा मूल वेतन पर मंहगाई भत्ता न देना पड़े इससे बचने के लिये मूल वेतन के हिस्से में कटौती करके कुछ भाग एडहाक में शामिल कर दिया गया। गीता प्रेस का प्रबन्धन शासनादेश का सीधा उल्लंघन कर रहा है।
हमारी दूसरी मांग है कि सभी कर्मचारियों को समान सवेतन 30 अवकाश दिया जाय क्योंकि अभी असमान तरीके से साल में किसी को 21 तो किसी को 27 सवेतन अवकाश दिया जाता है जो अनुचित है। हमारी तीसरी मांग है कि हाथ मशीनों में दबने कटने और डस्ट आदि से बचने के लिये जरूरी उपकरण हमें मुहैया कराये जाय।
गीता प्रेस में लगभग 315 मज़दूर ठेके और कैजुअल पर काम करते हैं। इनकी कोई ई.एस.आई. की कटौती नहीं की जाती । इनको 4500 रु. वेतन देकर सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी रू. 8000 पर हस्ताक्षर कराया जाता है। धर्म के नाम पर मज़दूरों की लूट का इससे बेहतर उदाहरण भला और क्या हो सकता है कि ‘‘सेवा भाव’’ के नाम पर इनसे 1 घण्टे बिना मज़दूरी दिये काम लिया जाता है। उक्त ठेके का काम गीता प्रेस परिसर में तथा प्रेस से बाहर सामने रामायण भवन तथा भागवत भवन नाम के बिल्डिंग में कराया जाता है। इन्हे वेतन की पर्ची या रसीद तक नहीं दी जाती। इस सन्दर्भ में हमारी मांग है कि ठेके व कैजुअल पर काम करने वाले सभी मज़दूरों को परमानेण्ट किया जाय। परमानेण्ट होने की अवधि से पहले ठेका कानून 1971 के मुताबिक उनको समान काम के लिये समान वेतन, डबल रेट से ओवरटाइम, पी एफ़, ई एस आई, ग्रेच्युटी, आदि सभी सुविधायें मुहैया करायी जायं। ठेका मज़दूरों को वेतन स्लिप या रसीद तक नहीं दी जाती वो उन्हें मुहैया करायी जाय।
इन सारी मांगों को हम लोगों ने प्रबन्धन स्तर पर सुलझा लेने की बहुतेरी कोशिश की। उसका कोई नतीजा न निकलने पर आजिज आकर हम लोगों ने 3 दिसम्बर को सांकेतिक प्रदर्शन किया। जिस के बाद प्रबन्धन बात करने को राजी हुआ। लेकिन प्रबन्धन बहुत घटिया किस्म के ब्लैकमेल पर उतारू हो गया। प्रबन्धन किसी तरह की बात के लिये यह शर्त रखी कि पहले वो 1992 वाले मुकदमे के सन्दर्भ में कोर्ट में जाकर यह कहें कि इससे हमारा कोई वास्ता नहीं। और हम लोग भविष्यप में किसी भी की तरह की मांग लेकर कोर्ट नहीं जायेंगे। जाहिर है प्रबन्धन निर्बाध लूट की आज़ादी चाहता है।
धार्मिक सदाचार और नैतिकता की किताब छापने वाले गीता प्रेस से हम लोग अपने लिये सदाचार और नैतिकता की उम्मीद करते थे परन्तु नाउम्मीद होने के बाद हम लोग जनता की अदालत में हाजिर हैं। हम इस संघर्ष में आप लोगों का सक्रिय समर्थन चाहते हैं।
श्रम कानूनों को लागू करवाने के हमारे न्यायपूर्ण संघर्ष में हमारा साथ दें। धर्म के नाम पर हो रहे धन्धों के ख़िलाफ़ आगे आयें।
हम हैं-गीता प्रेस के मज़दूर
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