Saturday, December 13, 2014

रिव्यू: भोपाल, अ प्रेयर फ़ॉर रेन

रिव्यू: भोपाल, अ प्रेयर फ़ॉर रेन

  • 6 दिसंबर 2014
भोपाल, अ प्रेयर फ़ॉर रेन
निर्देशक: रवि कुमार
अभिनेता: राजपाल यादव, मार्टिन शीन
रेटिंग: ***
फ़िल्म में मार्टिन शीन की मौजूदगी एक ख़ास प्रभाव पैदा करती है जिसकी वजह से आप उनके किरदार से सहानुभूति रखने लगते हैं, भले ही उनका रोल कैसा भी हो.
उन्होंने उस शख़्स का किरदार निभाया है जिसे आधुनिक युग का जनरल डायर कहा जाता है.
एक ऐसा शख़्स, जो हज़ारों लोगों की मौत का अकेला ज़िम्मेदार था और जिसे क़ानून छू भी नहीं पाया.

बेहतरीन अदायगी

भोपाल, अ प्रेयर फ़ॉर रेन
हम बात कर रहे हैं वॉरेन एंडरसन की, जो तब यूनियन कार्बाइड के सीईओ थे, जिस दौरान तीन दिसंबर 1984 को विषैली गैस के लीकेज से भोपाल में हज़ारों जानें गईं.
मुझे भरोसा है कि एंडरसन की ऐसी मंशा कतई नहीं रही होगी, लेकिन हां वो इस त्रासदी को होने से रोक सकते थे, जो उन्होंने नहीं किया.
शीन को यह रोल निभाते देखकर आपको ज़रूर उनसे मानवीयता के नाते थोड़ी सहानुभूति होगी.
हालांकि ऐसा नहीं कि फ़िल्म में उनका किसी तरह से बचाव करते दिखाया गया है पर शीन का काम ही ऐसा ज़बरदस्त है.
उनके अलावा फ़िल्म में जॉय सेनगुप्ता का काम भी अच्छा है जो कार्बाइड प्लांट के सेफ़्टी इंचार्ज बने हैं और अपने वरिष्ठ लोगों को संभावित ख़तरे के बारे में समय-समय पर अगाह करते रहते हैं.
भोपाल, अ प्रेयर फ़ॉर रेन
फ़िल्म देखकर समझ में आता है कि कैसे मल्टीनेशनल कंपनियां, जो ऐसे हादसों के लिए ज़िम्मेदार होती हैं, साफ़ तौर पर अपना दामन बचा ले जाती हैं.
यह एक तरह से आधुनिक किस्म का रंगभेद बताती है.
फ़िल्म के मुताबिक़ विकसित देशों की बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियां सोचती हैं कि वो कुछ भी कर लेंगी और बचकर निकल जाएंगी.
और उनका ऐसा सोचना ग़लत भी नहीं है क्योंकि इंसानी ज़िंदगी की क़ीमत हर जगह एक सी तो होती नहीं.

निर्देशन

भोपाल, अ प्रेयर फ़ॉर रेन
फ़िल्म का निर्देशन किया है नए फ़िल्मकार रवि कुमार ने.
ये फ़िल्म डैनी बॉएल की 'स्लमडॉग मिलेनियर' की तर्ज पर काम करती लगती है.
इसमें कैमरा तेज़ी से घूमता है, एडिटिंग बड़ी फ़ास्ट है.
लेकिन सबसे ज़रूरी बात यह कि भोपाल गैस त्रासदी को यह बड़े असरदार तरीक़े से पर्दे पर उतारती है.

प्रस्तुतीकरण

भोपाल, अ प्रेयर फ़ॉर रेन
फ़िल्म देखकर उमड़ती है सहानुभूति.
यह फ़िल्म संजॉय हज़ारिका की किताब पर आधारित है. आप फ़िल्म से बंधे भी रहते हैं और यह फ़िल्म 30 साल पुराने इतिहास के बारे में आपका ज्ञानवर्धन भी करती है.
ये कहानी भोपाल गैस त्रासदी को एक मानवीय चेहरा देती है.
भोपाल गैस त्रासदी कहानी है एक कामगार की, एक डॉक्टर की, एक इंजीनियर की, जो बताती है कि तीन दिसंबर 1984 की काली रात को उनके साथ हुआ क्या.
एक-एक घटना ऐसे लगती है जैसे वो आपके सामने घटित हो रही हो.
फ़िल्म देखकर आपका भी मन बस प्रार्थना करना चाहता है.
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