मोदी सरकार से मुझे डर लग रहा है’ नगीन तनवीर
- 30 दिसंबर 2014
हबीब तनवीर और उनका बनाया 'नया थिएटर' अब रंगकर्म की दुनिया में एक अवधारणा बन चुके हैं.
साल 2009 में उनके निधन के बाद नया थिएटर की कमान उनकी बेटी नगीन तनवीर के हाथों में आ गई.
नगीन का पहला प्यार है संगीत और गाना हालांकि वे नया थिएटर के ज़्यादातर नाटकों में महिलाओं की मुख्य भूमिका भी निभाती रही हैं.
रंगमंच के अलावा उन्होंने फ़िल्मों के लिए भी गाना गाया है. उनसे ख़ास बातचीत के अहम अंश.
हबीब साहब के नाटक राजनैतिक रंग लिए होते थे. उनके नाटकों को लेकर बीजेपी और कई हिंदू संगठनों ने विरोध भी दर्ज किया है. अब बीजेपी की सरकार है. आप इस तब्दीली को कैसे देखती हैं.
मुझे डर लगता है. मैं तो राजनीतिक हूँ नहीं, मैं तो कलाकार हूँ. बस. लेकिन डर तो लगता है कि हमें मंत्रालय से जो ग्रांट मिल रहा है वो कहीं बंद न हो जाए, यह ख़्याल तो मन में आता ही है.
आपको याद होगा नाटक पोंगा पंडित पर हिंदूवादी संगठनों का हमला हुआ था. अब वो शख़्स ज़िंदा नहीं हैं तो क्या हुआ वे कह तो सकते हैं कि ये वही संगठन है जो हिंदू विरोधी हैं.
तो ये आर्थिक मदद बंद भी हो सकती है. अगर ऐसा होगा तो नया थिएटर मर जाएगा. इसमें अभी छत्तीसगढ़ के 15 कलाकार काम करते हैं जो इस मदद पर ही निर्भर हैं.
बहुत अनिश्चित दौर है, कुछ कहा नहीं जा सकता. जब तक होगा मैं चलाऊंगी क्योंकि ये राष्ट्रीय धरोहर है लेकिन अगर नहीं चल सका तो बंद कर दूंगी.
हबीब साहब के जाने के बाद नया थिएटर पर क्या फ़र्क़ पड़ा है?
जब उस्ताद नहीं रहते तो फ़र्क़ तो पड़ता है. पुराने कलाकार भी अब नहीं रहे. काफ़ी लोग गुज़र गए हैं. किसी तरह चला रहे हैं.
हम हबीब साहब के कुछ पुराने नाटकों को दोबारा कर रहे हैं और साथ ही कुछ नए नाटक भी कर रहे हैं.
पर अब बदलाव की ज़रूरत है. हम चाहते हैं कि अब नए निर्देशकों को अलग-अलग नाटकों से जोड़ने की कोशिश की जाए.
जो हबीब साहब का अंदाज़ था उससे अलग भी चीज़ें होनी चाहिए. कुछ नाटक होने चाहिए जो म्यूज़िकल न हो.
अगर बदलेंगे नहीं तो तालाब के ठहरे हुए पानी की तरह हो जाएगा, सबकुछ सड़ जाएगा.
आज नया थिएटर के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
प्रेरणा की कमी तो है ही. हबीब साहब के ज़माने की तुलना में अब बहुत कम शो हो रहे हैं. नाटकों के लिए ग्रांट(आर्थिक मदद) बहुत सीमित मिल रहे हैं, इसलिए पैसे की दिक़्क़त है.
नाटक के तौर-तरीक़ों में भी कुछ बदलाव की ज़रूरत है. पुराने ड्रामों में भी बदलाव की ज़रूरत है
हबीब साहब के जाने के बाद क्या आपके ऊपर अचानक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी आ गई है? क्या आप इसके लिए तैयार थीं?
एक बड़ी ज़िम्मेदारी तो ज़रूर आ गई है. मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी. मैं तो हमेशा से केवल गाना ही चाहती थी.
आपने कई बार कहा है हबीब साहब सामंती तरीक़े से काम करते थे?
बिल्कुल ऐसा ही तरीक़ा अपनाना पड़ता था. उन्होंने लोकतांत्रिक तरीक़ा भी अपनाया लेकिन वो व्यवहारिक नहीं था.
ग्रामीण बुद्धि यही समझती है. नया थिएटर के लोग हबीब साहब को गुरु मानते थे और उनका हुक्म मानते थे.
ये सभी कलाकार 'नाचा कलाकार' थे सिर्फ़ हबीब साहब ने इनको तराशा था. इन लोक कलाकारों के साथ हमने बहुत सारे आधुनिक नाटक किए.
मैं भी हबीब साहब की तरह ही चलाती हूं. ये सभी कलाकार मुझे मानते भी हैं क्योंकि मैं उनके उस्ताद की औलाद हूं. शायद किसी और की बात न मानें.
आप अपनी शुरुआत और बाद के सफ़र के बारे में बताएं...
मैंने तो शुरुआत आगरा बाज़ार में बंदर के रोल से की. तीन-चार साल की उम्र थी तब, फिर छोटे-छोटे रोल करने लगी.
बाद में कोई महिला कलाकार नहीं थी तो ज़रूरत के अनुसार मैंने प्रमुख भूमिकाएँ करनी शुरू कीं.
मेरा पहला प्यार तो संगीत ही है. मैंने आठ साल की उम्र से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेनी शुरू की थी.
क्या हबीब साहब आपको कुछ गाने को कहते थे...
वो तो ख़ुद मुझे बचपन में लोरी सुनाते थे. वो मुझे पैगंबरों के क़िस्से भी सुनाते थे और कभी-कभी गाकर भी सुनाते थे. वे इतने सुर में गाते थे और उनका कान बहुत तेज़ था.
वे कहते थे कि अगर नाटककार नहीं होता तो संगीत में तो नाम कमा ही लेता. वे पेंटिंग भी बहुत अच्छा करते थे. वे बेहद हुनरमंद थे.
हबीब तनवीर की एक और बेटी है एना तनवीर- आपका उनके साथ कोई रिश्ता है?
मुझे इसके बारे में तब पता चला जब मैं 15 साल की थी. बहुत धक्का लगा था. अंचम्भे में पड़ गई. पहले तो बात समझ में नहीं आई.
मेरा कोई ख़ास रिश्ता नहीं है उनसे, बहुत औपचारिक रिश्ता है उनके साथ क्योंकि वे इंगलिस्तान की हैं. अगर वो हिंदुस्तानी होती तो बात और होती पर अभी बहुत फ़र्क़ है.
हम दोनों एक दम अलग तबियत के हैं इसीलिए फ़ासला है. वे आती हैं भोपाल कभी-कभी परफ़ॉर्म करने.
हबीब साहब की कौन सी बात उनकी ग़ैरमौजूदगी में सबसे ज़्यादा खलती है
मैं बहुत सारी चीज़़ें मिस करती हूं. बहुत सारी बातें वे इशारे में करते थे. उनकी आवाज़ की कमी खलती है और उनके हाथ. उनका स्पर्श...उनका पठानी रौब इतना था कि मैं डरती थी उनसे.
मेरी मां के साथ रिश्ता दोस्तों जैसा था. बाबा के साथ लड़ाई होती थी और मामला बहुत सीरियस हो जाता था. फिर अम्मा हमारी दोस्ती कराती थीं. उनके जाने के बाद बाबा ही अम्मा भी बन गए.
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