फिसलती भाजपा: तेज होते हमले
सीताराम येचुरी
राज्य विधानसभाओं के चुनाव के ताजा चक्र के नतीजे आ गए हैं। भाजपा ने दोनों राज्यों में सरकार बनाने का जो लक्ष्य घोषित कर जबर्दस्त चुनाव अभियान छेड़ा था, उसे हासिल नहीं कर पाई है। जम्मू-कश्मीर के लिए उसका बहु-विज्ञापित 'मिशन 44+' राज्य के मतदाताओं के बीच वैसा उत्साह नहीं जगा पाया है, जिसका प्रचार किया जा रहा था। कश्मीर की वादी में भाजपा के साथ सिफर आया है। हालांकि, अभी विस्तृत आंकड़े आने बाकी हैं, फिर भी इस आशय के विश्लेषण अब तक काफी मात्रा में आ भी चुके हैं कि जम्मू के क्षेत्र में भाजपा अगर अपनी सीटों में बढ़ोतरी कर पाई है, तो यह सबसे बढ़कर उस तीव्र सांप्रदायिक धु्रवीकरण का कमाल है, जिसे इस क्षेत्र में भाजपा ने उन्मुक्त किया था। छ: महीने पहले ही हुए लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोट में 10 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है। इसकी संभावनाएं भी मौजूद हैं कि पीपुल्स डैमेक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), निवर्तमान सत्ताधारी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस तथा कांग्रेस, मिलकर अच्छे बहुमत पर आधारित सरकार भी बना सकती हैं। यह इस राज्य का और ज्यादा सांप्रदायीकरण रोकने के लिए भी जरूरी है। जाहिर है कि ऐसे सांप्रदायीकरण के सत्यानाशी नतीजे होंगे। बहरहाल, अंतत: किस तरह की सौदेबाजी चलती है, यह जब तक पता चलेगा, तब तक यह अंक हमारे पाठकों के हाथों में पहुंच चुका होगा।
झारखंड में लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा को 9 फीसद कम वोट पर संतोष करना पड़ा है। अपनी सहयोगी पार्टी, आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (अजसू) के साथ मिलकर, भाजपा किसी तरह से बहुमत का आंकड़ा छूने में कामयाब हुई है। यहां तक पहुंचने के लिए भी उसे देश भर में बहुत तीखे ईसाई-विरोधी अभियान का सहारा लेना पड़ा है। 25 दिसंबर का दिन, क्रिसमस के रूप में न मनाकर, अटलबिहार वाजपेयी के जन्मदिन पर 'सुशासन' दिवस के नाम पर वास्तव में सामान्य कामकाज के दिन के रूप में मनाने की मुहिम के पीछे इसी तरह का सांप्रदायिक धु्रवीकरण करने का लक्ष्य था। इस तरह जम्मू-कश्मीर तथा झारखंड, दोनों ही राज्यों में भाजपा का चुनावी प्रदर्शन, लोकसभा चुनाव के उसके ही प्रदर्शन से काफी घटकर ही नहीं रहा है, बल्कि यह प्रदर्शन भी सांप्रदायिक धु्रवीकरण बढ़ाने के बल पर ही हासिल किया जा सका है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह बदतरीन किस्म की वोट बैंक की राजनीति का मामला है। इसके बावजूद, आरएसएस/ भाजपा के पूर्ण बहुमत से अपनी सरकारें बनाने के घोषित मंसूबे तो पूरे नहीं ही हुए हैं।
इसी बीच संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त हो गया है। इस सत्र के दौरान लोकसभा ने 16 विधेयक विचार के लिए स्वीकार किए और इनमें से 13 को संसदीय समितियों में किसी तरह की जांच-परख के बिना ही पारित करा दिया गया। याद रहे इन संसदीय कमेटियों को 'मिनी संसद' ही माना जाता है क्योंकि इनमें संसद के दोनों सदनों में प्रतिनिधित्व-प्राप्त सभी प्रमुख पार्टियों का प्रतिनिधित्व रहता है। इन कमेटियों में विधेयकों पर विशद चर्चा होती है और सभी हितधारकों का पक्ष सुना जाता है। विधायी विधेयक इन कमेटियों को भेजने से इंकार करना, संसदीय नियमों व प्रक्रियाओं का ही पूरी तरह से उल्लंघन करना है। भाजपा ने यह किया है लोकसभा में अपनी ''बहुमत की निरंकुशता" का सहारा लेकर। बहरहाल राज्यसभा में, जहां भाजपा को बहुमत हासिल नहीं है, करीब हफ्ते भर तक काम-काज ठप्प ही रहा।
राज्यसभा में कार्रवाई न चलने देने के लिए आज भाजपा विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रही है। वह भूल जाती है कि राज्यसभा ने इसी सत्र में 12 विधेयक पारित किए हैं। उसने अंतिम दिन राजधानी के अनाधिकृत स्लमों में रह रहे लाखों लोगों को इस कड़कड़ाती ठंड में बेदखल किए जाने से रोका है। उसने इस हंगामे के बीच ''विनियोग विधेयक" को वापस कर अपना संवैधानिक दायित्व भी निभाया है और इस तरह संसदीय जनतंत्र को बुलंद रखने की अपनी साख को साबित किया है। यह सरकार की हठधर्मिता ही है कि उसने अपने उन सांसदों, मंत्रियों तथा प्रवक्ताओं के खिलाफ कार्रवाई करने का वादा नहीं किया जिन्होंने हिंदुत्व के अपने असली गुप्त एजेंडे को लागू करने की कोशिश में इस हंगामे के लिए उकसाया। विपक्ष को दोष देना ''छलनी क्या बोले जिसमें सत्तर छेदÓÓ वाला क्लासिक उदाहरण है।
इससे पहले मोदी को सदन में आने और अपनी एक राज्य मंत्री, जिन्होंने भाजपा का विरोध करनेवाले लोगों के लिए असंसदीय भाषा का इस्तेमाल किया था, की टिप्पणी के लिए खेद व्यक्त करते हुए बयान देने पर मजबूर किया था। उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया था और अंतत: सभापति द्वारा पेश किया गया एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें इस तरह की टिप्पणियों को खारिज करते हुए सदन की भावना को व्यक्त किया गया था।
बहरहाल चाहे उन्हें कितने ही शाकाहारी रूप में पेश किया जाए, पहले एक राज्यमंत्री की शर्मनाक टिप्पणियों पर प्रधानमंत्री के संक्षिप्त हस्तक्षेप के बावजूद आरएसएस/ भाजपा के प्रवक्ताओं ने देश भर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए उच्च स्तर पर भड़काऊ बयान देना जारी रखा। आरएसएस प्रमुख (ने कोलकाता में) और भाजपा प्रमुख (ने केरल में) दोनों ने तथाकथित ''घर वापसी" का अभियान जारी रखने का संकल्प लिया। इस तरह उन्होंने सुनिश्चित किया कि राज्यसभा में अंतिम दो दिन भी कोई काम न हो पाए।
भाजपा समेत आरएसएस की तमाम भुजाओं द्वारा तथाकथित ''घर वापसी" के लिए अपना आशीर्वाद देते हुए आरएसएस प्रमुख ने कहा कि उन सभी को जो इतनी सदियों में ''हिंदू दायरे" से बाहर चले गए थे, हम वापस लाएंगे। वे मुर्दों को जिंदा करने की बात नहीं कर रहे थे! वे धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए यह कह रहे थे कि उन्हें ''हमसे चुरा लिया गया था।" और इसी समय देश के दूसरे कोने से भाजपा प्रमुख इसी भावना की अनुशंसा कर रहे थे। इस तरह उन्होंने आरएसएस और भाजपा के बीच जो एक क्षीण सा विभाजन होता था, उसे भी खत्म कर दिया।
एक बार फिर आरएसएस के इन नेताओं ने संसद में धर्मांतरण-विरोधी विधेयक को समर्थन देकर देश की तमाम धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को चुनौती दी है। इस मामले में न तो किसी नए विधेयक की जरूरत है और न ही किसी नए कानून की। देश के संविधान तथा भारतीय दंड संहिता में जोर-जबर्दस्ती से किए जानेवाले धर्मांतरणों को अपराध, कानून के उल्लंघन और इसलिए उन्हें दंडनीय बनाने के रूप में परिभाषित करने के लिए काफी प्रावधान हैं।
जिन लोगों ने, खासतौर से जिन भाजपा सांसदों तथा मंत्रियों ने संवैधानिक गारंटियों और भारतीय दंड संहिता दोनों का उल्लंघन किया, उन्हें उनके अपराधों के लिए दंडित किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने सदन में ऐसा कोई भी आश्वासन देने से इंकार कर दिया है। राज्यसभा में कामकाज इसीलिए बाधित हुआ।
झारखंड और जम्मू-कश्मीर दोनों के ही चुनावों ने यह दिखा दिया है कि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई। यह देश और देश की जनता का दुर्भाग्य ही है कि भाजपा के इस चुनावी प्रदर्शन और राज्यसभा में हंगामे से सांप्रदायिक धु्रवीकरण को और तेज करने और इस तरह सांप्रदायिक हिंदू वोट बैंक को सुदृढ़ करने के लिए आरएसएस और उसके विभिन्न बाजुओं के हौसले ही बढ़ेंगे।
अर्थव्यवस्था को ''नयी गति" देने में मोदी सरकार की विफलता के चलते उनकी यह मुहिम और तेज ही होने वाली है। चुनाव के समय इस मामले में उन्होंने बड़े सुनहरी सपने दिखाए थे। उल्टे सच्चाई यह है कि मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद अर्थव्यवस्था कहीं ज्यादा बदतर हुई है। मोदी सरकार के सबसे बड़े ''चीयर लीडर्स" भारतीय कारपोरेट घरानों ने अपना असंतोष दिखाना भी शुरू कर दिया है। फिक्की तथा सीआईआई जैसी प्रमुख कारपोरेट एसोसिएशनों के नेताओं ने हमारी बुनियादी आर्थिक सच्चाइयों की जमीनी असलियतों को दिखाना शुरू कर दिया है।
घरेलू कारपोरेट घरानों तथा अंतरराष्टï्रीय वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए मोदी सरकार उन्हें भारतीय जनता और देश के संसाधनों का और दोहन करके अधिक से अधिक मुनाफे बनाने की इजाजत देने के लिए नव-उदारतावादी वित्तीय तथा आर्थिक सुधारों को और आगे बढ़ाकर लागू करना चाहती है। मोदी सरकार यह काम संसदीय प्रक्रियाओं को दरकिनार करके कर रही है। वह देश को और अर्थव्यवस्था को ''अध्यादेश राज" के जरिए चलाना चाहती है। यह वही भाजपा है जो यूपीए सरकारों के पिछले दस वर्षों के दौरान ''अध्यादेश राज" के खिलाफ इतना शोर मचाती थी। उसकी यह शर्मनाक पलटी है।
इसके साथ हमारे धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक गणराज्य और हमारी जनता के लिए खतरे कई गुणा बढ़ गए हैं। अब यह सिर्फ नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों को आक्रामक ढंग से लागू करने के साथ कट्टïर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का गठजोड़ भर नहीं रह गया है। अब ''अध्यादेश राज" जैसे बढ़ते तानाशाही रुझान भी इन दोनों के साथ जुड़ गए हैं। इस तरह धर्मनिरपेक्षता तथा जनतंत्र-हमारे गणतंत्र की बुनियादें-दोनों के लिए खतरा बढ़ जाएगा।
इसे विफल करना होगा। एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए जनसंघर्षों को मजबूत करने की यह पूर्व-शर्त है।
राज्य विधानसभाओं के चुनाव के ताजा चक्र के नतीजे आ गए हैं। भाजपा ने दोनों राज्यों में सरकार बनाने का जो लक्ष्य घोषित कर जबर्दस्त चुनाव अभियान छेड़ा था, उसे हासिल नहीं कर पाई है। जम्मू-कश्मीर के लिए उसका बहु-विज्ञापित 'मिशन 44+' राज्य के मतदाताओं के बीच वैसा उत्साह नहीं जगा पाया है, जिसका प्रचार किया जा रहा था। कश्मीर की वादी में भाजपा के साथ सिफर आया है। हालांकि, अभी विस्तृत आंकड़े आने बाकी हैं, फिर भी इस आशय के विश्लेषण अब तक काफी मात्रा में आ भी चुके हैं कि जम्मू के क्षेत्र में भाजपा अगर अपनी सीटों में बढ़ोतरी कर पाई है, तो यह सबसे बढ़कर उस तीव्र सांप्रदायिक धु्रवीकरण का कमाल है, जिसे इस क्षेत्र में भाजपा ने उन्मुक्त किया था। छ: महीने पहले ही हुए लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोट में 10 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है। इसकी संभावनाएं भी मौजूद हैं कि पीपुल्स डैमेक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), निवर्तमान सत्ताधारी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस तथा कांग्रेस, मिलकर अच्छे बहुमत पर आधारित सरकार भी बना सकती हैं। यह इस राज्य का और ज्यादा सांप्रदायीकरण रोकने के लिए भी जरूरी है। जाहिर है कि ऐसे सांप्रदायीकरण के सत्यानाशी नतीजे होंगे। बहरहाल, अंतत: किस तरह की सौदेबाजी चलती है, यह जब तक पता चलेगा, तब तक यह अंक हमारे पाठकों के हाथों में पहुंच चुका होगा।
झारखंड में लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा को 9 फीसद कम वोट पर संतोष करना पड़ा है। अपनी सहयोगी पार्टी, आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (अजसू) के साथ मिलकर, भाजपा किसी तरह से बहुमत का आंकड़ा छूने में कामयाब हुई है। यहां तक पहुंचने के लिए भी उसे देश भर में बहुत तीखे ईसाई-विरोधी अभियान का सहारा लेना पड़ा है। 25 दिसंबर का दिन, क्रिसमस के रूप में न मनाकर, अटलबिहार वाजपेयी के जन्मदिन पर 'सुशासन' दिवस के नाम पर वास्तव में सामान्य कामकाज के दिन के रूप में मनाने की मुहिम के पीछे इसी तरह का सांप्रदायिक धु्रवीकरण करने का लक्ष्य था। इस तरह जम्मू-कश्मीर तथा झारखंड, दोनों ही राज्यों में भाजपा का चुनावी प्रदर्शन, लोकसभा चुनाव के उसके ही प्रदर्शन से काफी घटकर ही नहीं रहा है, बल्कि यह प्रदर्शन भी सांप्रदायिक धु्रवीकरण बढ़ाने के बल पर ही हासिल किया जा सका है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह बदतरीन किस्म की वोट बैंक की राजनीति का मामला है। इसके बावजूद, आरएसएस/ भाजपा के पूर्ण बहुमत से अपनी सरकारें बनाने के घोषित मंसूबे तो पूरे नहीं ही हुए हैं।
इसी बीच संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त हो गया है। इस सत्र के दौरान लोकसभा ने 16 विधेयक विचार के लिए स्वीकार किए और इनमें से 13 को संसदीय समितियों में किसी तरह की जांच-परख के बिना ही पारित करा दिया गया। याद रहे इन संसदीय कमेटियों को 'मिनी संसद' ही माना जाता है क्योंकि इनमें संसद के दोनों सदनों में प्रतिनिधित्व-प्राप्त सभी प्रमुख पार्टियों का प्रतिनिधित्व रहता है। इन कमेटियों में विधेयकों पर विशद चर्चा होती है और सभी हितधारकों का पक्ष सुना जाता है। विधायी विधेयक इन कमेटियों को भेजने से इंकार करना, संसदीय नियमों व प्रक्रियाओं का ही पूरी तरह से उल्लंघन करना है। भाजपा ने यह किया है लोकसभा में अपनी ''बहुमत की निरंकुशता" का सहारा लेकर। बहरहाल राज्यसभा में, जहां भाजपा को बहुमत हासिल नहीं है, करीब हफ्ते भर तक काम-काज ठप्प ही रहा।
राज्यसभा में कार्रवाई न चलने देने के लिए आज भाजपा विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रही है। वह भूल जाती है कि राज्यसभा ने इसी सत्र में 12 विधेयक पारित किए हैं। उसने अंतिम दिन राजधानी के अनाधिकृत स्लमों में रह रहे लाखों लोगों को इस कड़कड़ाती ठंड में बेदखल किए जाने से रोका है। उसने इस हंगामे के बीच ''विनियोग विधेयक" को वापस कर अपना संवैधानिक दायित्व भी निभाया है और इस तरह संसदीय जनतंत्र को बुलंद रखने की अपनी साख को साबित किया है। यह सरकार की हठधर्मिता ही है कि उसने अपने उन सांसदों, मंत्रियों तथा प्रवक्ताओं के खिलाफ कार्रवाई करने का वादा नहीं किया जिन्होंने हिंदुत्व के अपने असली गुप्त एजेंडे को लागू करने की कोशिश में इस हंगामे के लिए उकसाया। विपक्ष को दोष देना ''छलनी क्या बोले जिसमें सत्तर छेदÓÓ वाला क्लासिक उदाहरण है।
इससे पहले मोदी को सदन में आने और अपनी एक राज्य मंत्री, जिन्होंने भाजपा का विरोध करनेवाले लोगों के लिए असंसदीय भाषा का इस्तेमाल किया था, की टिप्पणी के लिए खेद व्यक्त करते हुए बयान देने पर मजबूर किया था। उन्होंने माफी मांगने से इंकार कर दिया था और अंतत: सभापति द्वारा पेश किया गया एक प्रस्ताव स्वीकार किया था जिसमें इस तरह की टिप्पणियों को खारिज करते हुए सदन की भावना को व्यक्त किया गया था।
बहरहाल चाहे उन्हें कितने ही शाकाहारी रूप में पेश किया जाए, पहले एक राज्यमंत्री की शर्मनाक टिप्पणियों पर प्रधानमंत्री के संक्षिप्त हस्तक्षेप के बावजूद आरएसएस/ भाजपा के प्रवक्ताओं ने देश भर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए उच्च स्तर पर भड़काऊ बयान देना जारी रखा। आरएसएस प्रमुख (ने कोलकाता में) और भाजपा प्रमुख (ने केरल में) दोनों ने तथाकथित ''घर वापसी" का अभियान जारी रखने का संकल्प लिया। इस तरह उन्होंने सुनिश्चित किया कि राज्यसभा में अंतिम दो दिन भी कोई काम न हो पाए।
भाजपा समेत आरएसएस की तमाम भुजाओं द्वारा तथाकथित ''घर वापसी" के लिए अपना आशीर्वाद देते हुए आरएसएस प्रमुख ने कहा कि उन सभी को जो इतनी सदियों में ''हिंदू दायरे" से बाहर चले गए थे, हम वापस लाएंगे। वे मुर्दों को जिंदा करने की बात नहीं कर रहे थे! वे धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए यह कह रहे थे कि उन्हें ''हमसे चुरा लिया गया था।" और इसी समय देश के दूसरे कोने से भाजपा प्रमुख इसी भावना की अनुशंसा कर रहे थे। इस तरह उन्होंने आरएसएस और भाजपा के बीच जो एक क्षीण सा विभाजन होता था, उसे भी खत्म कर दिया।
एक बार फिर आरएसएस के इन नेताओं ने संसद में धर्मांतरण-विरोधी विधेयक को समर्थन देकर देश की तमाम धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को चुनौती दी है। इस मामले में न तो किसी नए विधेयक की जरूरत है और न ही किसी नए कानून की। देश के संविधान तथा भारतीय दंड संहिता में जोर-जबर्दस्ती से किए जानेवाले धर्मांतरणों को अपराध, कानून के उल्लंघन और इसलिए उन्हें दंडनीय बनाने के रूप में परिभाषित करने के लिए काफी प्रावधान हैं।
जिन लोगों ने, खासतौर से जिन भाजपा सांसदों तथा मंत्रियों ने संवैधानिक गारंटियों और भारतीय दंड संहिता दोनों का उल्लंघन किया, उन्हें उनके अपराधों के लिए दंडित किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने सदन में ऐसा कोई भी आश्वासन देने से इंकार कर दिया है। राज्यसभा में कामकाज इसीलिए बाधित हुआ।
झारखंड और जम्मू-कश्मीर दोनों के ही चुनावों ने यह दिखा दिया है कि अपने तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई। यह देश और देश की जनता का दुर्भाग्य ही है कि भाजपा के इस चुनावी प्रदर्शन और राज्यसभा में हंगामे से सांप्रदायिक धु्रवीकरण को और तेज करने और इस तरह सांप्रदायिक हिंदू वोट बैंक को सुदृढ़ करने के लिए आरएसएस और उसके विभिन्न बाजुओं के हौसले ही बढ़ेंगे।
अर्थव्यवस्था को ''नयी गति" देने में मोदी सरकार की विफलता के चलते उनकी यह मुहिम और तेज ही होने वाली है। चुनाव के समय इस मामले में उन्होंने बड़े सुनहरी सपने दिखाए थे। उल्टे सच्चाई यह है कि मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद अर्थव्यवस्था कहीं ज्यादा बदतर हुई है। मोदी सरकार के सबसे बड़े ''चीयर लीडर्स" भारतीय कारपोरेट घरानों ने अपना असंतोष दिखाना भी शुरू कर दिया है। फिक्की तथा सीआईआई जैसी प्रमुख कारपोरेट एसोसिएशनों के नेताओं ने हमारी बुनियादी आर्थिक सच्चाइयों की जमीनी असलियतों को दिखाना शुरू कर दिया है।
घरेलू कारपोरेट घरानों तथा अंतरराष्टï्रीय वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए मोदी सरकार उन्हें भारतीय जनता और देश के संसाधनों का और दोहन करके अधिक से अधिक मुनाफे बनाने की इजाजत देने के लिए नव-उदारतावादी वित्तीय तथा आर्थिक सुधारों को और आगे बढ़ाकर लागू करना चाहती है। मोदी सरकार यह काम संसदीय प्रक्रियाओं को दरकिनार करके कर रही है। वह देश को और अर्थव्यवस्था को ''अध्यादेश राज" के जरिए चलाना चाहती है। यह वही भाजपा है जो यूपीए सरकारों के पिछले दस वर्षों के दौरान ''अध्यादेश राज" के खिलाफ इतना शोर मचाती थी। उसकी यह शर्मनाक पलटी है।
इसके साथ हमारे धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक गणराज्य और हमारी जनता के लिए खतरे कई गुणा बढ़ गए हैं। अब यह सिर्फ नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों को आक्रामक ढंग से लागू करने के साथ कट्टïर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का गठजोड़ भर नहीं रह गया है। अब ''अध्यादेश राज" जैसे बढ़ते तानाशाही रुझान भी इन दोनों के साथ जुड़ गए हैं। इस तरह धर्मनिरपेक्षता तथा जनतंत्र-हमारे गणतंत्र की बुनियादें-दोनों के लिए खतरा बढ़ जाएगा।
इसे विफल करना होगा। एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए जनसंघर्षों को मजबूत करने की यह पूर्व-शर्त है।
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