Wednesday, April 8, 2015

न्याय को मोदी की नसीहत का असगुन

न्याय को मोदी की नसीहत का असगुन

पीटीआई

“भाजपा सरकार आने के बाद पहले जजों की नियुक्ति का कानून बदला गया, फिर आई न्यायपालिका को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नसीहत। इन दोनों बातों ने बरबस चार दशक पहले के भारतीय इतिहास के घाव हरे कर दिए।”
सन 1969 में कांग्रेस तोड़ने के तुरंत पहले और बाद में अपना समाजवादी कार्यक्रम लागू करने में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब न्यायपालिका के कुछ निर्णर्यों को बाधा मान रही थीं तो उनके समर्थकों ने ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ की जरूरत का ढिंढोरा पीटना शुरू किया। इसकी अगुवाई तत्कालीन कांग्रेस (आर) के वामपंथी खेमे कांग्रेस सोशलिस्ट फोरम के नेता सांसद शशिभूषण ने की। उनका साथ सुभद्रा जोशी जैसे लोगों ने भी दिया। देशी रजवाड़ों के प्रिवी पर्स उन्मूलन, भूमि सुधार, बैंक राष्ट्रीयकरण और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों जैसे इंदिरा गांधी के समाजवादी एजेंडे को तब अभूतपूर्व जनसमर्थन हासिल था। सन 1971 के आम चुनावों में दो-तिहाई बहुमत पाने के बाद इंदिरा गांधी को लग रहा था कि उनके कार्यक्रमों और उनकी अबाध सत्ता की राह में सिर्फ न्यायपालिका रोड़े अटकाने वाली बची है। इसलिए प्रतिबद्ध न्यायपालिका की मांग के पीछे दरअसल उन्हीं की शह थी। इसकी परिणति पहले सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की वरीयता लांघ कर न्यायमूर्ति आदित्यनाथ राय को प्रधान न्यायाधीश बनाने,फिर न्यायपालिका की स्वतंत्रता में छीजन के रूप में हुई। इसका चरम नतीजा सामने आया 1975 के आपातकाल के दौरान जब अपने शर्मनाक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ इमरजेंसी को जायज ठहराया बल्कि संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उस दौरान स्थगन, यहां तक कि जीवन के अधिकार का निलंबन, वैध करार दिया। यानी न्यायपालिका को निर्देशित करने की कोशिश अंतत: देश में निरकुंश तानाशाही के रूप में सामने आई। वह तो भला हो कि इंदिरा गांधी का सद्विवेक आखिरकार जागा, उन्होंने चुनाव करवाए और भला हो देश की जनता का भी कि उसने उनकी तानाशाही नामंजूर कर लोकतंत्र की गाड़ी पटरी पर वापस चला दी।
इसलिए रविवार पांच अप्रैल 2015 को न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण सुनकर दिल सिहर गया। इस भाषण में न्यायपालिका को नसीहत हमारे कानों में किसी खतरे की घंटी की तरह चीखने लग गई। नसीहत थी कि न्यायपालिका ‘ फाइव स्टार एक्टिविस्टों ’ से ‘ड्राइव’ न हो। मोदी का इशारा साफ है। वह साइबर कानून की धारा 66-ए को निरस्त करने, महान कोयला ब्लॉक, प्रिया पिल्लई, तीस्ता सेतलवाड़, खुफिया ब्यूरो की बनाई एनजीओ काली सूची और अन्य आंदोलनकारियों पर सरकारी दमन के मामलों में न्यायपालिका के निर्णयों से खफा हैं। सत्तर के दशक में समाजवाद के नाम पर यदि इंदिरा गांधी लोकतंत्र के तीन खंभों – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका – को असंतुलित कर कार्यपालिका की अबाध सत्ता के लिए मार्ग प्रशस्त करना चाहती थीं तो 2015 में नरेंद्र मोदी पूंजी परस्त  विकास के नाम पर लोकतंत्र के खंभों का संतुलन वैसे ही बिगाड़ कर कार्यपालिका को निरंकुश बनाना चाहते हैं : उनके भाषण से यह भय पैदा होता है। हम मनाते हैं कि हमारा भय गलत साबित हो और यह महज मोदी की जुबान की फिसलन हो।
लेकिन हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस फिसलन से न्यायपालिका और लोकतंत्र की मर्यादा स्खलित होती है। सन 1970 के दशक में इंदिरा गांधी ने अपने शशिभूषण जैसे समर्थकों को भले ही हवा दी हो लेकिन खुद इस तरह की बातें करते उन्हें भी शायद शर्म महसूस हुई थी। भले ही उनकी कार्रवाई में शर्म की बजाय सत्ता की धृष्टता दिखाई पड़ी थी। अब की राजनीति, जिसकी अगुवाई नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, अपनी जुबान में ही इंदिरा गांधी के जमाने की वह शर्मो-हया खो चुकी है। पता नहीं अपनी कार्रवाई में वह कहां जाएगी और न्यायपालिका अथवा लोकतंत्र पर कितने डंडे बरसाएगी।
मोदी की धमकी तब आई है जब भूमि अधिग्रहण और इस तरह के अन्य अध्यादेशों एवं कानूनों को अदालत में चुनौती दिए जाने की आशंका उन्हें साल रही होगी। लेकिन मोदी यह भूल रहे हैं कि उन्हें सत्ता न्यायपालिका के उन्हीं फैसलों ने दिलाई है जिन्हें तथाकथित ‘ फाइव स्टार एक्टिविस्टों ’ ने ‘ ड्राइव ’ किया। 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आबंटन घोटालों के बारे में अदालती फैसलों ने भारतीय जनता पार्टी को यूपीए सरकार के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए चुनावी गोला बारूद मुहैया करवाया और ये मुकदमे पीआईएल के जरिये तथाकथित

‘ फाइव स्टार एक्टिविस्टों ’ ने ही दायर किए थे। न इन मुकदमों का नौ मन तेल मिलता न भारतीय जनता पार्टी सत्ता के सिहांसन पर नाचती और न मोदी आज प्रधानमंत्री के रूप में मंच से रंग बिरंगे परिधानों की छटा बिखेरते फिरते। उनकी सरकार कोयला ब्लॉकों की नीलामी कर देश के लिए 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा कमाने का दावा कर इतरा भी नहीं पाती। लोकतंत्र के पत्तल में जीम कर उसी में छेद करना बड़े-बड़ों के लिए भारी पड़ा है। हमारे देश में इमरजेंसी का भी यही सबक था जिसे आगे के सभी हुक्मरान पढ़ते रहें तो अच्छा है

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