Friday, September 12, 2014

एक अनकही कहानी है - एर्राबोर राजीव रंजन प्रसाद

एक अनकही कहानी है - एर्राबोर
राजीव रंजन प्रसाद
[भूमकाल से साभार ]

सुकमा से कोण्टा की ओर आगे बढते हुए यह अहसास रह ही नहीं गया था कि कभी यहाँ से हो कर सड़क भी गुजरती रही होगी। बड़े बड़े गड्ढों में सडक तलाशते हुए कोण्टा तक पहुँचने के एक मात्र रास्ते से हो कर गुजरना किसी प्रकृति प्रेमी के लिये सु:खद है, किसी जीव वैज्ञानिक के लिये रोमांचकारी, किसी इतिहासकार के लिये खोजपूर्ण तो किसी लेखक, पत्रकार के लिये अविस्मरणीय अनुभव। इस रास्ते से गुजरने की बचपन की कुछ यादे आज भी हैं मेरे पास लेकिन वर्तमान से उसकी कोई तुलना नहीं। देखते ही देखते कितना बदल गया बस्तर? जैसे सांस लेना भूल गया हो, जैसे रंग उड़ गये हों या कि कोई मधुर गीत गीत अब किसी बेसुरे साज पर बजने लगा हो।

एक दौर था जब पहाडियाँ और गाँव अपने सौन्दर्य, देवी-देवता अथवा लोक-जीवन के लिये पहचाने जाते थे लेकिन आज वे दहशत का पर्याय हैं..........आप नाम ले कर देखिये चिंतलनार, श्यामगिरि, ताडमेटला, दरभाघाटी या कि एर्राबोर। इन स्थलों से अतीत के अनेक गौरवशाली जनसंघर्ष भी जुडे हुए हैं लेकिन उन्हें कौन याद रखना चाहता है आज? जहाँ से गुजर जाईये बस मौत ही मौत की आहट कि यहाँ ग्यारह मारे गये थे, यहाँ तैतीस बारूदी सुरंग में उडा दिये गये तो यहाँ एम्बूश लगा कर चार उडा दिये गये, यहाँ गाँव जला दिये गये थे, यहाँ गला रेत दिया गया था....उफ!!!

एर्राबोर क्या महज एक गाँव है? क्या एर्राबोर एक प्रतीक नहीं बन गया है लाल-आतंकवाद और सलवाजुडुम के खूनी धमाकों और आपसी रक्तपिपासाओं का? एर्राबोर पहुँच कर मैं ठिठक गया हूँ, स्तब्ध रह गया हूँ। वीरानी से स्वागत और कुछ देर बाद अविश्वास भरी अनेक निगाहों से सामना। ताड़ के पेडों की लम्बी लम्बी कतारें क्यों खूबसूरत नहीं लग रही हैं मुझे? यह केवल टूटी फूटी सडकों से गुजर कर यहाँ तक पहुँचने की थकान भर नहीं है, यह मेरे भीतर की संवेदनशीलता है शायद, जिसे इन जंगलों के भीतर हुई घटनायें इस समय दर्द भरी चिकोटियाँ काट रही हैं। सुकमा से एर्राबोर तक रास्ते भर हर किलोमीटर पर सीआरपीएफ के जवान सर्च करते हुए मिले। सडकें सुरक्षित नहीं हैं, जंगल की हर सरसराहट अब किसी हिरण या भालू होने की संभावना नहीं बताती बल्कि निश्चित करती है कि नक्सली होंगे या सेना के जवान। आम आदिवासी की स्थिति युद्धरत बस्तर में कहाँ है और कैसी है, यह सवाल अब अधिक महत्व का हो चला है।

एर्राबोर पहली बार तब सुर्खियों में आया जब सत्रह जुलाई वर्ष-2006 की रात, एक बडा नक्सली हमला यहाँ अवस्थित सलवा जुडुम कैम्प में किया गया था। सलवा जुडुम के प्रारम्भ होने के पश्चात से यह नक्सलियों द्वारा प्रतिवाद किये जाने की प्रारम्भिक लेकिन दुर्दांत घटना थी। लगभग पाँच सौ झोपडियों में आग लगा दी गयी, सैंतीस आदिवासी मारे गये और कई तो जीवित ही स्वाहा हो गये थे जिसमें छ: साल की बच्ची से ले कर बुजुर्ग भी थे। इंटरनेट पर उपलब्ध नक्सलियों की त्रैमासिक पत्रिका “प्रभात” के जनवरी-मार्च 2007 के अंक में एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें लिखा है - “2006 जुलाई 19-17 की रात पीएलजीआई की अगुवाई में एक हजार ग्रामीण जनता ने एर्राबोर स्थित तथाकथित राहत शिविर पर हमला बोल दिया”। मैं आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में जनता शब्द के इस्तेमाल को सही नहीं मानता। आखिर जो मरे वे कौन थे? जो मार रहे थे वे कौन थे? और मारने के लिये उकसाने वाले कौन थे? जनता के इस तंत्र में अपनी बात सामने रखने का माध्यम जनता की हत्या हो तो क्या हम कहें कि लोकतंत्र की विफलता का यह दौर है?

वस्तुत: विचारधारायें हत्यारी हो गयी हैं और वे अपने चेहरे पर जनता का मुखौटा लगा लेती हैं। प्रभात पत्रिका के इसी लेख में आगे लिखा गया है कि “एर्राबोर घटना में गलती से दो बच्चों और दो निर्दोष महिलाओं की हत्या होने पर हम पर कीचड उछालने वाले पुलिस प्रशासन क्या इस सवाल का जवाब देंगे कि किसके कहने पर मूक्कावेल्ली में डेढ साल के बच्चे के सिर पर नगा पुलिस ने गोली मारी थी।” सिहरन हो जाती है यह सब पढ कर कि किस संवेदनहीनता से बच्चों और महिलाओं की हत्या को जायज ठहराया जाता है फिर चाहे बंदूख किसी भी पक्ष की हो......।
एर्राबोर ने पहली बार नक्सलवाद पर स्पष्ट रूप से आतंकवाद होने का लेबल बस्तर में चस्पा किया था। यह वह आरंभिक घटना थी जिसने बताया कि वह चाहे सलवा जुडुम की हो या कि माओवादी बंदूखें वस्तुत: आदिवासी के खिलाफ ही उठेंगी और एसी कोई सुबह नहीं आने वाली जो लाल सूरज ढकेल कर कभी भी ला सके। हमले लगातर जारी हैं और कभी सेना के जवान तो कभी नक्सली और बहुधा दोनो ओर की गोलीबारी में आम ग्रामीण मिटते जा रहे हैं। सलवा जुडुम जब तक जारी रहा तब तक विश्व मीडिया का ध्यान बस्तर के इस सुदूरतम कोने में बना हुआ था किंतु सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के पश्चात से स्थितियों में आमूलचूक परिवर्तन आ गया। एसपीओ/ कोया कमाण्डो अब पुलिस सेवा का हिस्सा हो गये हैं, राहत शिविर अब लगभग बंद हो गये हैं तथा जिन्हें यहाँ रहने की मजबूरियाँ हैं वे राशन-पानी के लिये महरूम डर के साये में जीवन बिताने के लिये बाध्य दिखाई पड़ते हैं।

शक्ति-साम्य वाली स्थितियाँ हटते ही सलवाजुडुम से जुडे कार्यकर्ता चुन चुन कर नक्सलियों द्वारा मारे जाने लगे। एसा ही भयावह हश्र कुछ ही समय पूर्व सलवा जुडुम के सक्रिय कार्यकर्ता और एर्राबोर के उपसरपंच सोयम मुका का हुआ जिसे कोण्टा से एराबोर लौटने के दौरान असीरगुडा के निकट पहले गोली मारी गयी फिर पीट पीट कर नक्सलियों ने मार डाला। इस घटना के कुछ दिनों बाद मैने कथित गाँधीवादी एक्टिविस्ट हिमांशु कुमार का जनज्वार वेबसाईट पर लेख पढा जिसमें उन्होंने लिखा था -  “.....नक्सलियों ने सोयम मुका को मार डाला। हांलाकि हम चाहते थे सोयम मुका को इस देश की अदालत दंड दे ताकि आदिवासियों की आस्था इस देश के कानून और व्यवस्था में और अधिक मज़बूत हो लेकिन अदालत और सरकार ने कानून को हरा दिया और नक्सलियों को जीता दिया। इससे अब आदिवासियों के मन में यह बात और मजबूती से बैठ गई होगी कि इस देश में उन्हें सिर्फ नक्सली ही न्याय दिला सकते हैं“। आतंकवाद के खुले समर्थन की ऐसी गाँधीवादी व्याख्या पढ कर मुझे एक्टिविज्म शब्द लिजलिजा प्रतीत होता है किंतु यही तो खूबसूरती है लोकतंत्र की जहाँ अपनी बात किसी भी तरह से कहने की सभी को स्वतंत्रता है। हाँ, यह एक कडुवी सच्चाई है कि जिस देसी शी-विदेशी मीडिया और कथित समाजसेवियों ने सलवा जुडुम और सरकार प्रायोजित आतंकवाद पर लम्बी लम्बी तकरीरें की, मानवाधिकार के बडे बडे संकेत चिन्ह गढे वही इनदिनों नक्सलियों द्वारा लगातार सलवा जुडुम से जुडे आदिवासियों के मारे जाने वाले पर मुँह में लॉलीपॉप ठूस कर उनींदा पडा हुआ है।

एर्राबोर का सुलगना अब बंद है। उसकी साँसें सीआरपीएफ के कैम्प ने रोक रखी हैं और पहचान बन बन गये हैं लाशों के स्मृति स्तम्भ। सड़क के दोनो ओर कतारबद्ध कोया कमांडो के स्मृति स्मारक। भले ही कोया कमाण्डो अतीत की बात हो गये लेकिन बस्तर की संस्कृति कुछ भी भूलने नहीं देती। पूरे बस्तर में पुरा पाषाण काल से आज तक के मृतक स्मृति अवशेष तलाशने पर आसानी से मिल जाते हैं जिन्हें स्थानीय मठ कह कर पुकारते हैं। कांकेर से कोण्टा तक मृतक स्मारकों के तरीकों में अनेक तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं लेकिन वे बनाये जाते हैं और इस तरह पीढियाँ अपने पूर्वजों से परिचित रहा करती हैं। लेकिन एर्राबोर में कैसी पीढियाँ और कौन सी स्मृतियाँ? जिनके हाथों में नक्सली बंदूखे हैं उनकी मौत पर अगर लाल स्मृति चिन्ह बनाया जाता है तो सेना के जवान उसे तहस नहस कर आते हैं और कोया कमाण्डो या कि कथित रूप से सलवा जुडुम से जुडे आदिवासियों के मृतक स्मारकों को नक्सली नहीं छोडते। हिसाब बराबर करने कराने के दौर में सडक के किनारे कतार बद्ध बंदूख थामें खडे रह गये कोया कमाण्डो और एसपीएफ आदि के मृतक स्मारक वस्तुत: बंदूख के साये में ही ज़िन्दा हैं।

तो प्रश्न यह है कि आदिवासी कौन है? जब कोई सुकारू, बुदरू या सोयम नक्सली हो जाता है तब आदिवासी रहता है और जब सलवा जुडुम की भीड में खडा दिखता है तो सत्ता का दला बन जाता है? सवाल यह है कि गुमराह कौन है वह जिसका हाट बाजार लुट गया, जिसके जीवन यापन का यही आसंरा बचा कि वह किसी न किसी ओर की बंदूख थाम ले या कि वे जिन्हें देश विदेश के बडे बडे अखबारों की स्याहियाँ नसीब हैं लेकिन दूर की नजर कमजोर है? सवाल यह भी है कि एराबोर का बचना किसके लिये जरूरी है जब यहाँ की बहुतायत आबादी का पता ठिकाना नामालूम हो चला है? एराबोर से थोडी ही आगे बढने पर बस्तर संभाग के आखिरी छोर कोण्टा पहुचा जा सकता है। कोण्टा से लग कर ही एक छोटा सा गाँव है मोटू जहाँ तीन नक्सल-प्रभावित प्रदेशों की सीमायें मिलती है तेलांगाना, ओडिशा और छत्तीसगढ। यह भूगोल भी एराबोर का दुर्भाग्य ही तो है। न जाने खामोशी का कितना पानी शबरी में बहता जायेगा और कबतक अनकहा-अनसुना रहेगा एर्राबोर?

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