क्या है अफ़ज़ल गुरु के गाँव में चुनावी फ़िज़ा?
- 2 घंटे पहले
कश्मीर घाटी के कुछ गांवों के नाम चरमपंथ के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हैं.
कुपवाड़ा जिले का त्रेगाम मक़बूल बट का गांव है, जिन्हें दिल्ली के तिहाड़ जेल में वर्ष 1984 में फांसी दी गई थी.
उन पर बैंक लूट, हत्या, आतंक फैलाने और देश के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करने का अभियोग चला था.
कश्मीर में चरमपंथ की शुरुआत के लिए उनकी फांसी को भी एक तात्कालिक कारण माना जाता रहा है.
दूसरा गांव है- जगीर घाट, जो सोपोर के पास बारामूला ज़िले में पड़ता है. यह अफ़ज़ल गुरु का गांव है. उन्हें नौ फरवरी 2013 को तिहाड़ जेल में ही फांसी दी गई थी.
बहिष्कार
अफ़ज़ल पर भारतीय संसद पर चरमपंथी हमले की योजना में शामिल होने का मुकदमा चला था और वे मुकदमे की कार्यवाही के बाद दोषी पाए गए.
तीसरा गांव है- बडगाम ज़िले का सोयबुग, जो हिज़्बुल मुजाहिद्दीन के मौजूदा कमांडर-इन-चीफ सैय्यद सलाहुद्दीन का है.
सलाउद्दीन अब कथित तौर पर सरहद पार लाहौर और मुज़फ्फ़राबाद के पास के अपने अड्डों पर रहते हैं. इन तीनों गांवों में चुनाव की अलग-अलग तस्वीरें दिखीं.
सोपोर के जगीर घाट में नौ दिसम्बर को आमतौर पर लोगों ने मतदान का बहिष्कार किया.
अफ़ज़ल गुरु को याद करते हुए नौजवानों ने गांव के बाहर एक पोस्टर लगा रखा था, जिस पर अफ़ज़ल के साथ मक़बूल बट की भी तस्वीर थी.
'इस तरह के जनतंत्र'
पोस्टर पर वोट बहिष्कार का ऐलान किया गया था. इसका असर भी दिखा. यहां किसी तरह की कोई हिंसक झड़प या ज़ोर-जबर्दस्ती नहीं हुई.
गांव के कुल 468 मतदाताओं में से सिर्फ़ छह ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. मतदान करने वाले लोग किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के समर्थक या सदस्य बताए गए हैं.
अफ़ज़ल गुरु की बीवी रोज़ की तरह एक निजी नर्सिंग होम में अपनी ड्यूटी के लिए चली गई थी.
घर से निकलते वक्त उन्होंने कुछ स्थानीय पत्रकारों से केवल इतना कहा कि 'इस तरह के जनतंत्र' में उसका कोई यकीन नहीं रह गया है, जहां लोगों को बिन बताए फांसी दी जाती हो और फिर परिजनों को शव भी नहीं दिए जाते हों.
मतदान केंद्र
उधर, कुपवाड़ा के त्रेगाम गांव, जहां मकबूल बट पैदा हुए थे, में इस बार मतदान पहले के मुक़ाबले बेहतर हुआ.
वहां दूसरे चरण में ही दो दिसंबर को मतदान हुआ था. मकबूल बट के परिजनों और उऩके खास समर्थक-परिवार के सदस्यों ने वहां मतदान नहीं किया.
लेकिन अन्य परिवारों को मतदान केंद्र पर लाइन में खड़े देखा गया.
भारत सरकार की नजर में मकबूल बट एक देशद्रोही था पर कश्मीर घाटी में उन्हें आज भी आज़ादी की लड़ाई का पहला शहीद कहा जाता है.
उनके चित्र वाले बड़े-बड़े पोस्टर कश्मीर के सभी शहरों-कस्बों में बिकते देखे जा सकते हैं.
मताधिकार
बारामूला-सोपोर जाते वक्त नौ दिसम्बर को उनके चित्र वाला एक बड़ा पोस्टर मैंने बारामूला स्थित आर्मी पोस्ट के बगल में देखा. किसी ने उसे उतारा नहीं था.
सबसे दिलचस्प नज़ारा नौ दिसंबर को ही बड़गाम के सोयबुग में था, जो हिज़्बुल कमांडर-इन-चीफ सैय्यद सलाहुद्दीन का गांव है. यहां भारी पैमाने पर मतदान हुआ.
स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक गांव के दोनों मतदान केंद्रों पर सत्तर फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया.
कश्मीर के आधुनिक इतिहास का यह कम दिलचस्प पहलू नहीं कि एक समय सलाहुद्दीन कथित धांधली के चलते चुनाव नहीं जीत सके थे और आज उनके गांव में स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से मतदान हो रहा है.
वोट की लड़ाई
लोग कहते हैं कि वोट की लड़ाई में मिली निराशा के बाद ही मोहम्मद यूसुफ शाह (सैय्यद सलाहुद्दीन का वास्तविक नाम) 1987 में बाग़ी हो गए.
तब वह श्रीनगर के अमीराकदल से मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट के प्रत्याशी थे. यासीन मलिक उनके चुनाव एजेंट थे.
आमतौर पर माना जाता है कि उस चुनाव में यूसुफ शाह जीत रहे थे पर भारी पैमाने पर कथित तौर पर धांधली की गई और मतगणना के समय नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रत्याशी को जीता हुआ घोषित कर दिया गया.
यूसुफ और यासीन बुरी तरह पीटे भी गए. कुछ दिनों बाद यूसुफ शाह अचानक ग़ायब हो गए. बाद में वह हिज़्बुल के कमांडर-इन-चीफ के रूप में जाने गए.
कश्मीर घाटी
कश्मीर घाटी में चरमपंथी गतिविधियों में उनका संगठन सबसे सक्रिय माना गया था.
सोयबुग के इब्राहिम और उन जैसे कई नौजवान कहते हैं, "गांव वालों के मतदान में शामिल होने का मतलब यह नहीं कि हमने 'आजादी की अपनी मांग' छोड़ दी है या कि 'शहीदों' को भुला दिया है."
उन्होंने कहा, "यह चुनाव स्थानीय समस्याओं के समाधान का ज़रिया है. हमें सड़क-पानी-बिजली-स्कूल-अस्पताल चाहिए. इन सबका इंतज़ाम कौन करेगा?"
वे कहते हैं, "हम कश्मीर मसले के समाधान तक अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की समस्याओं के निदान का इंतज़ार नहीं कर सकते."
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