Wednesday, February 22, 2017

क्या नंदिनी सुंदर सच में माओवादी समर्थक हैं?

क्या नंदिनी सुंदर सच में माओवादी समर्थक हैं?

  • 7 घंटे पहले
नंदिनी सुंदरइमेज कॉपीरइटNANDINI SUNDAR BLOG
छत्तीसगढ़ में बस्तर, आदिवासी और माओवाद की चर्चा के बीच नंदिनी सुंदर का नाम भी आ ही जाता है. एक ऐसा नाम, जिनके शोध और लेखन के कारण आधुनिक बस्तर के समाज और इतिहास की कई तस्वीरें पहली बार सामने आईं.
आदिवासियों के रहन-सहन से लेकर उनके सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलू की जैसी गहन पड़ताल उन्होंने की है,
लेकिन छत्तीसगढ़ पुलिस के दस्तावेज़ में नंदिनी सुंदर का नाम हत्या के एक मामले में दर्ज है. बस्तर में पुलिस के शीर्ष अफ़सर सार्वजनिक तौर पर उन्हें माओवादियों का समर्थक घोषित करते रहे हैं. उनके बारे में पिछले कुछ सालों में लगातार यह प्रचारित किया गया है कि वे भारत के माओवादियों का शहरी चेहरा हैं.
हालांकि नंदिनी सुंदर इससे इनकार करते हुए कहती हैं, "मैं शांति में विश्वास करती हूं और किसी भी क़िस्म की हिंसा में मेरी कोई आस्था नहीं है."
रमन सिंहइमेज कॉपीरइटAFP/GETTY IMAGES
Image captionछत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने सलवा जुडूम को जंगल की आग बताया था

बस्तर पुलिस

लेकिन बस्तर में एक तबक़ा ऐसा है, जो नंदिनी सुंदर की राय से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता. बस्तर में पिछले महीने तक माओवादियों के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाने वाले अग्नि नामक संगठन के संयोजक आनंद मोहन मिश्रा की राय है कि नंदिनी सुंदर लगातार माओवादियों के पक्ष में लिखती रही हैं, उनका समर्थन करती रही हैं.
आनंद मोहन मिश्रा कहते हैं, "यह अजीब संयोग है कि नंदिनी सुंदर जिन इलाक़ों में काम करती रही हैं, वहां माओवादी और मज़बूत होते गए हैं. उन्होंने कभी माओवादियों के ख़िलाफ़ एक भी शब्द लिखा हो, ऐसा मुझे कभी नज़र नहीं आया."
मिश्रा का आरोप है कि माओवादियों की हिंसा के कारण बस्तर विकास में पिछड़ गया और तमाम तरह की प्रतिभा के बाद भी बस्तर का आम आदिवासी, समाज की मुख्य धारा में आज तक नहीं आ सका. उनका कहना है कि आदिवासियों को पीछे धकेलने वालों का भला कैसे समर्थन किया जा सकता है?
नंदिनी सुंदरइमेज कॉपीरइटCG KHABAR
सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में जब नंदिनी सुंदर और उनके साथियों की याचिका पर छत्तीसगढ़ में विशेष पुलिस अधिकारियों और आदिवासियों द्वारा कथित माओवादियों के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे सलवा जुडूम को असंवैधानिक घोषित करते हुए उस पर प्रतिबंध लगाया, तब नंदिनी सुंदर पहली बार देश भर में चर्चा में आईं.
हालांकि देश के अकादमिक हलक़ों में एक समाजशास्त्री के तौर पर उनकी पहचान रही है लेकिन सरकार के ख़िलाफ़ क़ानूनी हस्तक्षेप और फिर जीत का यह पहला बड़ा मामला था. यह वह दौर था, जब सलवा जुडूम अपने चरम पर था और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इसे जंगल की आग बताते हुए कहा था कि यह माओवादियों के ख़िलाफ़ आदिवासियों का स्वत:स्फूर्त आंदोलन है और जब नक्सलवाद ख़त्म होगा, तभी यह आग बुझेगी.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरीक़े से राज्य सरकार के ख़िलाफ़ गंभीर टिप्पणी करते हुए इस पर प्रतिबंध लगाया, उसके बाद से नंदिनी सुंदर कम से कम बस्तर में पुलिस के एक बड़े वर्ग के निशाने पर आ गईं.
छत्तीसगढ़ पुलिसइमेज कॉपीरइटAFP/GETTY IMAGES

संघर्ष का केंद्र

न्यूयॉर्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय से 1995 में मानवविज्ञान में पीएचडी करने वाली नंदिनी सुंदर ने इससे पहले ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र में बीए ऑनर्स की पढ़ाई की.
माता-पिता दोनों ही गुजरात कैडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. पिता तमिलनाडु से और मां महाराष्ट्र की. एक बड़ी बहन हैं, उनकी पृष्ठभूमि भी अकादमिक है और वो कन्याकुमारी के मछुआरों से जुड़े मुद्दों पर काम करती हैं. नंदिनी के पति सिद्धार्थ वरदराजन देश के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजिक विज्ञान की प्राध्यापक नंदिनी सुंदर ने तीन सालों तक जेएनयू में भी पढ़ाया है.
नंदिनी कहती हैं, "मेरे माता-पिता ने हम दोनों को अपने तरीक़े से काम करने की छूट दी. 1990 में जब मैं अपने पीएचडी के लिए विषय को समझने-जानने की कोशिश कर रही थी, उसी समय पहली बार बस्तर आना हुआ. तब बस्तर संघर्ष के एक केंद्र की तरह विकसित हो रहा था. इसके बाद से लगातार मैं बस्तर में शोध का काम करती रही, इस पर किताबें लिखी."
बस्तर के बुरगुम थाने के एक अधिकारी

माओवादी समर्थक?

हालांकि बस्तर में कई अवसरों पर काम कर चुके एक पुलिस अधिकारी नंदिनी सुंदर को माओवादियों का समर्थक बताते हैं.
पिछले साल ही नंदिनी सुंदर और जेएनयू की प्रोफ़ेसर समेत कई लोगों के ख़िलाफ़ एक आदिवासी की हत्या का मामला भी दर्ज किया गया. नंदिनी हत्या के समय विदेश में थीं. हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नंदिनी और दूसरे लोगों की गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी. लेकिन बस्तर के तत्कालीन आईजी के शिवराम प्रसाद कल्लुरी ने दावा किया था कि उनके पास पर्याप्त सबूत हैं.
कल्लुरी ने कहा था, "दिल्ली से आने वाले ये लोग बस्तर के गांवों में जा कर गांव वालों को प्रजातंत्र के ख़िलाफ़, सरकार के ख़िलाफ़ भड़काते हैं, उकसाते हैं, माओवादियों का साथ देने के लिए कहते हैं."
तो क्या नंदिनी सुंदर सच में माओवादियों की समर्थक हैं?
छत्तीसगढ़, माओवादी हिंसाइमेज कॉपीरइटAFP/GETTY IMAGES
Image captionसरकार में बैठा एक वर्ग तो यही मानता है कि नंदिनी सुंदर जैसे लोग विकास विरोधी हैं

'विकास विरोधी'

अपने को मार्क्सवादी मानवतावादी बताने वाली नंदिनी सुंदर का कहना है कि वे किसी भी तरह की हिंसा में विश्वास नहीं करतीं. बस्तर के विकास में माओवादी हिंसा को बाधक बताने वाली नंदिनी का कहना है कि मुख़बिरों की या दूसरे आदिवासियों की हत्या के कई मामले ऐसे हैं, जिनका माओवादी राजनीति या सिद्धांत से कोई लेना-देना नहीं है. स्थानीय स्तर पर संघम को कोई पसंद नहीं आया और हत्या कर दी जाती है.
नंदिनी कहती हैं, "माओवादियों की लड़ाई जब शुरू हुई तो उन्होंने वनोपज की ठीक-ठीक क़ीमत से लेकर तालाब बनाने तक विकास के कई काम किए. ये वो इलाक़ा था, जहां सरकार की सारी विकास योजनाएँ ग़ायब थीं. लेकिन माओवादियों को आज यह समझने की ज़रूरत है कि ऑयल कांट्रेक्ट, स्पेक्ट्रम कांट्रैक्ट और इस तरह के कार्य व्यापार में जो भयावह गड़बड़ियां हैं, देश में जो कुछ चल रहा है, वह सब जंगल में लड़ाई लड़ने से ख़त्म नहीं होगा. आज माओवाद की प्रकृति ही बदल गई है."
लेकिन सरकार में बैठा एक वर्ग तो यही मानता है कि नंदिनी सुंदर जैसे लोग विकास विरोधी हैं और बस्तर को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते हैं.
सुप्रीम कोर्टइमेज कॉपीरइटAFP/GETTY IMAGES
Image captionआदिवासी की हत्या के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नंदिनी की गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी

सुप्रीम कोर्ट

नंदिनी इसका जवाब देते हुए कहती हैं, "पुलिस लोगों को मार रही है, आदिवासियों का बलात्कार कर रही है, ताड़मेटला हो या तिम्मापुर, वहां आदिवासियों के घर जलाए जा रहे हैं, क्या यह सब विकास है? सलवा जुडूम चल रहा था, 644 गांव ख़ाली करवा दिए गए और आदिवासियों को कैंपों में डाल दिया गया, क्या यह विकास है?"
उनका दावा है कि सलवा जुडूम और दूसरे मामलों में दायर याचिकाओं में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में बस्तर की विस्तृत विकास योजना सौंपी है.
नंदिनी कहती हैं, "हम विकास तो नहीं कर सकते. यह काम तो सरकार का है लेकिन यह सरकार कहां है? पिछले दस सालों से हमने सुप्रीम कोर्ट में विस्तार से बस्तर में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूल सुविधाओं की स्थिति बताई है. विकास की कार्ययोजना के साथ-साथ मानिटरिंग कमेटी बनाने, शांति वार्ता शुरू करने जैसे कई सुझाव दिए हैं. लेकिन सरकार चुप है."

बाहरी लोग

पिछले 27 सालों से वे लगातार बस्तर आती-जाती रही हैं और इस दौरान उन्होंने बस्तर को बदलते देखा है. नंदिनी सुंदर का कहना है कि इस पूरे दौर में आदिवासियों की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति तो बदली ही है, उनके स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है. पहले की तुलना में वे शारीरिक रुप से कमज़ोर हुए हैं, उनका पलायन बढ़ा है. खेती के तौर-तरीक़े बदल गए हैं.
गीता माओवादी दस्ते के लिए काम कर चुकी हैं, लेकिन अब उन्होंने नई शुरुआत की है.
नंदिनी कहती हैं, "बस्तर में बड़ी संख्या में अब बाहरी लोग आ कर बस गए हैं और ख़ुद को स्थानीय मानने लगे हैं. लेकिन ख़तरनाक ये है कि वे अब आदिवासियों को बाहरी बताने लगे हैं."
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