Saturday, February 25, 2017

कौन देशभक्त? कौन देशद्रोही? - इतिहास के मिथ्याकरण के विरुद्ध!* 📱इस दस्‍तावेज का ऑनलाइन

*कौन देशभक्त? कौन देशद्रोही? - इतिहास के मिथ्याकरण के विरुद्ध!*
📱इस दस्‍तावेज का ऑनलाइन लिंक - http://naubhas.in/archives/757
👇पूरा टेक्‍सट नीचे दिया है👇

*दो किश्‍तों में संघ का इतिहास - आज आपको पहली किश्‍त भेजी जा रही है। दूसरी किश्‍त कल भेजी जायेगी।*

विषय सूची
भूमिका
1. आरएसएस के ‘देशभक्ति’ के शोर का सच
 1.1 स्वतन्त्रता आन्दोलन से विश्वासघात
 1.2 शहीदों का अपमान
 1.3 माफ़ीनामे और मुखबिरी का इतिहास

2. आरएसएस के ‘देशप्रेम’ का सच 16
 2.1 आरएसएस का कौन सा राष्ट्र?
 2.2 स्वदेशी आरएसएस की विदेशी जड़ें

3. आरएसएस का भारत के संविधान के बारे में नज़रिया 22
 3.1 क्या आरएसएस भारत के संघीय ढाँचे का सम्मान करता है?
 3.2 तिरंगे झण्डे पर राजनीति करने वाले संघ-भाजपा के तिरंगा प्रेम का सच

भूमिका

मई 2014 को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद देश में जिस तरह फासीवादी शक्तियों ने जनता की हर एक जायज आवाज को दबाकर झूठ और फरेब को फैलाना शुरू कर दिया है यह किसी भी इंसाफपसन्द व्यक्ति के लिए बेचैन कर देने वाला है। चारो तरफ जनवादविरोधी इन शक्तियों ने भीड़ की मानसिकता बनाना शुरू कर दिया और यह फैलाना शुरू कर दिया कि जो मोदी सरकार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की हाँ में हाँ नहीं मिला रहा है, वह देश विरोधी और देशद्रोही है। देश में एम.एस. कलबुर्गी, गोविन्द पानसरे और नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या सच लिखने और बोलने के कारण कर दी गयी। दादरी में अखलाक नामक एक मुसलमान की हत्या उसके घर में गाय का मांस होने की अफवाह फैलाकर कुछ हिंदुत्ववादी गुण्डों द्वारा कर दी गयी। धर्म और साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाले इस गिरोह ने इधर बड़े जोर-शोर से ‘राष्ट्रवाद’ और ‘देशभक्ति’ का राग अलापना शुरू कर दिया है। इस पूरे शोरशराबे में भगवा फासीवादी एक ओर जनता के बुनियादी हकों की आवाज को खून में डुबो देना चाहते हैं तो दूसरी ओर देश का फासीवादीकरण करके जनता पर अपनी तानाशाही थोप देना चाहते हैं।

‘विकास’ और ‘कालेधन’ की बात करते हुए सत्ता में आए इन दोमुँहों ने एक बार फिर जनता को बेवकूफ बनाने का काम ही किया है। मोदी अपने चुनाव प्रचार में हर आदमी के खाते में काले धन का 15 लाख रुपये देने का जो चुनावी वायदा करते हुए इतरा रहा था उसे बड़ी बेशर्मी से अमित शाह ने ‘चुनावी जुमला’ बता दिया। यह इनके दुःसाहस और बेशर्मी की इन्तहां नहीं तो और क्या है? क्या जनता से जिन वायदों पर वोट लिये गये उन्हें ‘चुनावी जुमला’ करार देना जनता और देश के बारे में इनके मंसूबों को नहीं दिखाता है?

आज पूरे देश में भुखमरी, बेरोजगारी, महँगाई अभूतपूर्व स्तर पर हैं। देश की 33 करोड़ आबादी भयंकर तरीके से पीने के पानी के संकट से जूझ रही है। किसान आत्महत्याएँ कर रहें है। उच्च शिक्षा के बजट में 55 फीसदी की कटौती इस बजट में कर दी गयी है, वहीं दूसरी तरफ पूँजीपतियों और कारपोरेट घरानों को लाखों करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर दिये गए हैं। कश्मीर से लेकर पुडुचेरी तक तमाम विश्वविद्यालयों में सरकार की शिक्षा विरोधी नीतियों को लेकर छात्र  आन्दोलन कर रहे हैं और उन पर पुलिस लाठियाँ बरसा रही है। पूरे देश में दलितों और अल्पसंख्यकों पर उत्पीड़न और अत्याचार की घटनाएँ बढ़ रहीं हैं। संघ, उसके अनुसंगी संगठन ही नहीं बल्कि भाजपा सरकार के विधायक और मंत्रियों तक की भूमिका निसन्दिग्ध रूप से सामने आ रही है।

देश में ऐसी परिस्थितियों में यह सरकार ऐसा नहीं चाहती कि आम आदमी अपनी रोजी-रोटी, छात्र  अपनी शिक्षा और किसान, मजदूर अपने हक की बात सोचें। यह देशी-विदेशी पूँजी की सेवा में आने वाली किसी भी बाधा को समाप्त कर देना चाहती है और देश में ऐसा माहौल बनाना चाहती है कि कोई भी अपने हक-अधिकार की बात सोच भी न सके और सिर झुकाकर पूँजीपतियों की गुलामी बजाता रहे और फासीवादी गुण्डों की हाँ में हाँ मिलाता रहे। इसके लिए संघ-भाजपा गिरोह पूरे देश में उन्माद का ऐसा माहौल बना रहा है जिसमें लोग विवेक और तर्क को भूलकर भीड़ में तब्दील हो जायें और वास्तविक मुद्दों को छोड़कर आपस में ही लड़ मरें।

ये रक्तपिपासु आदमखोर केवल गुजरात और मुजफ्फ़रनगर जैसे नरसंहार ही नहीं कर रहे हैं बल्कि छोटे-छोटे स्तरों पर हत्याएँ, और अफवाहों को फैला लोगो में दुश्मनी और दंगे भी भड़का रहे हैं। आज इनकी असलियत को समझने के लिए आम जनता को अपने किसी भी पूर्वाग्रह को छोड़कर आदमखोर संघ-भाजपा परिवार की सच्चाई को समझने की जरूरत है। क्योंकि जब फासीवाद दंगों और हत्याओं को अंजाम देता है तो उसमें न सिर्फ अल्पसंख्यक, गरीब मजदूर मरते हैं, बल्कि समाज में अपने को सुरक्षित महसूस करने वाला छोटा व्यापारी व मध्यवर्ग व अन्य भी उससे नहीं बचता।

आज हमारे लिए संघ-भाजपा के ‘राष्ट्रवाद’ और इसकी तथाकथित ‘देशभक्ति’ की असलियत को पहचानने की जरूरत है। और उसके साथ ही देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले सच्चे ‘देशभक्तों’ की क्रान्तिकारी विरासत को जानने समझने की भी जरूरत है। हमें एक उन्मादी देश-भंजक भाजपा-संघी ‘राष्ट्रवाद’ नहीं बल्कि जनता के भाईचारे, आजादी और जनता के जनवादी अधिकारों वाले समाज की जरूरत है। आज हर एक इंसाफपसन्द नौजवान, नागरिक और स्त्री-पुरुष के लिए संघ-भाजपा के असल चेहरे को देखने की जरूरत है क्योंकि ये हमारी आँखों के सामने ही हर झूठ को सौ बार दोहरा कर सच बनाना चाहते हैं।

1. आरएसएस की ‘देशभक्ति’ के शोर का सच
संघ-भाजपा द्वारा जारी ‘देशभक्ति’ के शोर के बीच हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि देश क्या है? और देशभक्ति किसे कहते हैं? देश कोई कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता है, यह बनता है वहाँ के लोगों से, जनता से। और देश भक्ति के असली मायने है जनता से प्यार, इनके दुख तकलीफ़ से वास्ता और इनके संघर्ष में साथ देना। देशभक्ति की बात करते हुए अगर इस देश की आजादी की लड़ाई पर नजर डाली जाय तो आज भी हमारे जेहन में जो नाम आते हैं वे हैं: शहीद भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, अशफ़ाक-उल्ला, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’। देशभक्ति के लिए देश के अर्थ को समझना बेहद जरूरी है और यह भी जानना जरूरी है कि देश के लिए कुर्बान होने वाले इन शहीदों ने किसके लिए अपनी जान की बाजी लगायी थी? आज यह एक आम आदमी भी समझ सकता है कि देश कागज़ पर बना महज एक नक्शा नहीं होता। न ही केवल जमीन का एक टुकड़ा होता है। देश बनता है वहाँ रहने वाली जनता से। वह जनता जो उस देश की जरूरत का हर एक साजो सामान बनाती है, वह किसान और खेतिहर मजदूर जो अनाज पैदा करते हैं वह जनता जो देश को चलाती है। क्या इस जनता के दुःख-तकलीफ में शामिल हुए बिना, उसके संघर्ष में भागीदारी किये बिना कोई देशभक्त कहला सकता है? भगतसिंह के लिए क्रान्ति और संघर्ष का मलतब क्या था? वह किस तरह के समाज के लिए लड़ रहे थे? 6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज की अदालत में दिये भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त के बयान से स्पष्ट होता हैः

‘क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है- अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं। दुनियाभर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करानेवाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढँकने-भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं। यह भयानक असमानता और जबर्दस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल पुथल की तरफ लिए जा रहा है। यह स्थिति बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ढ की कगार पर चल रहे हैं।’(भगतसिंह और उनके साथियों के उपलब्ध सम्पूर्ण दस्तावेज, सं- सत्यम, पृष्ठ- 338)

भगतसिंह के लिए देशभक्ति का मतलब था- जनता के लिए शोषणमुक्त समाज बनाने का संकल्प। आज़ादी की लड़ाई में क्रान्तिकारियों की शहादत एक ऐसे मुल्क के सपने के लिए थी जो बराबरी, समानता और शोषण से मुक्त हो। जहाँ नेता और पूँजीपति घपलों घोटालों से देश की जनता को न लूटें।

मगर भाजपा के ‘देशभक्त’ क्या कर रहे हैं? क्या इस देश की जनता को याद नहीं है कि कारगिल के शहीदों के ताबूत तक के घोटाले में इसी भाजपा के तथाकथित देशभक्त फँसे थे। सेना के लिए खरीद में दलाली और रिश्वत लेते हुए भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पकड़े गए थे। मध्यप्रदेश में व्यापम घोटाला और उससे जुड़ी हत्याएं देश की जनता भूली नहीं होगी। भाजपा नेता दिलीप सिंह जूदेव कैमरे पर रिश्वत लेकर यह बोलते हुए पकड़े गए थे कि ‘पैसा खुदा नहीं तो खुदा से कम भी नहीं’। क्या जब देश की जनता महँगाई की मार से परेशान थी तभी मोदी सरकार ने पूँजीपतियों के कर्ज माफी की घोषणाएँ नहीं की? ऐसे हैं ये ‘राष्ट्रवादी’ और यही है संघ और भाजपा की ‘देशभक्ति’।

आज बात-बात पर देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बाँटने वाले संघ-भाजपा गिरोह की असलियत जानने के लिए हमें एक बार स्वतन्त्रता आन्दोलन में इनकी करतूतों के इतिहास पर नजर डाल लेनी चाहिए।

स्वतन्त्रता आन्दोलन से विश्वासघातः

1925 में विजयदशमी के दिन अपनी स्थापना से लेकर 1947 तक संघ ने अंग्रेजों के खिलाफ चूँ तक नहीं किया। जब अंग्रेजों के खिलाफ देश की जनता लड़ रही थी तब संघी लोगों को लाठियाँ भाँजना सिखा रहे थे और वह भी अंग्रेजों के खिलाफ नहीं बल्कि अपने ही देशभाइयों के खिलाफ़। आरएसएस के संस्थापक सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार, दूसरे सरसंघचालक एम- एस- गोलवलकर और हिन्दुत्व के प्रचारक विनायक दामोदर सावरकर ने आजादी की लड़ाई से लगातार अपने को दूर रखा। यही नहीं जब भगतसिंह और उनके साथी अंग्रेज सरकार से यह माँग कर रहे थे कि उन्हें फाँसी नहीं बल्कि गोली से उड़ा दिया जाये तब सावरकर अंग्रेजी हुकूमत को माफ़ीनामे पर माफ़ीनामे लिख रहे थे। जब देश में लाखों लोगों की चेतना में आज़ादी की लड़ाई में शरीक होने का विचार सबसे प्रमुख था, उस समय आरएसएस ने न तो स्वतंत्रता आन्दोलन में भागीदारी की और न ही भागीदारी करने की चाहत रखने वालों को ही प्रोत्साहित किया। संघ के कार्यकर्ता और भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी तो गोरी हुकूमत का विरोध करने वालों की मुखबिरी में शामिल थे। सोचने वाली बात है कि आज इन्हें लोगों को देशभक्ति के प्रमाणपत्र बाँटने का ठेका किसने दे दिया?

आरएसएस की आजादी के संघर्ष से विश्वासघात को समझने के लिए हम एक बार उसी के नेताओं के लेखन और भाषणों को देखें। असहयोग आन्दोलन (1920-21) भारत की आजादी में एक बड़ा आन्दोलन था जिसने एक बार देश की जनता की आजादी की चाह को मुखर अभिव्यक्ति दी लेकिन ‘गुरूजी’ के नाम से जाने जाने वाले सरसंघचालक गोलवलकर इस संघर्ष में शामिल नौजवानों के पक्ष की जगह कानून और व्यवस्था की चिंता जाहिर करते हैं। जैसे कोई अंग्रेज अधिकारी या शासक की चिन्ता हो। वह कहते हैं:

‘संघर्ष के बुरे परिणाम हुआ ही करते हैं। 1920-21 के आन्दोलन (असहयोग आन्दोलन) के बाद लड़कों नें उद्दण्ड होना आरम्भ किया, यह नेताओं पर कीचड़ उछालने का प्रयास नहीं है। परन्तु संघर्ष के बाद उत्पन्न होने वाले ये अनिवार्य परिणाम हैं। बात इतनी ही है कि उन परिणामों को काबू में रखने के लिए हम ठीक व्यवस्था नहीं कर पाये। सन् 1942 के बाद तो कानून का विचार करने की आवश्यकता ही नहीं, ऐसा प्रायः लोग सोचने लगे’। (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4,पृष्ठ 41,भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

गोलवलकर  के अनुसार  ‘संघर्ष के परिणाम बुरे’ ही होते हैं। तो क्या भारतीय जनता आजादी के लिए संघर्ष नहीं करती? अपने ऊपर जुल्म ढाहने वाले कानूनों के प्रति भारतीय नौजवान चुप बैठते? उनका सम्मान करते? अंग्रेजों के कानून और व्यवस्था की चिन्ता करने वाले गोलवलकर कम से कम यही राय रखते हैं। गोलवलकर ने संघ की स्वतन्त्रता आन्दोलन से अलग रहने की नीति पर मुस्तैदी से अमल किया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भी उन्होनें यही रुख अपनायाः

‘1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परंतु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।’ (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

1942 के आन्दोलन के समय गोलवलकर संघ संचालक थे। जब देश की जनता का देशप्रेम, आजादी के संघर्ष में अपना सबकुछ बलिदान करने की तीव्र इच्छा थी। लोग गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद होने के लिए लड़ रहे थे तो संघ ने क्या किया? ‘संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया’। क्योंकि अंग्रेज भक्ति ही उनकी देशभक्ति थी। 9 मार्च 1960 को इंदौर, मध्यप्रदेश में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए गोलवलकर ने कहाः

“नित्यकर्म में सदैव  संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थितियों के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आन्दोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी (हेडगेवार) के पास गये थे। इस ‘शिष्टमंडल’ ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आन्दोलन से स्वातंत्र्य मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डाक्टर जी ने कहा – “जरूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा ?’’ उस सज्जन ने बताया- ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’ तो डाक्टर जी ने कहा, ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।’ घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।’’ (श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 39-40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

दरअसल आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार, गोलवलकर या  ‘हिन्दुत्व’ के प्रचारक इस गिरोह का कोई भी नेता हो उसने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में एक ओर तो खुद भाग नहीं लिया वहीं दूसरी ओर उन्होंने आम भारतीय को भी जो इनके सम्पर्क में था अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि वह अंग्रेजों के खिलाफ स्वतन्त्रता आन्दोलन में शरीक न ही हो। हेडगेवार ने एक बार संघ की तरफ से नहीं परंतु व्यक्तिगत रूप से नमक सत्याग्रह में भाग लिया, लेकिन इसके बाद उन्होंने आजादी के लिए चल रहे किसी संघर्ष में भाग नहीं लिया। गोलवलकर अंग्रेज शासकों को विजेता मानते थे और उनकी दृष्टि में विजेताओं का विरोध न करके उनके साथ अपनापन रखना चाहिए।

“एक बार एक प्रतिष्ठित वृद्ध सज्जन अपनी शाखा में आये। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिए एक नूतन सन्देश लाये थे। उनको शाखा के स्वयं सेवकों के सम्मुख बोलने का अवसर दिया गया तो अत्यन्त ओजस्वी स्वर में वे बोले- ‘अब तो केवल एक काम करो। अंग्रेजों को पकड़ो और मार-मार कर निकाल बाहर करो। इसके पश्चात फिर देखा जायेगा।’ इतना ही कहकर बैठ गए। इस विचारधारा के पीछे है- राज्यसत्ता के प्रति द्वेष तथा क्षोभ की भावना एवं द्वेषमूलक प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति। आज की राजनैतिक भावविपन्नता का यही दुर्गुण है कि उसका आधार है प्रतिक्रिया, द्वेष तथा क्षोभ, और अपनापन छोड़कर विजेताओं का विरोध।” (‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 109-110, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)

गोलवलकर की नजर में, जो कि आरएसएस के ‘दार्शनिक- गुरू’ की तरह माने जाते हैं, ब्रिटिश हुकूमत के प्रति भारतीय जनता के मन में द्वेष रखना ठीक नहीं है!! ये सज्जन न ही उनका विरोध करने को कहते हैं, तो क्या अपने ऊपर जोर-जुल्म करने वाली अंग्रेजी सत्ता से भारत की जनता प्यार करती, उन्हें गले लगाती?

आजादी के संघर्ष के दौरान जब आरएसएस ने लगातार लोगों को आजादी की लड़ाई से दूर रखने और खुद संघर्ष में भाग नहीं लेने का फैसला लिया उसी समय शहीद भगतसिंह और उनके साथी देश के नौजवानों से आजादी के लिए अलख जगाने और क्रान्ति का संदेश देश के हर कोने तक पहुँचाने की अपील कर रहे थे।

हिन्दुत्व के प्रचारक और आरएसएस के करीबी संघ-भाजपा गिरोह के पूज्य सावरकर अंगेजों को माफ़ीनामे पर माफ़ीनामे लिख रहे थे। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जेल से देश के नौजवानों के नाम यह संदेश भेजा जो 19 अक्टूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया जिसकी अध्यक्षता नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कर रहे थे। उन्होंने नौजवानों से अपील कीः

“नौजवानों को क्रान्ति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फैक्ट्री कारखानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।”  (‘भगतसिंह और उनके साथियों के उपलब्ध सम्पूर्ण दस्तावेज’, सं- सत्यम, पृष्ठ- 359)

आज यही संघ-भाजपा गिरोह एक ओर लोगों को देशप्रेम का प्रमाणपत्र दे रहा है वहीं दूसरी ओर देश के सच्चे शहीदों के विचारों को जनता से दूर रखने की कोशिश कर रहा है और खुद को सबसे बड़ा ‘राष्ट्रवादी’ बता रहा है। देश की आम जनता इतनी मूढ़ नहीं है। देश के नौजवान इस संघ द्वारा बोले जाने वाले इस झूठ पर कभी भी यकीन नहीं करेंगे।

आजादी के शहीदों का अपमानः

आज देशभर में गाल बजाते हुए टी.वी. चौनलों पर उन्मादी बात करना, सभाओं में भड़काऊ भाषण देना आरएसएस और भाजपा का सबसे प्रिय काम हो गया है। देश की आम जनता की शिक्षा, चिकित्सा, आवास और महँगाई जैसे मुद्दों को छोड़, न जाने ये किस विकास का तोता रटन्त लगाते रहते हैं। आज ये शहीद भगतसिंह का शहीदी दिवस और जन्मदिन तो मनाते हैं ताकि जनता की आँखों में धूल झोंक सकें। लेकिन क्या कभी सचमुच इन्होंने शहीदों का सम्मान किया है? क्या जब तमाम क्रान्तिकारी जेलों की कोठरियों में कोड़े खा रहे थे, देश की आजादी के लिए फाँसी का फन्दा चूम रहे थे, तो संघी बात बहादुरों ने एक बार भी उनका सम्मान किया, एक बार भी उनका साथ दिया? इसका स्पष्ट उत्तर है, नहीं! संघ का पूरा संगठन और सोच झूठ और कुत्साप्रचार का पुलिन्दा है। भगतसिंह, राजगुरू, अशफाक उल्ला, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की जो शहादत आज भी देश के हर एक इंसान के लिए देशभक्ति का एक आदर्श है, देखिये गोलवलकर उसके बारे में क्या कहते हैं:

‘हमारी भारतीय संस्कृति को छोड़कर अन्य सब संस्कृतियों नें ऐसे बलिदान की उपासना की है तथा उसे आदर्श माना है और ऐसे सब बलिदानियों को राष्ट्रनायक के रूप में स्वीकार किया है परन्तु हमने भारतीय परम्परा में इस प्रकार के बलिदान को सर्वोच्च आदर्श नहीं माना है।’ (गोलवलकर, ‘विचार नवनीत’, पृष्ठ- 280-281)

जिन शहीदों के बलिदान को अपने दिल में देश का हर बच्चा रखता हो उसे कमतर बताकर गोलवलकर किस भारतीय संस्कृति की बात कर रहे हैं। दरअसल आरएसएस और उसके नेताओं की संस्कृति है कट्टरता और नफरत फैलाना, लोगों को हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बाँटना, नहीं तो जो क्रान्तिकारी जनता के दिलों को अन्याय से लड़ने के लिए प्रेरित करते हों उनके बारे में ऐसा सोचना क्या दिखाता है। गोलवलकर ने जहाँ अंग्रेज शासकों को ‘विजेता’ कहकर सम्मान से देखने की बात की वहीं उन्होंने क्रान्तिकारी शहीदों को असफल व्यक्तियों के रूप में देखा और उनके बलिदानों को महान नहीं कहा। शहादत की पूरी परम्परा की निन्दा करते हुए वे कहते हैं:

‘निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आपको बलिदान कर देते हैं, श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकाँक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि वे अन्ततः अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गम्भीर त्रुटि थी।’(एम. एस.  गोलवलकर, विचार नवनीत, जयपुर, 1988, पृष्ठ- 281)

गोलवलकर के लिए महान आदर्श है सावरकर जैसे लोग, जो अंग्रेजों के खिलाफ माफीनामा लिखते हैं और जनता में हिन्दू साम्प्रदायिकता का जहर घोलते हैं। जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोग लड़ रहे थे तो सरकार लोगों को पकड़कर जेल में डाल देती थी। गोलियों से भून देती थी, फाँसी पर चढ़ा देती थी। उस समय अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लड़ना साहस और जोखिम का काम निःसन्देह था। और जिनके दिलों में देश के लिए प्यार था उन्होंने जीवन का जोखिम  उठाया। लेकिन इन सब के प्रति आरएसएस तिरस्कार भाव रखता है। जेल जाना उसके लिए ठीक नहीं था और उस समय वह लोगों को लम्बा जीवन जीने का उपदेश दे रहा था। हेडगेवार की जीवनी के अनुसारः

‘देशभक्ति का मतलब केवल जेल जाना नहीं है। इस तरह की दिखावटी देशभक्ति में बह जाना सही नहीं है।  वे (हेडगेवार) अक्सर यह अपील किया करते थे कि वक्त आने पर देश के लिए मरने के लिए हमेशा तैयार रहने के साथ साथ देश की आजादी के लिए संगठन बनाते हुए जिन्दा रहने की इच्छा भी बहुत जरूरी है’ (सी. पी. भिजकर, ‘संघ वृक्ष का बीजः डॉ. केशव राव हेडगेवार’, पृष्ठ-21, सुरुचि, दिल्ली, 1994)

और हेडगेवार तथा गोलवलकर का मतलब जिस संगठन से था वह था संघ जिसने आजादी की लड़ाई में भागीदारी से दूर रहते हुए जिन्दा रहने और माफ़ीनामे लिखने में अपनी भूमिका निभायी।

माफ़ीनामे और मुखबिरी का इतिहासः

आजादी के पूरे आन्दोलन में संघ के लोगों का इतिहास अंग्रेजों को माफीनामें देने और क्रान्तिकारियों की मुखबिरी करने का रहा है। जब आजादी के समय तमाम लोग अपनी जान की बाजी लगाकर लड़ रहे थे तब अंग्रेजों के मार से घबराये सावरकर (जिसको संघ वीर सावरकर कहता है!!?) अण्डमान की जेल से माफ़ीनामे पर माफ़ीनामे लिख रहे थे। जेल में रहते हुए सावरकर ने एक नहीं चार-चार माफ़ीनामे  लिखे। अण्डमान जेल में आने के बाद 30 अगस्त 1911 को सावरकर ने अपनी पहली दया याचिका लिखी जिसे खारिज कर दिया गया। सावरकर ने अपना दूसरा माफीनामा 14 नवंबर 1913 को लिखा। गवर्नर जनरल काउंसिल के गृह सदस्य को लिखे अपने माफीनामें में भारत की आजादी के आन्दोलन के  सम्मान की तनिक भी परवाह न करते हुए अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए वे ब्रिटिश हुकूमत के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। उन्होने कहा किः

‘यद्यपि जेल में मेरा व्यवहार हर समय असाधारण रूप से अच्छा था इसके बावजूद छह महीने के बाद भी मुझे जेल से बाहर नहीं भेजा गया जबकि अन्य अपराधियों को भेजा गया। जेल में आने के दिन से आज तक मैंने अपने व्यवहार को जितना सम्भव हो अच्छा बनाने का प्रयास किया… मैं सरकार की किसी भी तरह की क्षमता (ब्रिटिश सरकार) में सेवा करने के लिए तैयार हूँ जैसा भी वह चाहे। मेंरे व्यवहार में ईमानदारी पूर्ण परिवर्तन हुआ है और मुझे आशा है की भविष्य में ऐसा ही होगा… मुझे आशा है कि  सम्माननीय महोदय इन बातों को ध्यान में रखेंगे’

इसके बाद सावरकर ने 1917 में एक और माफीनामा भेजा था। 30 मार्च 1920 को सावरकर ने चौथा माफीनामा भेजा था जिसमें उसने कहा किः

‘‘…न तो मुझे और न ही मेरे परिवार के किसी सदस्य को सरकार से कोई शिकायत है… साथ ही मेरे परिवार के किसी सदस्य पर 1909 से अब तक कोई अभियोग ही चला है …’’

साथ ही सावरकर ने अपनी गतिविधियों को जिनके कारण उन्हें जेल भेजा गया था अतीत की बात कहा और पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार के कानून और संविधान के प्रति आस्था व्यक्त की। उन्होंने  कहा किः

‘मेरा दृढ़ता से संविधान के साथ ही बने रहने का इरादा है जिसकी मांटेग्यु द्वारा जल्दी ही शुरूआत की गई है।’

सावरकर ने यहाँ तक कहा किः

‘‘अगर सरकार हमारी तरफ से कोई वायदा चाहती है तो मैं और मेरा भाई सरकार द्वारा तय किए गए किसी भी निश्चित और उचित समय तक किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने के लिए प्रसन्नता से अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं।’

यह हैं संघ-भाजपा के वीर सावरकर जिन्होंने अपनी जिंदगी को बचाने के लिए किसी भी तरह के ब्रिटिश सत्ता विरोध में भाग लेने से मना कर दिया था।

अटल विहारी बाजपेयी ने जो संघ के कार्यकर्ता और भारत के प्रधानमंत्री थे एक बार कहा था कि उन्होंने सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भाग लिया था। लेकिन किस तरह से भाग लिया था, उस आन्दोलन में उनकी भूमिका क्या थी? इस पर वह कुछ नहीं बोले। दरअसल 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उनकी भूमिका एक मुखबिर की थी।

दरअसल अगस्त 1942 में भुजरिया के मेले में (उत्तर प्रदेश) एक बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए थे और वहाँ कुछ नौजवानों द्वारा पुराने नायकों के गीत गाये गए और बटेश्वर वन विभाग के कार्यालय को ब्रिटिश सत्ता से मुक्त कराने का आह्वान किया गया था। यहाँ से मार्च करते हुए भीड़ ने बटेश्वर जाकर कार्यालय पर हमला कर दिया और तिरंगा फहराया दिया। इस जुलूस में अटल बिहारी वाजपेयी और उनके भाई प्रेम बिहारी भी शामिल थे। बटेश्वर की घटना के बाद कई अन्य लोगों के साथ अटल बिहारी को गिरफ़्तार किया गया कोर्ट में अटल विहारी बाजपेयी नें घटना में शामिल कई लोगों के नाम बताए थे जो कि वह छिपा सकते थे। उन्होंने अपनी गवाही में कहा कि-

 “27 अगस्त 1942 को बटुकेश्वर बाज़ार में लगभग 2 बजे दिन में पुराने नायकों के गीत गाये गए। ककुआ उर्फ़ लीलाधर (Kakua alias Liladhar ) और महुअन (Mahuan) द्वारा गीत गाया गया और भाषण दिया गया और इन्होने लोगों को वन कानून (forest laws) तोड़ने के लिए उकसाया।”

अटल बिहारी द्वारा यह आजादी की लड़ाई में उन दो लोगों के खिलाफ दिया गया बयान था जो लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए कह रहे थे। स्पष्ट है कि आरएसएस जिस देशभक्ति का दम भरती है इतिहास के तथ्य इस सबके विपरीत उसे आजादी की लड़ाई की गद्दार घोषित करते हैं।

सावरकर के माफ़ीनामे से…

“यद्यपि जेल में मेरा व्यवहार हर समय असाधारण रूप से अच्छा था इसके बावजूद छह महीने के बाद भी मुझे जेल से बाहर नहीं भेजा गया जबकि अन्य अपराधियों को भेजा गया। जेल में आने के दिन से आज तक मैंने अपने व्यवहार को जितना सम्भव हो अच्छा बनाने का प्रयास किया… मैं सरकार की किसी भी तरह की क्षमता (ब्रिटिश सरकार) में सेवा करने के लिए तैयार हूँ जैसा भी वह चाहे। मेंरे व्यवहार में ईमानदारी पूर्ण परिवर्तन हुआ है और मुझे आशा है कि भविष्य में ऐसा ही होगा… मुझे आशा है कि  सम्माननीय महोदय इन बातों को ध्यान में रखेंगें”

 30 मार्च 1920 को सावरकर ने चौथा माफीनामा भेजा था जिसमें उसने कहा किः

‘‘…न तो मुझे और न ही मेरे परिवार के किसी सदस्य को सरकार से कोई शिकायत है… साथ ही मेरे परिवार के किसी सदस्य पर 1909 से अब तक कोई अभियोग ही चला है…’’

सावरकर ने पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार के कानून और संविधान के प्रति आस्था व्यक्त की। उन्होंने  कहा किः

“मेरा दृढ़ता से संविधान के साथ ही बने रहने का इरादा है जिसकी मांटेग्यु द्वारा जल्दी ही शुरूआत की गई है।”

सावरकर ने यहाँ तक कहा किः

‘‘अगर सरकार हमारी तरफ से कोई वायदा चाहती है तो मैं और मेरा भाई सरकार द्वारा तय किए गए किसी भी निश्चित और उचित समय तक किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने के लिए प्रसन्नता से अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं।”

2- आरएसएस के ‘‘देशप्रेम’’ का सच

जिस बात को एक आम भारतीय समझता है उससे संघ इनकार करता है। आज एक आम आदमी से आप पूछिए कि इस देश में हिन्दू- मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, के नाम पर बाँटना क्या ठीक है? तो उसका उत्तर होगा कि लोगों का आपसी भाईचारे से रहना ही इन झगड़ों का विकल्प है, कुछ लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए ये दंगे भड़काते हैं, जनता को बाँटते है। जब आजादी के समय से लेकर आज तक ‘हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई सब आपस में भाई-भाई’ की बात सबको जँचती है। जब क्रान्तिकारी शहीदों ने आजादी के समय लोगों को साम्प्रदायिकता के खतरे से आगाह करते हुए लोगों को मिलकर आजादी की लड़ाई के लिए संघर्ष करने की अपील की तो उस समय संघ अपनी कट्टर हिन्दू साम्प्रदायिक नीति का प्रचार कर रहा था, और आज भी कर रहा है। संघ के लिए देश का मतलब कट्टर हिन्दू साम्प्रदायिक लोगों का देश है और इसके दायरे में अन्य धर्मों को मानने वाले तो दूर स्वयं व्यापक आम हिन्दू आबादी भी नहीं है। आदिवासी और दलित आबादी, महिलाएँ भी संघ के कट्टर हिन्दू राष्ट्र की नीति में कहीं नहीं हैं। क्योंकि संघ के लिए जो ‘मनुस्मृति’ सबसे बेहतर संविधान है उसमें दलितों और महिलाओं की स्थिति गुलाम की स्थिति से अधिक कुछ नहीं है।

भारत में राष्ट्र की अवधारणा औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के लिए उसके संघर्ष करने के दौरान विकसित हुई है। सामान्य आदमी भी जानता है कि पहले भारत में राजे रजवाड़े और अलग- अलग रियासतें थीं- प्राचीन भारत में भी जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग थे। हिन्दू धर्म में भी अनेकों सम्प्रदाय थे और हैं जो अलग अलग मूल्यों को मानते थे और आज भी मानते हैं। कोई एकाश्मी मानकीकृत संस्कृति के बजाय विभिन्न संस्कृतियाँ प्राचीन काल से अब तक बनी और चली आ रही हैं। लेकिन संघ अपनी झूठी और गढ़ी हुई राष्ट्र की परिभाषा में नंगी आँखों से दिखने वाली समाज की भौतिक सच्चाई को नकारते हुए एक ‘हिन्दू राष्ट्र’ की बात करता है जो ऐतिहासिक सच्चाइयों से न सिर्फ दूर है बल्कि पूरे मुल्क को बाँटने, टुकड़े-टुकड़े करने और दंगों की आग में झोंककर आज पूँजीपतियों की सेवा पर आमादा है।

आरएसएस का कौन सा राष्ट्र?

भारत के बारे में गोलवलकर शहीदों के विचारों के विपरीत जाते हुए एक अलग ही राग अलापते हैं। वही साम्प्रदायिक सोच, अलगाव पैदा करने की सोच उनकी राष्ट्र की परिभाषा में भी दिखाई देती है। वे कहते हैं:

“इस प्रकार अपनी वर्तमान स्थितियों में राष्ट्र की आधुनिक समझ लागू करते हुए जो अप्रश्नेय निष्कर्ष हमारे सामने आता है वह यह है कि इस देश, हिन्दुस्थान में हिन्दू नस्ल अपने हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू भाषा (संस्कृति का स्वाभाविक परिवार और उसकी व्युत्पत्तियाँ) से राष्ट्रीय अवधारणा को परिपूर्ण करती हैं।” (गोलवलकर, ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाईन्ड’ भारत पब्लिकेशन नागपुर, 1939 के हिन्दी अनुवाद ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ पृष्ठ-148)

इसी तरह हिन्दू महासभा के 19वें अधिवेशन (सन् 1937, अहमदाबाद) में सावरकर ने अपने भाषण में कहाः

“फिलहाल हिन्दुस्तान में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं… हिन्दुस्तान में मुख्य तौर पर दो राष्ट्र हैं- हिन्दू और मुसलमान” (समग्र सावरकर वांग्मय, पूना, 1963, पृष्ठ- 296)

भारत विभाजन के लिए गाँधी और मुस्लिम लीग को गाली देने वाला आरएसएस स्वयं मुस्लिम लीग की तरह कैसे धर्म के आधार पर भारत को बाँटने का पक्षधर था इससे साफ प्रकट होता है।

संघ जब पूरे देश में धर्म के नाम पर बाँटने की अपनी घृणित राजनीति कर रहा था तो शहीद भगतसिंह और उनके साथियों ने देश की आजादी के लिए जनता को एकजुट होने और साम्प्रदायिक झगड़ों से निपटने का यह रास्ता सुझाया। साम्प्रदायिक दंगों पर सन् 1938 में ‘किरती’ में उनका लेख छपा। उन्होंने लिखाः

“लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हे इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो।”

 शहीद भगतसिंह जहाँ धर्म, जाति और रंग के झगड़े मिटाकर दुनियाभर के मेहनतकश लोगों को एक होने की अपील कर रहे हैं वहीं आरएसएस व हिन्दू महासभा लोगों को धर्म के नाम पर बाँट रहें हैं। आज उसी नीति पर चलते हुए भाजपा के प्रधानमन्त्री मोदी दुनियाभर के पूँजीपतियों और देशी पूँजीपतियों की सेवा में लगे हैं तो संघ लोगों को बाँटने की और दंगे कराने की नीति पर मुस्तैद हो गया है। हमें तय करना ही होगा कि हमें भगतसिंह की बातों को मानना है या संघ की।

स्वदेशी आरएसएस की विदेशी जड़ें

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ झूठ के प्रचार में हिटलर के प्रचारमंत्री गोयबल्स की तरह ही यह चाहता है कि एक झूठ को सौ बार बोलो और लोग उसे सच मान लेंगें। लोगों का जीवन महँगाई से मुश्किल है तो लोगों के कानों में विकास का भोंपू बजाओ। लोगों को अगर रोजगार न दे पाओ तो लोगों को ‘स्किल इण्डिया’ के राग सुनाओ। विदेश से पूँजी लाओ, पूँजीपतियों के लिए मजदूर कानूनों की धज्जियाँ उड़ाओ तो लोगों को ‘स्वदेशी’ की धुन सुनाओ। दंगे करवाओ, हिन्दू मुस्लिम को बाँटो तो लोगों के सामने शांति के पथ का नाटक करो। दलितों पर अत्याचार करो और आपसी भाईचारे व समरसता की बात करो। महिलाओं पर अत्याचार करो और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का जाप करो।

“स्वदेश” (इसे कट्टर हिन्दू देश पढ़ें) और “राष्ट्रप्रेम” की जुगाली करने वाले संघ की पैदाइश के समय से ही इसके आदर्श मुसोलिनी और हिटलर रहे हैं जो मानवता के शत्रु और द्वितीय विश्वयुद्ध में लाखों लोगों के कत्लेआम के जिम्मेदार थे। बी.एस. मुंजे आरएसएस से दृढ़ सम्बन्ध रखने वाला और हेडगेवार का परामर्शदाता था। आरएसएस को मजबूत करने और देशभर में फैलाने में उसकी भूमिका रही। 1931 में गोलमेज सम्मलेन से लौटने के बाद उसने यूरोप भ्रमण किया और इटली की यात्रा  की। वहाँ उसने कुछ महत्वपूर्ण सैनिक स्कूलों और शैक्षिक संस्थानों को भी देखा- फासीवादी संगठनों से वह प्रभावित हुआ उसने लिखाः

“पूरे संगठन की अवधारणा और बलिला संस्थाओं ने मुझे आकर्षित किया… इटली के सैनिक पुनरुत्थान के लिए यह समूचा विचार मुसोलिनी की देन है।… फासीवाद का विचार स्पष्टतः जनता के बीच एकता की अवधारणा लाता है… भारत को और विशेषकर हिन्दू भारत को हिन्दुओं के सैनिक पुनरुत्थान के लिए ऐसे ही किसी संगठन की जरूरत है… डॉ. हेडगेवार के तहत नागपुर की हमारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संस्था इसी प्रकार की है, हालाँकि उसकी कल्पना स्वतन्त्र रूप से की गयी है। मैं अपना शेष जीवन डॉ. हेडगेवार की इस संस्था के विकास और इसे पूरे महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में फैलाने में लगाऊँगा।” (मारिया कासोलारी- हिन्दू राष्ट्रवाद की विदेशी जड़ें -नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एम एम एम एल), मुंजे पेपर्स, माइक्रोफिल्म एम1)

आगे मुंजे ने मुसोलिनी के बारे में लिखा-

“डॉ. मुंजेः महामहिम, मैं बहुत प्रभावित हूँ।” (नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एम एम एम एल), मुंजे पेपर्स, माइक्रोफिल्म एम1)

भारत वापस आने पर मुंजे नें ‘द मराठा’ को साक्षात्कार में कहा

“वास्तव में, नेताओं को जर्मनी के युवक आन्दोलन और इटली के बलिला और फासीवादी संगठनों का अनुसरण करना चाहिए- मैं सोचता हूँ कि विशेष परिस्थितियों को अनुकूल बनाकर भारत में लागू किए जाने के लिए वे बहुत उपयुक्त हैं।” (‘द मराठा’, 12अप्रैल, 1931)

पूरी दुनिया जानती है कि जर्मनी के हिटलर और इटली के मुसोलिनी ने किस तरह से इन्हीं संगठनो का इस्तेमाल कर अपने देशों में कत्लेआम करवाया था। भारत में 1933 में खुफिया विभाग ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें कहा गया कि

 “इस बात पर जोर देना शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भविष्य में भारत में संघ वही होना चाहता है जो इटली में ‘फासीवाद’ और जर्मनी में ‘नाजीवाद’ है।” (एन.ए.आई., होम पोल डिपार्टमेंट, 88/33,1933)

सावरकर 1937 में अपनी रिहाई के बाद हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने। 1 अगस्त 1938 को पुणे में एक सभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहाः

“भारतीय विदेशनीति ‘वादों’ पर आधारित नहीं होनी चाहिए। नाजीवाद का सहारा लेने का जर्मनी को पूरा अधिकार है और इटली को फासीवाद का; और घटनाओं ने इसका औचित्य सिद्ध कर दिया है कि ये वाद और सरकारों के एक रूप, वहाँ उत्पन्न हुई परिस्थितियों के तहत अनिवार्य थे और फायदेमंद भी।”(नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी (एम एम एम एल), सावरकर पेपर्स, माइक्रोफिल्म,आर एन 23, पार्ट 2)

24 अक्टूबर 1938 को सावरकर ने एक भाषण में कहा:

“एक राष्ट्र उसके बहुसंख्यक निवासियों द्वारा बनाया जाता है। जर्मनी में यहूदियों ने क्या किया? अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें जर्मनी से निकाल दिया गया” (एम.एस.ए. होम स्पेशल डिपार्टमेंट, 60 डी, (जी) पार्ट 3, 1938, ट्रांसलेशन आफ द वरबेटिम स्पीच मेड बाई वी डी सावरकर एट मालेगाँव ऑन अक्टूबर 14, 1938)

संघ के देश में केवल वही रह सकता है जो कट्टर संघ-भाजपा की हिन्दू विचारधारा में हाँ में हाँ मिलाये अन्यथा संघ के विचारक यह स्पष्ट राय रखते हैं कि अल्पसंख्यक चाहे वह मुस्लिम हो या जैन, बौद्ध या सिक्ख कोई हो उसके साथ वैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए जैसा जर्मनी में यहूदियों के साथ हिटलर ने किया- संघ का यह मुसोलिनी और हिटलर प्रेम जग जाहिर है। भारत का हर एक सचेत नागरिक क्या भारत को हिटलर के समय का जर्मनी बनाने देगा?

गोलवलकर जो संघ के दार्शनिक(?) की पदवी से जाने, नवाजे जाते हैं और गुरूजी के नाम से प्रसिद्ध हैं, ने भी मुंजे और सावरकर की तरह ही इटली और जर्मनी को ही आदर्श माना भारत में उनकी “नस्लीय” (?) चेतना के आदर्श मुसोलिनी और हिटलर ही हैं।

“इटली को देखिये। इतने लंबे समय से सोई हुई प्राचीन रोमन जाति की भूमध्यसागर के आस पास के सारे भू-भाग को जीतने वाली चेतना अब जाग गयी है और उसने उसी के अनुसार अपनी नस्लीय-राष्ट्रीय आकांक्षाओ को ढाल लिया है। वह प्राचीन नस्लीय चेतना जिसने जर्मनी के कबीलों को पूरे यूरोप को जीत लेने को उकसाया था, आधुनिक जर्मनी में अब फिर से जाग गई है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि राष्ट्र अपने लुटेरे पूर्वजों से विरासत में मिली परम्पराओं से प्रभावित आकांक्षाओं का अनुसरण करने के लिए बाध्य है।” (गोलवलकर, ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाईन्ड’ भारत पब्लिकेशन नागपुर, 1939 के हिन्दी अनुवाद ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ पृष्ठ -140)

हिटलर ने यहूदियों का कत्लेआम करवाया था जो मानवता के इतिहास में सबसे घृणित कहा जाता है लेकिन गोलवलकर उसी हिटलर के पद चिन्हों पर चलने की बात करते है। वह कहते हैं:

“जर्मन नस्ल का गर्व आज चर्चा का विषय बन गया है। नस्ल तथा उसकी संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए, देश के सामी नस्लों-यहूदियों- से स्वच्छ करके जर्मनी ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। यहाँ नस्ल का गौरव अपने सर्वोच्च रूप में अभिव्यक्त हुआ है।… यह हिंदुस्तान में हमारे लिए एक अच्छा सबक है कि सीखें और लाभान्वित हों।” (वही पृष्ठ-142)

‘स्वदेश’, प्राचीन संस्कृति का राग अलापते हुए संघ अपनी विचार ऊर्जा मुसोलिनी और हिटलर से लेता है इसके वास्तविक गुरू वही हैं। यह महज भारतीयता की दुहाई देता है इसे इस देश की संस्कृति और सभ्यता के बारे में कुछ भी पता नहीं है और न ही इसे वर्तमान में लुट रही भारतीय जनता के जीवन से कोई सरोकार है। भाजपा जब से शासन में आई है महँगाई और बढ़ गयी है देश की आबादी का 33 प्रतिशत हिस्सा अब तक के भयंकर सूखे से जूझ रहा है लोग गंदे पानी को भी पी रहे हैं और अपना घर-बार छोड़कर दूसरी जगहों पर जाने को मजबूर हैं – देश के अन्दर जल संकट की वजह से विस्थापन अभूतपूर्व स्तर पर है परन्तु संघ- भाजपा लोगों को झूठे विकास के गीत सुना रही है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनियाभर के पूँजीपतियों को न्योता दे रहे हैं कि आओ और देश के जनता की हड्डियों को निचोड़कर अपनी तिजोरियाँ भरो।

3- आरएसएस का भारत के संविधान के बारे में नज़रिया

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा के नेता आज जनता के बीच फूट डालने और उन्माद फैलाने के लिए भारतीय संविधान को भी खूब जप रहे हैं। उनके प्रवक्ता संबित पात्रा टी वी चैनलों पर संविधान की रट लगाते हैं, संविधान के अनुसार गठित सुप्रीम कोर्ट की दुहाई देते हैं परन्तु सच तो यह है कि आरएसएस को भारत के संविधान से नफरत है और वह इसकी तनिक भी इज्जत नहीं करता। यह नहीं कि संघ संविधान से अपनी असहमतियाँ तार्किक आधार पर रखता है; क्योंकि तर्क से तो संघ का छत्तीस का आँकड़ा है! अतार्किकता पर ही उसने नफरत का धन्धा खड़ा किया है। संघ के संविधान विरोध का आधार वही उसका झूठा प्राचीनता का बहाना है जिसमें उसको सब कुछ अच्छा दिखाई देता है। जिससे संघ के लिए भारतीय समाज एक स्थिर और अपरिवर्तनीय समाज बन जाता है जिसके प्राचीन काल में ‘स्वर्ण युग’ था ऐसा वह सोचता है- जबकि ऐतिहासिक सत्यता इस बात को कहीं भी प्रमाणित नहीं करती। जब से संविधान बना तब से उसके(आरएसएस) प्रमुख नेताओं ने उसके विरोध में ही बात कही। जहाँ जनता में संघ द्वारा अतार्किक रूप से संविधान को अप्रश्नेय, और पवित्र-पूज्य बनाने की मनोवृत्ति का प्रचार किया जाता है वहीं इनके मन में एक तानाशाही पूर्ण व्यवस्था का सपना है जहाँ जनवाद और आधुनिक मूल्यों व समानता जैसे विचार हों ही नहीं। वैसे तो भारतीय संविधान के बनने की प्रक्रिया में ही जनवाद का पालन नहीं किया गया। 11.5 प्रतिशत मताधिकार के आधार पर गठित कमेटी के द्वारा 1935 के गर्वर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट को काट-छाँट कर इसे बनाया गया। आज़ाद भारत में वयस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा बुलाने का वायदा आज तक पूरा नहीं हुआ। एक ओर जहाँ भारतीय संविधान जनता को कुछ जनवादी अधिकार देने के प्रावधान रखता है वहीं दूसरे हाथ से इसे छीन लेने के अधिकार भी इसमें दिए गए हैं। भारत में इमरजेंसी भी संविधान सम्मत ही लगी थी। यह संविधान सम्पत्ति की सुरक्षा मुहैया करता है और पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली और श्रम के शोषण की लूट इसी संविधान के ढाँचे में अविराम जारी है। निजी सम्पत्ति का यह रक्षक संविधान तमाम विचित्रताओं और अंतरविरोधपूर्ण वक्तव्यों से भरा पड़ा है और भारतीय मेहनतकश जनता के हितों को देखते हुए यह अपर्याप्त है। लेकिन आरएसएस इससे बेहतर विकल्प सुझाने की जगह पूरे इतिहास चक्र को पीछे ले जाना चाहता है।

गोलवलकर ने 1949 के अपने एक भाषण में कहाः

“संविधान बनाते समय अपने ‘स्वत्व’ को, अपने हिंदूपन को विस्मृत कर दिया गया- उस कारण एक सूत्रता की वृत्तीर्ण रहने से देश में विच्छेद उत्पन्न करने वाला संविधान बनाया गया। हममें एकता का निर्माण करने वाली भावना कौन सी है, इसकी जानकारी न होने से ही यह संविधान एक तत्व का पोषक नहीं बन सका… एक देश, एक राष्ट्र तथा एक ही राज्य की एकात्मक शासन रचना स्वीकार करनी होगी… एक ही संसद हो, एक ही मंत्रिमण्डल हो, जो देश की शासन सुविधा के अनुकूल विभागों में व्यवस्था कर सके।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-2, पृष्ठ 144)

यहाँ गोलवलकर संविधान को कोसते हैं। उनको वह संविधान पसन्द है जो ‘मनुस्मृति’ में है। उन्हें इस बात से आपत्ति है कि भारत में अलग-अलग राज्य क्यों हैं? गोलवलकर ने 1940 में चेन्नई में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा:

“एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने कोने में प्रज्वलित कर रहा है।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-1, पृष्ठ 11)

एक नेता का गोलवलकर का सिद्धांत जनवाद का विरोधी है और हिटलरी तानाशाही को मानता है। अन्यथा आज एक सामान्य आदमी भी जानता है कि एक व्यक्ति की तानाशाही से अधिक अच्छा है कि लोग मिलकर फैसला लें। एक चालक अनुवर्त्तिता के मानक को मानने वाले संघ में जहाँ संघ प्रमुख का चुनाव किसी मतदान से नहीं बल्कि उत्तराधिकार के नियम के तहत पिछला सरसंघचालक तय करता है, संघ की यही मनसा है कि भारत को एक हिंदुत्ववादी तानाशाही राज्य बनाया जाय। संघ में तर्क की जगह भक्ति और जनमत की जगह एक तानाशाह नेता की शिक्षा दी जाती है। संघ में प्रतिज्ञा करवाई जाती है किः

“सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपने पवित्र हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू समाज का संरक्षण कर हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ। संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, निःस्वार्थ बुद्धि से तथा तन, मन, धन पूर्वक करूँगा। भारत माता की जय”  (आर एस एस, शाखा दर्शिका, ज्ञानगंगा जयपुर, 1997, पृष्ठ- 1)

यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आरएसएस के सदस्य रहे नरेन्द्र मोदी तक जब यही प्रतिज्ञा लेते हैं तो वे भारतीय संविधान के अनुसार भारत के सभी नागरिकों के साथ एक सामान कैसे रहेंगे, जबकि भारत में अन्य धर्मों के लोग भी रहते हैं। यह सोचने का विषय है कि एक तरफ कोई हिन्दूराष्ट्र बनाने की बात करे और दूसरी तरफ संविधान में हिन्दू मुस्लिम सबका देश की बात में भी हाँ-हाँ करे तो वह कोई सच्चा नहीं बल्कि स्वार्थी अवसरवादी ही होगा।

क्या आरएसएस भारत के संघीय ढाँचे का सम्मान करता है?

भारत के संविधान में संघीय राज्य की कल्पना की गयी है जिसमें विभिन्न राज्यों के एक संघ के रूप में भारत को रखा गया है। कुछ अधिकार राज्यों के दायरे में हैं तथा कुछ अधिकार केंद्र सरकार के दायरे में है। इस संकल्पना के पीछे बहु संस्कृति, भाषा और मान्यताओं के सम्मान और अधिकार की धारणा सैद्धांतिक रूप से काम करती है। परन्तु संघ जिसके गुरु हिटलर और मुसोलिनी हैं को तानाशाही और एक शासक का विचार ही मान्य है। संघ-भाजपा किस तरह से संघात्मक प्रणाली के विरोधी हैं उनके ही मुँह से जानना बेहतर होगा। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘विचार नवनीत’ में एक शासक अनुवर्त्तिता को लागू करने के किए क्या कहा? उन्होंने कहाः

“इस लक्ष्य की दिशा में सब से महत्व का और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के विधान से सांघिक ढाँचे (फेडरल) की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें, एक राज्य के, अर्थात भारत के अंतर्गत अनेक स्वायत्त अथवा अर्ध स्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधान मण्डल, एक कार्य पालिका घोषित करें। उसमें खंडात्मक, क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के चिन्ह को भी नहीं होना चाहिए इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य को विध्वंस करने का अवकाश नहीं मिलना चाहिए।” (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ -227)

इतना ही नहीं उन्होंने कहा किः

“आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदनुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-3, पृष्ठ 128)

भाषा, क्षेत्र और संस्कृति की अनेकताओं को समाप्त कर संघ हर क्षेत्र में जिस “शुद्धता” की बात करता है वह एक ऐसी “शुद्धता” है जिसमें देश की बहु संस्कृति को फासीवादी, ब्राह्मणवादी, वर्चस्वकारी तानाशाही शुद्धता(?) में बदलना है। नहीं तो इसके सिवा और क्या कारण हो सकता है कि वह तमाम सांस्कृतिक वैविध्यता को मिटा देना चाहता है? वह चाहता है कि जैसे संघ सोचता है वैसे ही लोग सोचें और बोलें- अर्थात संघ लोगों के मस्तिष्क से उनके खुद के विवेक को हटाकर उन्हें मानसिक रूप से अपना गुलाम बनाना चाहता है।

तिरंगे झण्डे पर राजनीति करने वाले संघ-भाजपा के तिरंगा प्रेम का सच?

किसी भी देश का ध्वज ऐतिहासिक रूप से निर्धारित होता है। जनता अपने संघर्षों के दौरान अपने ध्वज का चयन और विकास करती है। ध्वज एक प्रतीक के  रूप में इसके बलिदानों, संघर्षों और लक्ष्यों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी मुल्क में ध्वज उस मुल्क की जनता का प्रतीक तभी बनता है जब उसके साथ जनता का संघर्ष और उसकी आकांक्षाएं विकासमान हों। इस रूप में संघर्षरत जनता अपने ध्वज को बदलती है और पुराने ध्वज जो शासकवर्गों के प्रतीक में बदल गए होते हैं उन्हें हटाती है। संघर्षरत जनता का अपना ध्वज चुनना एक बात है और प्रतीकों की राजनीति करना, इनके आधार पर लोगों को बाँटना दूसरी। यह सच है कि आज़ादी के दौरान तिरंगा स्वीकारा गया लेकिन आने वाले समय में संघर्षरत भारतीय जनता जो मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ़ संघर्ष करती हुई खड़ी होगी, वह अपना ध्वज चुनेगी। लेकिन आरएसएस अलग ही राग अलापता है। यहाँ भी इसकी पश्चगामी प्रवृत्ति ही दिखाई देती है।

दूसरों से बात-बात पर देशप्रेम, संविधान प्रेम और तिरंगा प्रेम का प्रमाण माँगने वाले संघ ने खुद क्या कभी तिरंगे झण्डे को अपनाया? इण्डिया गेट पर योग दिवस पर दिखावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तिरंगे से अपनी नाक और पसीना पोंछते दिखे, अगर यही काम किसी गैर संघी से हो जाता तो भाजपा और संघ उसे ‘देशद्रोही’ बताने में विलम्ब नहीं करते। दरअसल संघ के लिए हर एक भावना, हर एक विचार उनके अपना उल्लू सीधा करने का हथियार है। जब आज़ादी की लड़ाई के दौरान 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया तो आरएसएस के संघचालक डॉ. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी कर तमाम शाखाओं पर भगवा झंडा पूजने का निर्देश दिया। आरएसएस ने अपने अंग्रेजी पत्र आर्गेनाइजर में 14 अगस्त 1947 वाले अंक में लिखाः

“वे लोग जो किस्मत के दाव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आँकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुकसानदेय होगा।”

गोलवलकर ने अपने लेख में कहाः

“कौन कह सकता है कि यह एक शुद्ध तथा स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण है? यह तो केवल एक राजनीति की जोड़ तोड़ थी, केवल राजनीतिक कामचलाऊ तात्कालिक उपाय था। यह किसी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अथवा राष्ट्रीय इतिहास तथा परंपरा पर आधारित किसी सत्य से प्रेरित नहीं था। वही ध्वज आज कुछ छोटे से परिवर्तनों के साथ राज्य ध्वज के रूप में अपना लिया गया है। हमारा एक प्राचीन तथा महान राष्ट्र है, जिसका गौरवशाली इतिहास है। तब, क्या हमारा कोई अपना ध्वज नहीं था? क्या सहस्त्र वर्षों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निःसन्देह, वह था। तब हमारे दिमागों  में यह शून्यतापूर्ण रिक्तता क्यों?” (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ- 237)

दरअसल आरएसएस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण शासक पेशवाओं के भगवा झण्डे को जो उसका खुद का भी झंडा है भारत का राष्ट्रध्वज बनाना चाहता है।

“हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा ध्वज है जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसीलिए इसी परम वंदनीय ध्वज को हमने अपने गुरुस्थान में रखना उचित समझा है। यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इसी ध्वज के समक्ष सारा राष्ट्र नतमस्तक होगा।” (गोलवलकर, ‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’,भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड-1, पृष्ठ 98)

लेकिन यही आरएसएस आज पूरे देश में तिरंगे के नाम पर हिन्दू मुस्लिम कार्ड खेलता है और सबसे बड़ा तिरंगा प्रेमी बनता है। आरएसएस का यह दोमुँहापन दरअसल मुँह में राम बगल में छूरी वाला है जो जनता को बेवकूफ़ बनाकर उनमें आपसी झगड़ा-फसाद कराकर पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरता है। जनता की हर भावना से खेलना एवं स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रतीकों का इस्तेमाल करना इनकी पुरानी आदत है।

क्रान्तिकारी अभिवादन!

फासीवादी संघ के खिलाफ जनता का संघर्ष जिंदाबाद!!

दूसरी किश्‍त में आपको कल मिलेगा -

4. संघ-भाजपा के दलित प्रेम और स्त्री सम्मान का सच
5. आरएसएस की ‘संस्कृति’ का सच
6. विभ्रम का भय फैलाना ही संघ का सच
7. आरएसएस-भाजपा के ‘विकास’ का सच
8. इस विनाश के खिलाफ खड़े हों!
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