Wednesday, January 4, 2017

इट हैपन्स ! दोज़ वैर नॉट यंग्स्टर्स, दे वैर वेस्टनर्स "


"इट हैपन्स ! दोज़ वैर नॉट यंग्स्टर्स, दे वैर वेस्टनर्स "
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बेंगलुरु में महिलाओं के साथ सामूहिक छेड़छाड़ हुई है
 क्यों हुई.....

तो इसका जवाब ये है कि हमारे देश की सिलिकॉन वैली में ये महिलाएं ,

बेझिझक-बेपरवाह होकर घूम रही थीं.
समय क्या था.. आधी रात थी.

 बस, फिर क्या! महिलाएं आधी रात को सड़क पर जश्न मनाएंगी तो और क्या होगा ?

 खूबसूरत होती हैं न! नाज़ुक होती हैं न! तो घर में क्यों नहीं रहतीं ?

डेकोरेटिव शो पीसेज़ नहीं देखे कभी ?
लोग घर में भी कैसे जतन कर के शीशे में कैद कर के रखते हैं.

*

लड़कियां थीं, बेवकूफ़ थीं.
सोच लिया कि बेंगलुरु आधुनिक है,
सिलिकॉन वैली है न! लगा कि वो भी घूम सकती हैं.

 सोचा होगा कि उन सड़कों का टैक्स वो भी तो देती हैं, उतना ही जितना पुरुष देते हैं.

तय किया होगा कि नये साल का उन्हें भी उसी तरह स्वागत करना है जैसे लड़के करते हैं.

मन किया होगा कि वो भी हूटिंग करें, नाचे-गायें जैसे लड़के करते हैं.

 आखिर उनका मन भी तो उतना ही बावरा है न जितना कि बाकी दुनिया का!

तो इसलिए एमजी रोड और ब्रिगेड रोड पर छुट्टा घूम रही थीं।
*

पर छुट्टे तो सांड होते हैं,
लड़कियां कब से ऐसी खुली घूमने लगीं.
 ये हमारी संस्कृति नहीं है.

दरअसल ये क्रिसमस और न्यू इयर हमारा है ही नहीं.

 होगा बावरा मन, पर होना नहीं चाहिए.
किसी का कुछ गया क्या?

 भुगतना लड़कियों को ही पड़ता है.
बड़े कायदे से समझाया जी..

 परमेश्वर जी ने
"इट हैपन्स। दोज़ वैर नॉट यंग्स्टर्स, दे वैर वेस्टनर्स"
 (ऐसा हो जाता है। वो युवा नहीं थे, वो पश्चिमी थे).


 मंत्री जी ने स्पष्ट कहा है कि
 "इट हैपन्स",
 फिर समस्या कहां है ?

 ये कहते वक्त मंत्री जी इतने संतुष्ट थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं "

 उस वक्त धरती पर उनसे अधिक स्थिरबुद्धि मनुष्य ढूंढने पर भी नहीं मिलता।
**

"इट हैपन्स" में ही संसार का सारा सुख है.
 हर तृष्णा की तृप्ति है.

 इससे सरल और सटीक जवाब हो ही नहीं सकता.
ये कर्नाटक के गृहमंत्री के शब्द हैं.

उनके ये शब्द उनकी शालीनता के परिचायक माने जाने चाहिए.

 जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को कोई क्या दोष दे.

मंत्री जी ने बताया कि वो वेस्टनर्स थे, तो अब उनकी सुरक्षा की क्या बात करनी है ?

 जो रात में सड़क पर घूमेगा उसके साथ कुछ भी होना कितना लाज़िमी है,
ये मंत्री जी के आश्वस्त सुर से समझ आ गया.

**

साहब, हम आपकी बात से पूर्णतः सहमत हैं .
 असहमति का न तो विकल्प है .
और न ही लाभ.

एक कृपा और करें,
 ये सड़कें जो रात में सड़कें नहीं रहतीं,
वो रास्ते जहां खुले आसमान के नीचे लड़कियां दबोच ली जाती हैं;

वहां डेंजर का साइन बोर्ड लगवा दें.
बोर्ड पर खतरे का सूचक कंकाल बना हो और वह संड़कों पर लगा दिया जाए !

तो बच्ची से लेकर बूढ़ी महिला और पढ़ी-लिखी से निरक्षर तक सभी समझ लेंगी कि वहां खतरा है, वहां नहीं जाना है.

अगर गए तो खुद ज़िम्मेदार होंगे।.
*

जी...
 परमेश्वर जी के बयान में कोई कसर नहीं रह गयी थी,

 फिर भी अबु आज़मी जी ने विवेचना कर हमें अनुग्रहित कर दिया.

जहांपनाह ने जिस अंदाज़ में इसकी विवेचना की वह साहित्य में सहेज कर रखने योग्य है.
 लड़कियों के लिए ये दुर्लभ उपमाएं नहीं हैं

पर उसकी संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या हमें नत-मस्तक होने पर विवश कर देती है.
*

जनाब ने कहा,
"अगर कहीं पेट्रोल होगा और आग आएगी तो आग लगेगी ही,
शक्कर गिरी होगी तो चींटी वहां ज़रूर आएगी।"


यह उदाहरण अपने आप में बहुत कुछ बयां करता है,
 यह उदाहरण हमें आइना दिखाता है,

 हमारे मुंह पर तमाचा भी जड़ता है.
 वो हम ही हैं जो वोट को दाल-भात समझ लेते हैं और किसी को भी बांट आते हैं.

वो हम ही हैं जो शक्कर और चींटी का संबंध बताने वालों को विधान सभा और संसद में भेजते हैं.

 अबु आज़मी ने जिस लहज़े में दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोशिश की

 उसके बाद सड़कों के साथ-साथ लड़कियों पर भी साइनबोर्ड लगाया जा सकता है.
*

हम खतरनाक हैं,
 हम जहां जाते हैं वहां आग लगने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.

 हम जहां जाते हैं वहां चींटियां अपने आप चली आती हैं.

वास्तव में इस देश को किसी नेता से कहीं अधिक अब साइनबोर्ड की आवश्यकता है.

राजनीति-प्रशासन पर काम का बोझ कम पड़ेगा,
 अगर हम लड़कियां ये साइनबोर्ड लेकर घूमेंगी.

 आज़मी साहब का यह बहुमूल्य योगदान बेकार नहीं जाना चाहिए.

देश के शिक्षक-शिक्षिकाएं अब जब व्याकरण में अलंकार पढ़ाएं तो अबु आज़मी के कथन को उदाहरण के रूप में पेश करें.

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लड़कियों, तुम पेट्रोल भी हो और शक्कर भी..
 बस लड़की नहीं हो.

वो नहीं रोक पाते खुद को बेचारा,
उनकी बेचैन नज़रें तुम्हारे वक्ष स्कैन कर लेती हैं.
उनके तिलमिलाते हाथ तुम्हें दबोच लेने को आतुर होते है.

 अब तुम्हें समझ ही लेना चाहिए -
इट हैपन्स!!
वो मासूम लोग बेबस होते हैं !
खुद पर काबू रख पाना मुश्किल होता है,
तो अब से तुम्ही संभलना शुरू कर दो.
घर से निकलने पर सभी के कब-कहां-क्यों का जवाब दिया करो.

चलते वक्त साइनबोर्ड लेकर निकलो !
ताकि उन मासूम लोगों को स्मरण हो आए कि तुम खतरे की घंटी हो.
उन्हें संभालने का,
उनसे दूर रहने का तुम्हारा दायित्व है.
आखिर सभ्य, सुशील, शालीन, सुलक्षिणी बनने की जिम्मेवारी तुम्हारी ही तो है.
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तुम समाज की 'अच्छी लड़की' हो क्योंकि लड़कियों को बुरी/गंदी बनने की इजाज़त नहीं होती।
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