Sunday, January 8, 2017

पीयूसीएल जैसे मानवाधिकार संगठनों के अभिव्यक्ति पर हो रहे हमलों पर उठ खड़े हो !

 ** पीयूसीएल जैसे मानवाधिकार संगठनों के अभिव्यक्ति पर हो रहे हमलों पर उठ खड़े हो !

** आदिवासियों को जल-जंगल-संस्कृति एवं संविधान से बेदखल करने की साजिश का विरोध करो !!!
* बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि वे सच बोलें और झूठ को नंगा करें।
** कुछ विस्तार से है यह रिपोर्ट फिर भी समय निकले तो जरूर पढ लीजिये  और कुछ कहिये भी कुछ करिये  भी .
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#   उत्तम कुमार ,संपादक दक्षिण कौशल पत्रिका
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पिपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की स्थापना अक्टूबर 1976 में आपातकाल के दौरान जय प्रकाश नारायण और जस्टिस वीएम तारकुंडे ने की थी। यह एक ऐसा समय था जब जनतंत्र या नागरिक स्वतंत्रता की बात करना भी अपराध की श्रेणी में आ गया था। यह संगठन उन लोगों ने बनाया और चलाया जो बिना किसी राजनैतिक स्वार्थ के देश में जनतंत्र की बहाली और नागरिक स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध थे, और उसके लिए बहुत कुछ बलिदान करने को तैयार थे।
इसका लक्ष्य है जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना ताकि वह शांतिपूर्ण तरीके से अपने राजनीतिक लक्ष्य की ओर स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ सके। एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए काम करने के साथ जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करना जो उनके नजर में श्रेष्ठ है।
आपातकाल के दौरान इन्हीं अधिकारों के दमन से यह सिद्ध हुआ कि नागरिक अधिकारों के बिना किसी तरह का लोकतंत्र संभव नहीं है। यह संगठन राजनैतिक विचारधारा या संगठन का समर्थन या विरोध नहीं करता। इसी समझ के कारण पीयूसीएल का गठन हुआ। लेकिन पीयूसीएल उन सभी विचारधाराओं, संगठनों  अथवा सरकारी उपायों का पूरी तरह विरोधी है, जिसके उद्देश्य और लक्ष्य आम लोगों के लिए विनाशकारी है इसलिए यह संगठन फासीवादी, अधिनायकवादी, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता तथा अन्य किसी वाद या व्यवहार का विरोधी है जो इसके उद्देश्य और लक्ष्य के खिलाफ जाता है।

1975-77 के आपातकाल के दौरान मानवाधिकार आंदोलन के इतिहास का वह काला अध्याय है जब तथाकथित उदार लोकतांत्रिक भारतीय सरकार ने जमकर मानवाधिकारों का दमन किया तथा प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया। आपातकाल का सबसे सकारात्मक प्रभाव यह रहा कि देश की अन्य लोकतांत्रिक शकितयां एक जुट हो गर्इं और मानवाधिकार आंदोलन की गत्यात्मकता को बनाये रखा। लोकतंत्र के पक्के समर्थकों के नेतृत्व में पिपुल्स युनियन फार डेमोक्रेटिक राइटस एवं पिपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज जैसे संगठन अस्तित्व में आए जिन्होंने आपातकाल के दौरान मानवाधिकार के संरक्षण के लिए सरकार से सीधा संघर्ष करने की चुनौती स्वीकार की। इस काल में मानवाधिकारों के हनन की जितनी घटनाएं घटीं, पूरे देश में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए उतने ही संगठनों का विकास हुआ।
बम्बई में स्थापित कमेटी फार दी प्रोटेक्शन आफ डेमोक्रेटिक राइटस और पंजाब में ऐसोसिएशन फार दि प्रोटेक्शन आफ डेमोक्रेटिक राइटस के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। पश्चिम बंगाल में बनवासी पंचायत भी वंचित एवं मुख्यधारा से कटे हुए लोगों के मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु प्रयासरत रही है।

* बस्तर में पुलिस समर्थक अग्नि संगठन ऐतिहासिक मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल को नक्सल समर्थक संगठन बता रहे हैं.

अग्नि का कहना है कि नक्सल समर्थन में अगर अब इस संगठन का कोई आया तो उसे मार दिया जाएगा। सोशल मीडिया पर अग्नि के इन हमलों पर मानवाधिकारवादियों ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। इसे लोकतंत्र विरोधी कृत्य बताते हुए इसकी निंदा कई संगठनों ने की है।
 पीयूसीएल ने कहा है कि देश में लोकतंत्र को बचाने के लिए स्थापित पीयूसीएल से जस्टिस तारपुंडे, जस्टिस सच्चर सहित सुप्रीम कोर्ट के कई जज व वकील, समाजवादी, भाजपा तक के  कई बड़े नेता जुड़े रहे। आपातकाल के दौरान वर्तमान केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद सहित कई नेता इस संगठन में पदाधिकारी रहे।
यह कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं है। कोई किसी को कहीं जाने से कैसे रोक सकता है? हम अपने देश में हैं, कोई पाकिस्तान नहीं जा रहे कि वीजा लेना पड़ेगा।

 बस्तर आईजी एसआरपी कल्लूरी ने हाल ही में साफ किया है कि बस्तर में नक्सल विरोधी मिशन-2017 में इस बार सफेदपोश नक्सलियों पर नजर रहेगी। इसके लिए अग्नि संगठन सामने आया है। सोशल मीडिया पर पीयूसीएल, जेएनयू सहित मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ लगातार लिखा जा रहा है। कहा जा रहा कि जनता अब जागरूक हो गई है। ऐसे लोगों को बख्शा नहीं जाएगा।

मानवाधिकार पर मच रहे हो हल्ला की गहराई में हमें जाने की जरूरत है जैसा कि हम सभी जानते हैं कि जब भारत में संविधान-निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी, उसी समय 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की एक सार्वभौमिक घोषणा पत्र स्वीकार किया। हालांकि इस घोषणा पत्र के अस्तित्व में आने का अप्रत्यक्ष कारण शीत युद्ध का वातावरण भी था। फिर भी 1948 के मानवाधिकार संबंधी सार्वभौमिक घोषणा पत्र ने नवोदित राष्ट्र राज्यों में मानवाधिकार आंदोलन को गति प्रदान करने में अहम भूमिका अदा की। यह इसी घोषणा पत्र का प्रभाव था कि विश्व के कई राष्ट्रों ने अपने संविधानों के अन्तर्गत मानवाधिकारों का एक व्यापक ढांचा स्वीकार किया और अपनी जनता को मानवाधिकारों के संरक्षण की गारंटी दी।

सार्वभौमिक घोषणा पत्र में यह अपेक्षा की गई थी कि विश्व के कई देश इन अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध रहेंगे। ऐसे में भारतीय संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर की चुनौती और बढ़ गई थी कि किस तरह भारतीय संविधान के अंतर्गत मूलभूत अधिकारों की ऐसी व्यवस्था की जाए जिसका तादात्म्य सार्वभौमिक घोषणापत्र से स्थापित हो पाए। आज ऐसे तमाम मानवाधिकार का गला घोंटा जा रहा है।

26 जनवरी 1950 को जब भारत में नया संविधान  लागू हुआ तो उसमें मानवाधिकारों के संरक्षण एवं संवद्र्धन की व्यवस्था की गई। बाद के मानवाधिकार आंदोलन पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ा। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ-साथ राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के भी उपबंध किए गए। संविधान की प्रस्तावना में भी जनता के मूलभूत अधिकारों, स्वतंत्रता एवं सामाजिक व आर्थिक न्याय का दर्शन समाहित किया गया। जहां तक विशेष अधिकारों की व्यवस्था की बात है तो यह भारत की सामाजिक आर्थिक दशा के अनुरूप जरूरतमंद एवं वंचित लोगों को प्रदान किए गए। संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 14 से लेकर 32 के विभिन्न अनुच्छेदों में जनता के मूलभूत अधिकारों की बात की गई है। इसमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22), शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 एवं 24), धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25 से 28), सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30) तथा संविधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) शामिल किए गये। संविधान के भाग चार में अनुच्छेद 36 से 51 तक जितने भी उपबंध किए गए हैं उनमें सामाजिक एवं आर्थिक न्याय का दर्शन निहित है।

 भारत के मानवाधिकार आंदोलन पर इन संवैधानिक उपबंधों का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है। आज आदिवासी क्षेत्रों में चुनी हुई सरकार और उसकी एजेंसियां इन संवैधानिक अधिकारों का घोर उल्लंघन कर रही है जिन्हें संविधान के तहत इसे लागू करने का अधिकार प्राप्त है लिहाजा यदि वह उल्लंघन करता है तो वह अपराधियों के श्रेणी में सबसे बड़ा अपराधिक कहलाता है। क्योंकि उन्हें लोकतंत्र में कानून व्यवस्था के साथ लोगों के जान माल के रखा की जिम्मेदारी भी उनकी है।

भारतीय संविधान के अंतर्गत मूलभूत अधिकारों के विस्तृत प्रावधान के बावजूद निवारक निरोध जैसे कानून के कारण इसे आलोचित भी किया जाता रहा है। इन अधिकारों का क्रियान्वयन भी आलोच्य रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के आरंभिक दो दशकों तक कांग्रेस का प्रभुत्व रहा। राष्ट्र-निर्माण एवं आर्थिक विकास के नाम बड़े-बड़े उद्योग एवं कारखाने लगाए गए , बहुउद्देदशीय परियोजनाएं लागू की गई। लोगों का विस्थापन हुआ, वे बेघर होने लगे। सरकार सभी लोगों को आवास, कपड़ा एवं रोटी देने के वायदे में विफल रही। लोगों के पुनर्वास की भी समुचित व्यवस्था नहीं की गई। यह मानवाधिकार के प्रवकओं को बिल्कुल रास नहीं आया। सरकार ने मानवाधिकार आंदोलन पर अंकुश लगाने के लिए कुछ दमनात्मक कानून भी बनाए। जो आमूल परिवर्तनवादी नेता थे वे सरकार की इन कार्रवाइयों से खुश नहीं थे, उन्होंने नक्सलवादी आंदोलन के रूप में ज्यादा प्रतिरोधात्मक एवं हिंसात्मक आदोलन सरकार के विरूद्ध शुरू कर दिया किन्तु मानवाधिकार आंदोलन के उदारवादी नेताओं ने लोकतांत्रिक एवं शांतिपूर्ण साधनों के माध्यम से मानवाधिकार आंदोलन की निरन्तरता को बनाए रखा।

 फलत: 1972 एवं 1974 में क्रमश: लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संबंधी संघ एवं आंध्र प्रदेश में नागरिक स्वतंत्रता समिति का गठन हुआ। इन सबका मुख्य उदेश्य मानवाधिकार के हनन एवं दमन से संबंधी सूचनाएं इकट्टी करना तथा उनके संरक्षण एवं संवद्र्धन के लिए कार्य करना था।

आप सभी को जान लेना चाहिए कि भारतीय मानवाधिकार आंदोलन की सक्रियता एवं क्रियात्मकता की सतता को बनाये रखने में नागरिक समाज की संस्थाओं विशेष रूप से गैर सरकारी संगठनों ने बड़ी अहम भूमिका निभाई है। इन संगठनों ने शोषित, दमित, वंचित, प्रताडि़त वर्ग के लोगों के लिए मानवाधिकार आंदोलन की आग को प्रज्वलित रखा और इस संदर्भ में सरकार के साथ सीधा संवाद स्थापित किया। यह इन्ही संस्थाओं के प्रयासों का प्रतिफल है कि देश में मानवाधिकार आंदोलन को ना सिर्फ एक ठोस आधार प्राप्त हुआ, बलिक वह एक नये स्वरूप में उभर कर सामने आया। और इस आंदोलन में अब सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार, पर्यावरण संरक्षण, महिला उन्मुकित, पिछड़ा वर्ग व वंचित वर्ग के अधिकार, इत्यादि मांगें भी शामिल हो गई। भारत में मानवाधिकार आंदोलन की विलक्षणता यह है कि यह आंदोलन न सिर्फ किसी विशेष संगठन व समूह द्वारा चलाया जाता है, बल्कि कोई भी ऐसा व्यकित जो सार्वजनिक जीवन से अपना सरोकार समझता है इस आंदोलन का झंडाबरदार बन सकता है तथा किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह के मानवाधिकार हनन की सिथति में अपनी आवाज बुलंद कर सकता है। इस संदर्भ में सुंदर लाल बहुगुणा द्वारा चलाए गए चिपको आंदोलन, (गढ़वाल में) मेधा पाटकर के नेतृत्व में चल रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन, अरूणा राय के नेतृत्व में सूचना के अधिकार को लेकर चलाए गए अभियान, बस्तर क्षेत्र में पूर्व कलेक्टर बीडी शर्मा व झारखंड में ज्या द्रेज द्वारा मनरेगा पर उनके उल्लेखनीय कार्यों द्वारा जन जातियों के अधिकार को लेकर चलाए गए आंदोलन का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। इन सभी आंदोलनों के संचित एवं समग्र प्रभाव के रूप में भारत में मानवाधिकार आंदोलन की जड़ें और भी गहरी हुई है।

जनहित याचिका की धारणा के विकास से मानव अधिकार आंदोलन को और भी गति प्राप्त हुई। उल्लेखनीय है कि जनहित याचिका का विचार तब विकसित हुआ जब पिपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइटस ने निजी ठेकेदार द्वारा मजदूरों के शोषण के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें सरकार की ओर से मजदूरों के लिए न्यूनतम पारिश्रमिक तय किए जाने की मांग की गई थी। यह श्रेय तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती को जाता है। उन्होंने एक पोस्टकार्ड पर की गई शिकायत को अपील मानते हुए सुनवाई की थी सर्वोच्च न्यायालय ने अब यह सुनिश्चित किया कि कोई भी व्यक्ति पीडि़त पक्ष की ओर से न्यायालय में अपील कर सकता है। न्यायालय के इस फैसले से गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) में एक नए उत्साह का संचार हुआ। एचडी शौरी का एनजीओ कामन काज ने जहां उपभोक्ता अधिकारों को अपना मुद्दा बनाया, वहां अधिवक्ता एमसी मेहता के एनजीओ सेंटर फार साइंस एंड एनवाइरानमेंट ने दिल्ली के पर्यावरणीय समस्याओं को अपना प्रमुख सरोकार बनाया। अब जनहित याचिका मानवाधिकारों के संरक्षण के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में विकसित हुआ।

1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन इस दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम था। उल्लेखनीय है अनुसूचित जाति एवं जनजाति के हितों की रक्षा के लिए यद्यपि कई संवैधानिक आयोग एवं समितियों के गठन के बावजूद भी यह महसूस किया गया कि मानवाधिकार के हनन अभी भी हो रहे हैं और यहां तक कि लक्षित समूह के अधिकारों एवं हितों की भी रक्षा नहीं हो पा रही है। अत: एक ऐसा राष्ट्रीय आयोग की आवश्यकता को महसूस किया गया जो समाज के सभी वर्गों के हितों एवं अधिकारों को संरक्षण प्रदान कर सके। फलत: इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया जिसका पूरे देश में स्वागत किया गया। इसी तर्ज पर कई राज्यों में राज्य मानवाधिकार आयोगों के भी गठन किए गए हैं।

पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ अध्यक्ष लाखन सिंह ने अपने फेसबुक पोस्ट में बताया है कि अग्नि ने लिखा है-पुलिस ने बस्तर में नक्सलियों का नेटवर्क ध्वस्त कर दिया है। इससे नक्सल वित्त पोषित बाहरी संचालकों में खलबली मच गई है और नक्सलियों के बस्तर में नियंत्रण को पुन:स्थापित करने वकील, पत्रकार, शोधकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, एनजीओ छद्म नाम से घुसकर नेटवर्क फिर से खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इस बार जनता भी इन्हें खेत में घुसने से पहले ही मार देगी।
अग्नि की एक और पोस्ट में कहा गया है- बस्तर पुलिस जिंदाबाद, पीयूसीएल मुर्दाबाद।
बस्तर पुलिस को मिशन-2017 में मिली पहली सफलता के बाद पीयूसीएल नामक नक्सल समर्थक संस्था ने एक बार फिर नक्सलियों के समर्थन में प्रेस नोट जारी कर दिया है। नक्सल समर्थकों के लिए चेतावनी है कि छद्म लबादा ओडक़र बस्तर पहुंचने वाले नक्सलियों को अब बख्शा नहीं जाएगा। अबकी बार पुलिस से पहले उनका सामना बस्तर की जागरूक जनता से होगा।
आनंद मोहन मिश्रा, राष्ट्रीय संयोजक, अग्नि ने कहा है कि पीयूसीएल अब गरम वामपंथी विचारधारा का संगठन है। वे फोर्स पर आरोप लगाते हैं, पर फोर्स यहां क्यों है? अगर नक्सली समर्पण कर चले जाएं तो फोर्स खुद ही लौट जाएगी। सरेंडर करने वाले नक्सलियों को पीयूसीएल वाले रोकते हैं। यहां आकर माहौल खराब करते हैं। हम उन्हें रोकेंगे।
डा. लाखनसिंह  सिंह ने कहा है कि कोई किसी को न्याय पाने के संवैधानिक अधिकार से कैसे वंचित कर सकता है? लीगल एड  यदि आदिवासियों को नही मिलेगी तो न्याय  कैसे होगा? रेपिस्ट और हत्यारे तक को भी न्याय पाने का हक होता है। लीगल एड की शालिनी गेरा हाईकोर्ट के आदेश पर बस्तर गईं, फिर भी पुलिस ने परेशान किया.

आपको विदित हो कि 25-26 जून को दक्षिण कोसल के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार उत्तम कुमार सहित आलोक प्रकाश पुतुल, मालिनी सुब्रमण्यम, सुवोजित बागची, प्रभात सिंह, पुष्पा, अनिल मिश्रा, राजकुमार सोनी, क्रांति रावत, तामेश्वर, लिंगाराम कोडोपी, दिनेश सोनी, देवशरण तिवारी, नितिन सिन्हा को भी सम्मानित किया गया . इन्हें आदिवासियों, दलितों व पिछड़ों के मानवाधिकार के लिए कार्यरत संगठन पीयूसीएल और पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति की ओर से मानव अधिकार, वंचित, आदिवासी, दलित, किसान और उत्पीडि़त वर्ग के लिए प्रतिबद्ध और तथ्यपरक रिपोर्टिंग के लिए देश का प्रतिष्ठित निर्भीक पत्रकारिता सम्मान-2016 के लिए सम्मानित किया गया है।
 इससे पूर्व छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की तरफ से यह पुरस्कार अब तक वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ, कुलदीप नैयर, भारत डागरा, प्रफुल्ल विदवई आनन्द स्वरूप वर्मा, कात्यायनी क्षेमराज, एनके सिंह को प्रदान किया जा चुका है।
 रायपुर में 16 से 18 दिसम्बर तक आयोजित पीयूसीएल की राष्ट्रीय अधिवेशन में बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी हालातों पर तथ्यान्वेषण के लिए हजारों की संख्या में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की कूच के ऐलान के बाद मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं पर हमले तेज हो गए हैं।

मानवाधिकार हनन की सच्चाई क्या है? मैदानी भाग में रहनेवाले लोगों या आधुनिक लोगों से अलग-थलग रहना आदिवासियों के जीवन का एक अनूठा पहलू है। अपने इसी स्वभाव के कारण वे अपने जातीय-सांस्कृतिक गुण को कायम रख सके। प्राकृतिक वातावरण विशेषत: जंगल से इनका अन्योन्याश्रय संबंध है। परंतु भारत में उपनिवेशवाद की स्थापना के बाद आदिवासियों को राजनीतिक, आर्थिक और प्रशासनिक रूप से मुख्य समाज से जोडऩे की प्रक्रिया शुरू हुई। इस मिश्रण ने न केवल उनकी शांत और स्वच्छन्द जीवन शैली को बाधित किया बलिक आधुनिक समाज में गरीबी, बेरोजगारी आदि को भी जन्म दिया तथा जनजातियों के जीवन में शोषण का कारण बना। ये समस्याएं आदिवासियों के पारंपरिक जीवन शैली में क्षय और जनजातीय समुदायों के मानवाधिकार हनन का कारण बनीं।

आदिवासियों के मानवाधिकार संबंधी मुद्दों के विश्लेषण की शुरूआत हम भूमि-विभाजन से कर सकते हैं। संचार और विकास हेतु सरकार एवं अन्य संस्थाओं द्वारा आदिवासी भूमि का अधिग्रहण तथा भूमि कानून में त्रुटि की वजह से आदिवासी भूमि का विभाजन हो गया और ये अपनी संपदा खो बैठे। भूमि-आधिपत्य की यह नई प्रणाली आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को जड़ से बदल दिया और गैर जनजातीय लोगों का जनजातीय क्षेत्रों में अतिक्रमण होने लगा।
आदिवासियों के मानवाधिकार से संबंधित दूसरा अहम मुद्दा है जंगल के साथ उनका आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृति संबंध। पारंपरिक रूप से जंगल और वन-भूमि ही जनजातीय लोगों का आश्रय था और जीविकोपार्जन का माध्यम भी। धीरे-धीरे प्राकृतिक संसाधन के नाम पर जंगल का रख-रखाव सरकार ने अपने हाथों में ले लिया और आदिवासी तथा सरकार के बीच लगातार एक तनाव का माहौल बनता गया। सरकार ने इस बात की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि जंगल आदिवासियों की सामाजिक प्रथा और रीति-रिवाज का केन्द्र बिन्दु रहा है।

गरीब, कर्जखोरी और बेरोजगारी आदि आदिवासियों के मानवाधिकार से जुड़े दूसरे मुर्दे हैं। वन क्षेत्र पर अपना अधिकार खोने के बाद आदिवासियों की जीविका छिन गई और वो गरीबी की ओर धकेल दिए गए। अकाल के समय या विपरीत परिस्थितियों में प्राय: इन्हें पैसे की आवश्यकता होती और वैसी सिथति में ये धोखेबाज महाजनों से कर्ज लेने को विवश हो जाते। आदिवासी पहले अपने जमीन में भोजन के लिए खेती करते थे लेकिन अब उसी जमीन में पैसे के लिए फसल उगाने लगे। इससे उनकी पूरी अर्थव्यवस्था ही चरमरा गई और खाध पदार्थों के लिए उन्हें बाजार पर अधिक-से-अधिक आश्रित होना पड़ा। औद्योगीकरण से भी इन्हें कोई लाभ नहीं हुआ। हालांकि नए-नए कार्य का मौका तो उत्पन्न हुआ लेकिन उचित शिक्षा और हुनर के अभाव में यह मौका इनके किसी काम का नहीं था। आदिवासियों की मानवाधिकार सुरक्षा के रास्ते में आए इन बाधाओं को ध्यान में रखते हुए सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं को चाहिए कि वे न केवल इनके पारंपरिक अधिकार वापस दिलाएं बल्कि इस तरह से उनका आधुनिकीकरण भी करें कि ये आदिवासी अपने मूल से अलग होने को विवश न हों।

संविधान निर्माताओं के समक्ष दोहरी समस्या थी। सूक्ष्म आदिवासी जीवन शैली को बाहरी अतिक्रमण से बचाना और विकास के लिए उन्हें राष्ट्रीय मुख्य धारा में शामिल करना। इन दोनों तथ्यों को ध्यान में रखकर संविधान निर्माताओं ने जनजातियों के लिए संविधान में विस्तृत प्रावधान बनाए। अनुच्छेद 342 में एक विशेष श्रेणी का प्रस्ताव है जिसमें वो सामाजिक समूह आएंगे जिन्हें सरकारी काम-काज के लिए अनुसूचित जनजाति माना जाएगा। अनुच्छेद 15(4) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आदिवासियों के हित में उठाए गए कदम जाति, प्रजाति लिंग आदि के आधार पर भेद-भाव की श्रेणी में नहीं माने जाएंगे। जनजातीय संपत्ति का विभाजन या विखंडन रोकने के लिए अनुच्छेद 19(5) के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के नागरिक अधिकारों, जैसे कि आदिवासी क्षेत्र में मुक्त विचरण, वहां घर बनाना या संपत्ति अर्जित करना आदि, पर रोक लगा सकती है। अनुच्छेद 45 राज्य को यह निर्देश देता है कि वह अनुसूचित जनजातियों के शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों को विशेष सावधानी के साथ बढ़ावा दे। अनुच्छेद 16 तथा 355 में, केन्द्र एवं राज्य स्तरीय लोक सेवाओं में इनके आरक्षण का प्रावधान है। अनुच्छेद 338 में आदिवासियों के लिए राष्ट्रीय आयोग के गठन की सिफारिश है। अनुच्छेद 339(2) के अंतर्गत केन्द्र सरकार राज्यों को आदिवासियों के हित में योजनाएं बनाने एवं उन्हें कार्यान्वित करने हेतु निर्देश देने के लिए अपनी कार्यकारिणी शक्ति का प्रयोग कर सकती है। अनुच्छेद 275(1) केन्द्र को यह निर्देश देता है कि वह राज्यों को जनजातीय कल्याण योजनाओं पर खर्च के लिए आनुदानिक सहायता दे।
अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित विस्तृत प्रावधान, संविधान के भाग दस के अनुच्छेद 244 और 244(।) में किए गए हैं। संविधान की पांचवी अनुसूची में आसाम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम को छोडक़र अन्य राज्यों में अनुसूचित एवं जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन तथा नियंत्रण के प्रावधान का वर्णन है। उपरोक्त राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों में छठी अनुसूची लागू होती है। अनुच्छेद 164 के अनुसार बिहार (वत्र्तमान झारखंड), मध्य प्रदेश (वत्र्तमान छत्तीसगढ़) और उड़ीसा में जनजातीय हितों की रक्षा हेतु एक मंत्री विशेष का प्रावधान है। अनुच्छेद 330, 332 और 335 में केन्द्र और राज्यों की विधायिकाओं में आदिवासियों के विशेष प्रतिनिधित्व एवं सीटों के आरक्षण के लिए तात्कालिक प्रावधान हैं। जनजातीय विकास के लिए कई नीतियों और कार्यक्रमों की शुरूआत इन संवैधानिक प्रावधानों का समग्र प्रतिफल है।

5 जुलाई 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा जुडूम को अवैधानिक एवं असंवैधानिक घोषित कर सलवा जुडूम को समर्थन बंद करने और विशेष पुलिस अधिकारियों के नाम पर आदिवासियों को हथियारों से लैस नहीं करने की बात कही है। निर्णय में सहायक पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) की भर्ती को अयोग्य व अक्षम बताया था। यहां उनको सहायक सशस्त्र बल में तब्दील कर नियमित कर दिया गया, जो सरासर असंवैधानिक है। कारण इनके बिना सुदूर बस्तर के वादियों में जाकर आदिवासियों के गतिविधियों पर नियंत्रण संभव नहीं हैं। इस तरह कोर्ट आदेश की अवहेलना पर फिर से एक बार राज्य की रमन सिंह सरकार से 24 घंटे के भीतर जवाब मांगा है। कुल मिलाकर आदिवासी क्षेत्रों की स्थिति युद्ध के मैदान में बदल रहा है। जिसमें निर्दोष आदिवासियों का समूल नाश हो रहा है।
2 अक्टूबर 2012  के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि जंगल की जमीन पर रहनेवाले आदिवासी और जंगलवासी के अधिकारों को वैध ठहराकर कहा है कि नक्सलवाद यह देश के अनुसूचित जमाती और अनुसूचित क्षेत्र के प्रशासकीय संबंध मं संविधानिक प्रावशान को गैरईरादतन लागू न करने का नतीजा है।

 यह फैसला 5 जनवरी 2011 की निरंतरता में है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासियों को मूलनिवासी घोषित किया और अब भारतीय संविधान की 5वीं और 6ठी सूची  (244(1)(2) लागू न करने के संदर्भ में निर्णय दिया है। दोबारा यह कि साडक़ेगुड़ा पर मेरे रिपोर्ट पर जांच दल के हवाला से आदिम क्षेत्रों में उत्पन्न हो रही घटनाओं से जुड़ी सभी पहलुओं पर विचार विमर्श कर इस अधिसूचित क्षेत्र की संरक्षण व सर्वांगीण विकास पर जो समाधान सुझाए है उस पर एक नजर दौराते हुए तमाम पत्रकारों, संपादकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को लोकतंत्र की मजबूती के लिए भारत के प्रत्येक स्थान पर स्वतंत्र रूप से कार्य करने देने की वकालत करते हुए जांच दल के 10 मांग/समाधान/सुझाव में एक और मांग कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की स्वतंत्रता और रक्षा के लिए आगे आएं।

अंत में-
बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है कि वे सच बोलें और झूठ को नंगा करें।

भवतु सब्ब मंगलम् ।

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उत्तम कुमार ,संपादक दक्षिण कौशल पत्रिका 

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