Wednesday, November 12, 2014

वनाधिकार अधिनियम 2006 को कार्पोरेट मुनाफे के लिए कमज़ोर करने का प्रयास जनविरोधी –

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन
सी - 52 सेक्टर -1, शंकर नगर, रायपुर, संपर्क 09977634040,


क्रमांक 106                                                                                   दिनांक ११. ११. २०१४


प्रेस विज्ञप्ति

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा वनाधिकार अधिनियम 2006 को कार्पोरेट मुनाफे के लिए कमज़ोर 
करने का प्रयास जनविरोधी  – छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन

जैसा की आपको ज्ञात है की २००६ में संसद ने सर्वसम्मति से “अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम २००६”  पारित किया था I यह अधिनियम सभी राजनैतिक दलों द्वारा समर्थित था I इस कानून का मूल मकसद हे, आदिवासियों के साथ हुए एतेहासिक अन्याय को ख़त्म करते हुए उन्हें उनके जंगल-जमीन पर मालिकाना हक़ दिया जाये I इस कानून में जंगल का प्रवंधन ग्रामसभा को सोपने के साथ यह भी प्रावधान किया गया हे, कि किसी भी परियोजना के लिए भू –अधिग्रहण एवं वन अनुमति के पहले वनाधिकारो की मान्यता की प्रक्रिया की समाप्ति और ग्रामसभा की लिखित सहमती आवश्यक हे I

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय आदिवासी इलाको में जंगल जमींन को कंपनियों को देने के लिए इस अधिनियम को लगातार कमज़ोर करने पर आमादा है I मंत्रालय ने पिछले कुछ दिनों में इस अधिनियम की पारदर्शी प्रक्रियाओं को नष्ट करने और प्रशासनिक अधिकारियों को सभी शक्तियां प्रदान करने की दिशा में कई कदम उठाएं है जिसमें कुछ निम्न उल्लेखित हैं :-
·    वन भूमि परिवर्तन के लिए ग्राम सभा की स्वीकृति को सीमित करने के लगातार प्रयास  उच्चतम न्यायालय के उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन बनाम भारतीय संघ के निर्णय में ग्राम सभा की स्वीकृति की आवश्यकता को अनिवार्य बताया गया हैं ,लेकिन पर्यावरण एवं वन मंत्रालय इसके विपरीत फेसला लेते हुए विभिन्न परियोजनाओं को ग्रामसभा की अनुमति से मुक्त करने की कोशिश कर रहा है (हाल ही में मंत्रालय दुवारा 28 अक्टूबर को दिए गए एक अत्यंत अवैध निर्देश से कलेक्टरों को सशक्त किया गया कि वे निर्णय लें की क्या वन अधिकार अधिनियम इस क्षेत्र में लागू होगा अथवा नहीं )  ग्राम सभा की मंज़ूरी किसी भी तरह से परियोजनाओं की देरी का कारण नहीं है I अगर किसी नौकरशाह की मनमानी से ही जंगल का नाश संभव है तो फिर लोगों को वन प्रबंधन के लिए सशक्त बनाने का कोई मतलब नहीं रह जाता I
·   ज़िला कलेक्टरों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को सशक्त करना की वे यह निर्णय ले सकें कि कब वन अधिकारों की मान्यता प्रक्रिया समाप्त हो गयी है (जैसा कि मार्च में घोषित वन (संरक्षण) नियम में किया गया) I यह भी पूर्णतया अवैध है और वन अधिकार अधिनियम २००६ की धारा ६ (१) का सीधा उल्लंघन है I यह उन्हीं अधिकारियों को सशक्त बना रहा है जो आज तक वन अधिकारों को मान्यता न देने के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार रहे हैं I यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है की प्रत्येक मामले में जब भी कलेक्टर की मान्यता पूर्ती के प्रमाण पत्र की जांच की गयी, वह गलत पाया गया I
पर्यावरण मंत्रालय के इस प्रकार के निर्देश  कंपनियों और अधिकारियो को गेरकनूनी कार्य करने के लिए प्रलोभित कर रहे हे जिससे परियोजनाए आसान नहीं बल्कि और कठिन हो जाएँगी I इससे परियोजनाओं की स्वीकृति प्रक्रिया में अवैधता, भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म बढावा मिलेगा I छत्तीसगढ़ में विभिन्न परियोजनाओ के लिए वन अनुमति जारी करने में बड़े पैमाने पर वनाधिकार कानून का उल्लंघन करते हुए राज्य शासन दुवारा गलत तथ्य एवं दस्तावेज प्रस्तुत किये गए हे जिसमे कई मामलो में जाँच लंबित हे | मंत्रालय के ये सभी आदेश संसाधनों के अति दोहन के साथ जंगल के विनाश को बढावा देंगे साथ ही गेरकानूनी प्रक्रियाओ को मान्यता देने की कोशिश हे जिसका हम पुरजोर तरीके से विरोध करते हे  
हम आशा करते हैं कि मंत्रालय तुरंत कार्यवाही कर यह सुनिश्चित करे की वनभूमि परिवर्तन कानून के अनुसार ही किया जाये और हमारे देश के सबसे गरीब लोगों के अधिकारों के हनन किये बिना ही हो और इस प्रक्रिया में किसी प्रकार की अवैधता और भ्रष्टाचार न हो I

नोट - प्रेस विज्ञप्ति एवं प्रधानमंत्री को भेजा गया पत्र  संग्लन हे

भवदीय
आलोक शुक्ला
संयोजक
छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन 
  

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