Wednesday, December 31, 2014

Urban Maoists slip through government's intelligence network

Urban Maoists slip through government's intelligence network


Abhishek Bhalla   |   Mail Today  |   New Delhi, December 31, 2014 | UPDATED 09:48 IST
 
Kobad Ghandy
Kobad Ghandy was arrested in September 2009 and is still in judicial custody.The war on Red Terror is no longer limited to remote jungles in faroff districts as urban Maoists have become a clear and present danger. Maoist front organsiations, functioning far from their strongholds in the jungle tracts of central India, have succeeded in penetrating urban India and have managed to give a slip to intelligence agencies for some years. The government is now planning a crackdown on them.
A new policy drafted by the Ministry of Home Affairs (MHA) to combat Red terror also talks of the threat posed by these organisations that need to be dealt with strongly. A note on the policy says that such "front organisations" of the Communist Party of India (Maoist) are active in 21 states of the country. Sources say the Union home ministry has directed intelligence wings of states and also central intelligence agencies to track the activities of these organisations closely and gather evidence against them.
There are 128 such organisations that are on the radar of intelligence agencies for their links with the red rebels. "These organsiations carry out over ground agitational activities in an attempt to expand the mass base of the party and prepare the stage for armed insurrection," the note on the new policy says.
Home Ministry officials say that cracking down on such organisations is a priority. Intelligence reports suggest that many of these front organsiations are based in urban centres and provide logistical support to the movement ensuring fusion between overground and underground activities. They are responsible for recruitment of educated youth who go to field areas to keep the movement alive and play the role of ideologues, sources say.
"Such organisations have been identified but we need to establish that these are the urban faces of the armed rebellion and not mere sympathisers," said a home ministry official.
The ministry has planned a crackdown on these organisations and asked intelligence agencies to bring out evidence of their support to the Maoists. Initiating strong action against them has been a problem area since they operate by making inroads into workers' groups, social forums and NGOs.
Maoists
Intelligence agencies stumbled upon the Maoist strategy of setting urban bases in cities like Delhi in 2009 with the arrest of Kobad Ghandy from Delhi. 
"We want to treat them like Maoists, but that is only possible if we can get solid evidence that they are providing the armed rebels logistical support, carrying out recruitment drives in urban areas and providing financial assistance to them as well," the official added.
Other than states hit by left-wing extremism like Chhattisgarh, Jharkhand, Bihar, West Bengal and Andhra Pradesh, these front organisations are also active in Delhi, Haryana, Gujarat, Karnataka, Tamil Nadu, Punjab, Maharashtra, Uttarakhand and Kerala.
Sources say several organisations in Delhi and the National Capital Region have been identified as Maoist front organisations.
According to the home ministry, Maoist ideologues in cities and towns have undertaken a concerted and systematic propaganda against the state. "In fact, it is these ideologues who have kept the Maoist movement alive and are in many ways more dangerous than the cadres of the People's Liberation Guerrilla Army," a home ministry report on Maoist activities in urban area says. The home ministry is of the opinion that the Maoists want to capture territory in the countryside and gradually encircle the urban centres.
Intelligence agencies stumbled upon the Maoist strategy of setting urban bases in cities like Delhi in 2009 with the arrest of Kobad Ghandy from Delhi.
Ghandy is allegedly responsible for recruiting people from urban centres. More recently, Hem Mishra, a student of Jawaharlal Nehru University in Delhi, was arrested by the Maharashtra Police last year for allegedly helping Maoists. Earlier this year, Delhi University professor G.N. Saibaba, belonging to the Revolutionary Democratic Front (RDF), was also arrested by Maharshtra police on allegations of supporting the rebels.
Intelligence inputs indicate that these groups are working with an objective to enter the cadres of workers' associations and work from within and motivate them to carry out violent protests. Intelligence sources say their cadres work in layers. The modus operandi of some of these groups is aimed at provoking violence. Starting from distributing material related to the Maoist ideology to holding rallies, they finally want to penetrate into protest demonstrations and trigger violence.

सार्वजनिक जलप्रदाय बंद करने पर हाईकोर्ट की रोक

खण्‍डवा में सार्वजनिक जलप्रदाय बंद करने पर हाईकोर्ट की रोक
कई देशों में पुनर्निगमीकरण का दौर जारी

मध्‍यप्रदेश के खण्‍डवा नगर में शहर की जलप्रदाय योजना के निर्माण तथा इसके 23 वर्षों तक संचालन का ठेका जन-निजी भागीदारी (पीपीपी) के तहत 'विश्वा इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर्स एण्‍ड सर्विसेस प्रायवेट लिमिटेड' को दिया गया है। जलप्रदाय जैसी आवश्‍यक सेवा के निजीकरण के खिलाफ खण्‍डवा में अभियान जारी है। नगरनिकाय चुनावों में पेयजल का निजीकरण प्रमुख मुद्दा बना और प्रदेश के मुख्‍यमंत्री को खण्‍डवा में यह घोषणा करनी पड़ी थी कि शहर में पेयजल का निजीकरण नहीं होगा। लेकिन चुनाव के बाद नगरनिगम ने विभिन्न स्‍थानों पर लगाए गए मशीनीकृत बोरवेल तथा जसवाड़ी स्थित सुक्‍ता जलप्रदाय संयंत्र को बंद करने की घोषणा कर दी थी। इसके खिलाफ पुनप्रदर्शन प्रारंभ हो गए  हैं।

आम आदमी पार्टी और नर्मदा जल संघर्ष समिति के कार्यकर्ताओं ने मध्‍यप्रदेश उच्‍च न्‍यायालय में दायर जनहित याचिका (20107/2014) पर न्‍यायालय द्वारा अंतरिम स्‍थगन प्रदान करते हुए नगरनिगम को जलप्रदाय व्‍यवस्‍था मेंयथास्थिति बहाल रखने का निर्देश दिया। याचिका में वर्तमान जलप्रदाय व्‍यवस्‍था बंद होने पर खण्‍डवा के नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्‍लंघन का महत्तवपूर्ण मुद्दा उठाया गया है। हाई कोर्ट का आदेश देखने हेतु यहॉं क्लिक करें।

इसी प्रकार के अभियानों के कारण अब दुनियाभर में पुनर्निगमीकरण  (Remunicipalisation) का दौर जारी है। पुनर्निगमीकरण का आश्‍य उस प्रक्रिया से है जहॉं निजीकृत जलप्रदाय व्‍यवस्‍था को समाप्‍त कर नगरीय निकायों ने नागरिकों को जलप्रदाय सेवा प्रदान करने की जिम्‍मेदारी अब अपने हाथों में लेने का निर्णय लिया है। उल्‍लेखनीय है कि मध्‍यप्रदेश सरकार द्वारा खण्‍डवा के नागरिकों की आपत्तियों के निराकरण हेतु गठित विशेषज्ञों तथा राजनैतिक कार्यकर्ताओं की समिति स्‍वतंत्र समिति ने भी जलप्रदाय के निजीकरण को खारिज करते हुए इसका संचालन नगरनिगम की जिम्‍मेदारी बताया था।

कई नगरीय निकायों में पुनर्निगमीकरण की प्रक्रिया या तो जारी है या पूर्ण हो चुकी है। पेरिस, बर्लिन, दारे सलाम (तंजानिया) कुआ लालम्‍पुर (मलेशिया), अकरा (घाना) ब्‍यूनस आयर्स (अर्जेंटीना), लापाज (बोलिविया) में पुनर्निगमीकरण हो चुका है जबकि नागपुर (महाराष्‍ट्र), खण्‍डवा (मध्‍यप्रदेश), जकार्ता (इंडोनेशिया), बार्सिलोना (स्‍पेन), सोफिया (बुल्‍गारिया) आदि स्‍थानों पर इसके लिए अभियान जारी है।

पुनर्निगमीकरण का संकलन करने वाली वेबसाईट परखण्‍डवा में जारी अभियान और स्‍वतंत्र समिति की रिपोर्ट पर आधारित आलेख इस वेब साईट पर प्रकाशित किया गया है। इससे खण्‍डवा के अभियान के बारे में अन्‍य स्‍थानों तक जानकारी पहुँचाने में मदद मिलेगी। मूल आलेख देखने हेतु यहॉं क्लिक करें।

सधन्‍यवाद

- गौरव द्विवेदी रेहमत
मंथन अध्‍ययन केन्‍द्र,
दशहरा मैदान रोड़,
बड़वानी (मध्‍यप्रदेश) 451551 (INDIA)
Tel +91-7290-222857/ 094250 89369

छत्तीसगढ़ से 5 हजार लड़कियों की तस्करी

छत्तीसगढ़ से 5 हजार लड़कियों की तस्करी

[ सी जी  खबर ]
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लड़किय़ों की मानव तस्करी
नई दिल्ली | संवाददाता: छत्तीसगढ़ से 11 साल में 5000 लड़कियों की तस्करी कर दिल्ली ले जाया गया. इसका खुलासा 19 नवंबर को दिल्ली के शकुरपुरा से गिरफ्तार कथित प्लेसमेंट एजेंसी से संचालक पन्नालाल ने पुलिस को लिखित बयान में बताया है. गौर करने वाली बात यह है कि यह वह आकड़ा है जिसे स्वीकार किया गया है वस्तुतः वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा की होगी.
पन्नालाल ने पुलिस को दिये बयान में बताया कि उसने वर्ष 2003 से छत्तीसगढ के जशपुर तथा रायगढ़ से 5000 से भी ज्यादा लड़कियों की दिल्ली के लिये तस्करी की है. जिसका निष्कर्ष है कि एक दलाल ने प्रतिवर्ष छत्तीसगढ़ के 2 जिलों से करीब 454 लड़कियों की तस्करी की है अर्थात् प्रति 5 दिन में 6 बच्चों को अगुआ करके ले जाया गया है. इसके अलावा भी और कई पन्नालाल होंगे जो अभी तक पकड़े नहीं गयें हैं.
इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में सक्रिय दलालों ने कितनी छत्तीसगढ़ी माताओं के बच्चों का हरण किया है. मानव तस्करी के आरोपी पन्नालाल ने स्वीकार किया है कि अपने प्लेसमेंट एजेंसी में उन्होंने लड़कियों की उम्र 18 से उपर की दर्ज की है. इस काम के लिये पन्नालाल के कई एजेंट छत्तीसगढ़ में तैनात हैं. जाहिर है कि मामला अत्यंत गंभीर किस्म का है जिस पर तुरंत लगाम लगाये जाने की जरूरत है.
गौरतलब है कि इन लड़कियों को काम दिलाने के बहाने बहला-फुसलाकर दिल्ली ले जाया जाता है जहां पर उन्हें बंधक बनाकर रखा जाता है. वाजिब दाम मिलने पर इन लड़कियों को घरेलू काम-काज या सेक्स रैकेटिंग के लिये बेच दिया जाता है. जाहिर है कि मानव तस्करी, छत्तीसगढ़ के लिये एक सामाजिक समस्या बनकर उभर रही है. जिसके मूल में गरीबी तथा बेरोजगारी है.

हम इंतज़ार करेंगे तेरा कयामत तक; जसोदा बेन के सन्दर्भ में - कनक तिवारी

हम इंतज़ार करेंगे तेरा कयामत तक; जसोदा बेन  के  सन्दर्भ  में - कनक तिवारी 

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जशोदा बेन
कनक तिवारी
हिन्दू विवाह एक पवित्र धार्मिक परिकल्पना है. यह पुश्तैनी, पुख्ता और पुण्य विश्वास है कि दांपत्य की अंतरंगता जन्म-जन्मांतर तक एकनिष्ठ होती है. उसमें अविश्वास, अनादर, पृथकता और पराएपन के लिए कोई गुंजाइश नहीं है. यह भारत है जहां सत्यवान-सावित्री, नल-दमयंती, करवाचैथ और अक्षय तृतीया जैसी पूजा अब भी सामाजिक जीवन में सार्थक हस्तक्षेप करती है. एकपत्नीव्रत और पतिव्रता होने का धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 को लागू करने के पहले पारंपरिक हिन्दू बुद्धि ने इसी आधार पर जवाहरलाल नेहरू का खुला विरोध किया था.
अधिनियमित विवाह सामाजिक संविदा होने के बावजूद अब भी सप्तपदी और सात वचनों पर आधारित एक अविच्छेद पारस्परिकता है. साक्षरता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, आधुनिकता और शहरीकरण ने तलाक, एकल परिवार और ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ जैसी नई संभावनाओं को साकार किया है. गांवों, मध्यम वर्ग तथा सांसारिक कूपमंडूकता के रहते पत्नी का जीवन अब भी पति की अर्धांगिनी कहलाते हुए भी उसकी छाया की तरह रहने की खुशफहमी में है. स्त्री ने भारतीय समाज व्यवस्था में सती, विधवा और देवदासी जैसी अब कुख्यात प्रथाओं के केंचुल में जीने का अभिशाप ढोया है. पता नहीं वह कौन सा रागात्मक आह्वान है जो पत्नी को पुरुष के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता के प्रमाणपत्र के लिए अब भी उकसाता रहता है.
गुजरात के एक गुमनाम गांव में निवास कर रही एक सेवानिवृत्त शिक्षिका शास्त्रीय समयचक्र के अनुसार अपने पति की तरह वाणप्रस्थ काल में है. केवल तीन वर्षों के दांपत्य जीवन के बाद पति से परित्यक्त होकर उसे गुमनामी की बांबियों में अपना जीवन मौत और सामाजिक उलाहनों से बचाकर किसी तरह जीना पड़ा होगा. हर तरह का अंधेरा उसके जीवन को रोशन करने के लिए लालायित होता रहा होगा. मीलों लंबे किसी बोगदे से निकली रेलगाड़ी की तरह उसे अचानक एक दिन रोशनी के थपेड़ों ने अंधकार का मर्म समझा दिया. पति ने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते दांपत्य के दूध में से पत्नी को मक्खी समझकर निकाल फेंका था.
हिन्दू विवाह अधिनियम के फरमान के चलते उसने पत्नी को परित्यक्त करने का सिविल अपराध किया था. पत्नी ने कोई मुकदमा दायर नहीं किया. इसलिए पति निरपेक्ष, निश्चेष्ट और निरापद रहा. सायास परित्याग करने वाले पति पर यह वैधानिक दायित्व था कि पत्नी के भरणपोषण का इंतज़ाम करे. पति ने यह भी नहीं किया. पति धीरे धीरे राजनीति के शिखर की ओर बढ़ते हुए चुनाव लड़ने लगा. आवेदन पत्र के वैवाहिक जीवन वाले कॉलम में उसने अज्ञात कारणों से पत्नी का नाम नहीं लिखा, जबकि ऐसा करना कानूनी तौर पर लाज़िमी था. वह एक दिन देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए अपने राजनीतिक संगठन द्वारा उम्मीदवार बना दिया गया. कुछ खोजी पत्रकारों और राजनीतिक विरोधियों ने गुमनाम पत्नी को सनसनी फैलाने के लिए ढूंढ़ निकाला. उसकी तस्वीरें, कहानियां और कुंठाएं पति को लक्ष्य कर छापी गईं.
राजनीति असल में दलदल का ही दूसरा नाम है. उससे ही पति कमल-मुख लेकर पार्टी की नाल के ऊपर उगता सूरज बनने लगा था. इस बार पति ने पत्नीव्रत होकर नहीं बल्कि राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के रथ के पहिए को पंक्चर होने से बचाने के लिए पत्नी का नाम पहले से निरंक चले आ रहे कॉलम में टीप दिया. वैधानिक अभिस्वीकृति के बाद अब तक अल्पज्ञात बल्कि गुमनाम, खामोश और लाचार रही पत्नी ने दबी जबान से बस इतना हौसला जताया कि काश उसे अब भी पति यदि बुला लें तो वह उस अपनी मजबूरी की सारी जिं़दगी को तपस्या का प्रसाद समझ लेगी. लगता नहीं पति को यह नासमझ प्रस्ताव कुबूल होगा. महत्वाकांक्षाओं के आसमान में कोई धरती की दूब लेकर नहीं उड़ता. धरती तो केवल आखिरी दिन के लिए सबकी प्रतीक्षा करती है.
जसोदा बेन की प्रतीक्षा कयामत के दिन तक दीपक की लौ की तरह जलती रहेगी. ऐसी स्वाभाविक संभावना है. लड़की के बालिग होते ही वह स्त्री में शुमार होने लगती है. कुदरत, समाज और शरीर तथा मन के विज्ञान का नियम है कि मानव सभ्यता के विकास के लिए स्त्री और पुरुष की युति आदम और हौव्वा के समय से ही कारक रही है. पुरुष पत्नी को साथ रखने से केवल उन्हीं आधारों का सहारा ले सकता है जो हिन्दू विवाह अधिनियम में दर्ज कारण नहीं हैं. देश का संभावित प्रधानमंत्री बन जाना या मुख्यमंत्री रहे आना अधिनियम में दर्ज नहीं है. यह भी है कि पत्नी द्वारा अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटाए जाने की स्थिति में अन्य कोई कुछ नहीं कर सकता. संसद ने परित्यक्त स्त्री के लिए अधिकारों का आसमान तो मुहैया कराया है, लेकिन जसोदा बेन की तरह अपनी इच्छाओं, अधिकार और संभावनाओं की सहनशील कुर्बानी करने वाली स्त्री संसदीय अधिनियमों के परे होती है.
एक परित्यक्त स्त्री के लिए जीवन की कुलबुलाती संभावनाओं पर पूर्ण विराम लग चुका था. कारण यह कि पति ने अपने हाथों संविधान की शपथ खाकर भी उसका नाम आवश्यक प्रपत्रों पर लिखने में गुरेज़ किया था. पति ने अब भी बुलाया नहीं लेकिन जसोदा बेन से विवाह करना लिखित में स्वीकार किया. जसोदा बेन को पति का हस्ताक्षर जर्जर हो रही अपनी देह में प्राणों का संचार लगा. चुक गई भावनाओं में जीवन की धड़कन पैदा होना मनुष्य के लिए निजी भूकंप या ज्वालामुखी से कम नहीं है.
वे पूरी दुनिया को बताना चाहेंगी कि निपट सादगी, शांति और करुणा का जीवनयापन करने वाली एक महिला कविता का स्त्रोत या दार्शनिक उद्रेक का कारण बन सकती है. राजनीति, आतंकवाद और मीडिया के विज्ञापन बाज़ार के अवांछित शोर में जसोदा बेन का विनम्र कारुणिक बयान मानवीय सभ्यता को जीवन की सिम्फनी से प्राणमय कर देता है. पति की हामी के लिए इंतज़ार करने वाली यह औरत होकर भी विरल भारतीय नारी एक साथ विवाह अधिनियम, मनोविज्ञान, सामाजिक व्यवस्थाओं और मनुष्य होने के मर्म के सभी दरवाज़ों पर दस्तक दे रही है. करुणा के मुकाबले पति की संभावित तथा पूर्व-क्रूरता बौनी, अवैज्ञानिक और नकारात्मक खामोशी है. प्रश्न एक व्यक्ति की चाहत का नहीं, उस पति से सहवास का है जिसे संस्कारों, परंपराओं, मर्यादाओं, मान्यताओं और संभावनाओं तक ने केवल जसोदा बेन के लिए गढ़ा है.

ब्लॉग में 500 वी रिपोर्ट के अवसर पे


   ब्लॉग में 500  वी  रिपोर्ट के अवसर पे 

पी यू सी एल  के ब्लॉग  छत्तीसगढ़  के लोग   को शुरू हुए लगभग चार महीने हुए है ,हमने  कोशिश  की है की छत्तीसगढ़  से सम्बंधित जल जंगल संसाधनो की लूट और मानव अधिकार के मुद्दे  आप तक पहुंचे  , पता  नहीं आपने इस ब्लॉग को कभी खोला भी  हैं  की नही , आज इस ब्लॉग में 500  छोटे मोटे लेख ,रिपोर्ट या टिप्पणियाँ  पूरी हो रही है ,

कभी मौका मिले तो और छत्तीसगढ़ ले बाबत कोई घटना या लोगो के विचार पढ़ने की जरुरत हो तो इसे जरूर खोलें ,हम आगे भी यही प्रयास करते रहेंगे की छत्तीसगढ़  आवाज़  आप तक पहुंचे ,

धन्यवाद
डा लाखन  सिंह 

गर्भाशय कांड: आ गया एक रुका हुआ फैसला

गर्भाशय कांड: आ गया एक रुका हुआ फैसला


[ सीजी  खबर ]
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गर्भाशय कांड
रायपुर | संवाददाता: छत्तीसगढ़ मेडिकल काउंसिल ने सात डॉक्टरों का लाइसेंस निलंबित कर दिया है.छत्तीसगढ़ मेडिकल काउंसिल ने सुनवाई के पश्चात् छत्तीसगढ़ के सात डॉक्टरों का लाइंसेंस विभिन्न अवधि के लिये निलंबित कर दिया है. उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ मेडिकल काउंसिल जोकि डॉक्टरों को प्रैक्टिस करने के लिये लाइसेंस देती है ने छत्तीसगढ़ गर्भाशय कांड के आरोपी नौ डॉक्टरों पर सुनवाई की थी. 26 नवंबर तथा 12 दिसंबर को डॉक्टरों का पक्ष सुनने के बाद छत्तीसगढ़ मेडिकल काउंसिल ने इनमें से सात डॉक्टरों का लाइसेंस निलंबित किया है तथा दो डॉक्टरों को निर्दोष पाया है.
जिन डॉक्टरों के लाइसेंस निलंबित किये गये हैं उनमें डॉक्टर पंकज जायसवाल का लाइसेंस दो वर्ष के लिये निलंबित कर दिया गया है तथा उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई जायेगी. डॉक्टर मोहनी इदनानी और ज्योति दुबे का लाइसेंस आठ माह के निलंबित किया गया है. वहीं, डॉक्टर नलिनी मढ़रिया, नितिन जैन, प्रज्जवल सोनी और सोनाली वी जैन का लाइसेंस दो माह के लिये निलंबित किया गया है.

छत्तीसगढ़ गर्भाशय कांड-

उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के विभिन्न निजी नर्सिंग होम में वर्ष 2012 में 22 महिलाओं के गर्भाशय को गर्भाशय के ग्रीवा कैंसर का डर दिखाकर निकाल देने का मामला सामने आया था. इन डॉक्टरों पर आरोप है कि इन्होंने ग्रामीणों को गर्भाशय के कैंसर का डर दिखाकर इनसे सरकार के स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत आपरेशन कर दिये थे. गौरतलब है कि स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत एक साल में 30हजार रुपयों तक के चिकित्सा का खर्च सरकार वहन करती है.
छत्तीसगढ़ विधानसभा में जुलाई 2013 में एक प्रश्न के लिखित जवाब में बताया गया था कि वर्ष 2010 से 1013 के बीच छत्तीसगढ़ में महिलाओं के गर्भाशय निकालने के 1800 मामले सामने आये थे.
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने गरीबों को चिकित्सा सुविधा मुफ्त में मुहैय्या करवाने के लिये वर्ष 2007 में स्वास्थ्य बीमा योजना की शुरुआत की गई थी जिसके तहत स्मार्ट कार्ड के माध्यम से 30हजार रुपयों तक की चिकित्सा करवाई जा सकती है.
छत्तीसगढ़ गर्भाशय कांड की गूंज विदेशी मीडिया तक में पहुंच चुकी थी तथा छत्तीगढ़ विधानसभा में इस मुद्दे को कांग्रेस ने उठाया था. काफी समय से छत्तीसगढ़ की जनता इस रुके हुए फैसले को सुनना चाहती थी.

२ जनवरी को बूडा तालाब रायपुर धरना स्थल पर दोपहर 2 2 बजे से 5 तक ,आमंत्रण


 २ जनवरी को बूडा तालाब रायपुर  धरना स्थल पर दोपहर 2  2  बजे से 5  तक  ,आमंत्रण 

साथियों जोहार !

जेसा आप सभी जानते हे की मोदी सरकार ने कार्पोरेट के साथ अपनी प्रतिबद्धता जताते हुए उनके मुनाफे के लिए कार्य करते हुए एक और जन विरोधी निर्णय लिया हे I मोदी सरकार के दुवारा भू अधिग्रहण कानून को अध्यादेश के माध्यम से सशोधित किया हे, जिसमे रक्षा, औधोगिक कोरिडोर, ग्रामीण आधारभूत संरचना, बिजली, प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप के लिए भू अधिग्रहण के लिए 70 प्रतिशत भू स्वामियों की सहमती तथा सामाजिक प्रभाव अध्यन के प्रावधान को हटाया गया हे , साथ ही अध्यादेश के माध्यम से  इन प्रयोजनों के लिए बहु फसली जमीन के अधिग्रहण की अनुमति भी दे दी गई हे I

कोयला खदानों  के आवंटन के लिए लाये गए जन विरोधी अध्यादेश के बाद भू अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए लाया गया यह अध्यादेश न सिर्फ  गेर संवेधानिक हे बल्कि  जनतांत्रिक मूल्यों का भी  गला घोटता हे I यह  अध्यादेश बहुदलीय सहमती तथा संसदीय परम्पराओ का  भी मखोल उड़ाता हे जिसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए  I इस जन विरोधी अध्यादेश के विरोध में छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन प्रदेश के  अन्य जनतांत्रिक संगठनों के साथ मिलकर संयुक्त रूप से  आगामी २ जनवरी को बूडा तालाब के पास धरना स्थल पर दोपहर 2  बजे से  सांकेतिक विरोध प्रदर्शन करेगा और महामहिम राष्ट्रपति के नाम संविधान की रक्षा के लिए ज्ञापन प्रस्तुत करेगा I इस विरोध प्रदर्शन में आप सादर आमंत्रित हे I 

आप सभी साथियों से निवेदन हे की जो लोग रायपुर नहीं पहुच रहे हे वो अपने क्षेत्रों में जिलो में विरोध प्रदर्शन करे I 

भवदीय 
कामरेड नंदकुमार कश्यप  8458887358
रमाकांत बंजारे 99269943917
आलोक शुक्ला 9977634040               
छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन

लोकसभा सचिवालय: नाथूराम गोडसे असंसदीय शब्द

लोकसभा सचिवालय: नाथूराम गोडसे असंसदीय शब्द

Monday, December 29, 2014
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लोकसभा
नई दिल्ली | एजेंसी: भारतीय संसद में जिन शब्दों का उपयोग नहीं किया जा सकता उन्हें असंसदीय कहा जाता है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि संसद के शीत सत्र में जिस नाथूराम गोडसे का नाम इतना गूंजा वह भी लोकसभा सचिवालय के अनुसार असंसदीय शब्द है. संसद के शीतकालीन सत्र का समापन हाल ही में हुआ है. दोनों सदनों की कार्यवाही महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की सराहना के मुद्दे पर विपक्ष के हंगामे के कारण थम गई थी. सत्तापक्ष के एक सांसद ने गोडसे को देशभक्त बताया था और बाद में माफी मांग ली थी. गोडसे नाम मगर संसद के रिकार्ड से हटा दिया गया, क्योंकि इस नाम को ‘असंसदीय’ माना जाता है.
दरअसल, संसद में उपयोग नहीं करने लायक शब्दों की एक शब्दावली पहले से तैयार है, जिसमें नाथूराम गोडसे का नाम भी शामिल है.
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी पर आर्काइव रिकार्ड से असंसदीय शब्दों को हटाने की जिम्मेदारी दी गई है.
सत्र के आखिरी दिन उपसभापति पीजे कुरियन ने स्पष्ट किया कि नाथूराम गोडसे नाम को हटा दिया गया है, क्योंकि यह शब्द असंसदीय है.
इसी तरह हिटलर, मुसोलिनी, ईदी अमीन और रावण शब्द भी असंसदीय है और इनका प्रयोग संसद में वर्जित है.
अनार्किस्ट याने अराजकतावादी शब्द वर्जित है, लेकिन अनार्की याने अराजकता का उपयोग किया जा सकता है.
सांसदों को मिले हैंडबुक में लिखा है कि किसी भी शब्द को असंसदीय तय करने के मामले में अध्यक्ष का फैसला आखिरी होगा और उसके खिलाफ अपील नहीं की जा सकती.
मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी नेता पी. राजीव ने कहा, “सूची है, लेकिन फैसला अध्यक्ष लेते हैं. अध्यक्ष को अपने विवेक के आधार पर यह तय करना होता है कि किसी भी शब्द को रिकार्ड से हटाया जाए या नहीं.”
राजीव ने कहा, “आप गोडसे, रावण या हिटलर से किसी की तुलना नहीं कर सकते .. लेकिन यह परिस्थितियों पर निर्भर करती है और अध्यक्ष का फैसला आखिरी होता है. अलग-अलग स्थिति के आधार पर अलग-अलग समय में अलग-अलग फैसला लिया जा सकता है.”
उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्ट शब्द भी असंसदीय है. यह सूची में इसलिए शामिल किया गया था, क्योंकि 1958 में एक सांसद ने कहा था, “दोस्ती का यह मतलब नहीं है कि मैं अपनी पत्नी किसी कम्युनिस्ट को दे दूं.”
लोकसभा सचिवालय में मौजूद पुस्तक में हिंदी और अंग्रेजी के असंसदीय शब्दों की सूची कई सौ पृष्ठों में फैली हुई है.
पुस्तक का नाम है ‘असंसदीय अभिव्यक्तियां.’ इसका आखिरी संस्करण 2009 में प्रकाशित हुआ था. इसकी कीमत 1700 रुपये है. पिछले वर्ष तक सांसदों के लिए 25 फीसदी की छूट थी, लेकिन हाल में जारी लोकसभा बुलेटिन में इस पुस्तक की जानकारी देने वाले अनुच्छेद में इस छूट का जिक्र नहीं है.
पुस्तक पहली बार वर्ष 1999 में तैयार की गई थी.
वर्ष 2003 में ‘विदेशी’ शब्द को भी असंसदीय घोषित कर दिया गया था, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के एक सांसद ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया था. वही भाजपा आज सत्ता में है.

मानवाधिकार आयोग: ईसाइयों पर अत्याचार पर नोटिस

मानवाधिकार आयोग: ईसाइयों पर अत्याचार पर नोटिस

Tuesday, December 30, 2014
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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
नई दिल्ली | संवाददाता: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों को ईसाइयों पर हो रहे अत्याचारों के समाचार पर जानकारी मांगी है. समाचार पत्रों में ईसाइयों पर हो रहे अत्याचार की खबरे छपने के बाद आयोग ने सोमवार को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल तथा तमिलनाडु से चार हफ्तों में जानकारी मांगी है.
उल्लेखनीय है कि मानवाधिकार आयोग ने समाचार पत्रों में छप रहे समाचारों के आधार पर स्वतः संज्ञान लेते हुए यह कार्यवाही की है.
समाचार पत्रो में छपे खबरों के अनुसार छत्तीसगढ़ में चर्चो पर पथराव, आगजनी तथा तोड़फोड़ की गई है. इसके अवाला छत्तीसगढ़ में ईसाइ मिशनरीज स्कूलों को फरमान जारी किया गया है. समाचार पत्रों के खबरों के अनुसार छत्तीसगढ़ के जगदलपुर, भिलाई, दुर्ग, जशपुर, बस्तर तथा महासमुंद में ईसाइयों को पीडीएस का राशन लेने से रोकने की खबर है तथा इन्हे गांवों में घुसने से भी रोका गया.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्वतः संज्ञान लेते हुए माना कि यदि समाचार पत्रों में छप रहें खबर सत्य हैं तो यह मौलिक अधिकारों के उल्लंधन का मामला है.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इन घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये उठाये गये कदमों की जानकारी भी इन पांचों राज्यों से मांगी है.

क़ुर्बानी की निंदा पर पत्रकार पर मुक़दमा

क़ुर्बानी की निंदा पर पत्रकार पर मुक़दमा

  • 27 दिसंबर 2014
फातिमा नाउत
मिस्र की जानी मानी पत्रकार और कवयित्री फ़ातिमा नाउत पर क़ुर्बानी की आलोचना के लिए मुक़दमा चलाया जाएगा.
फ़ातिमा पर आरोप है कि उन्होंने भेड़ की क़ुर्बानी की आलोचना कर इस्लाम धर्म का अनादर किया है.
बताया जाता है कि नाउत ने मुसलमानों के त्यौहार ईद-उल-अज़हा(जिसमें जानवरों की क़ुर्बानी दी जाती है) पर जानवरों की बलि दिए जाने की परंपरा को इंसान के हाथों अब तक का सबसे बड़ा संहार बताया है.

बुरा सपना

ईद की नमाज
फ़ातिमा नाउत मिस्र में समाज के भीतर मौजूद वर्जनाओं पर अक्सर प्रहार करती रहती है.
पिछले साल एक टीवी कार्यक्रम में उऩ्होंने कहा था कि अरब क़ब्ज़े के बाद मिस्र के लोगों पर अरबी भाषा ज़बरदस्ती लाद दी गई.
इसके बाद फ़ेसबुक पर जब उन्होंने भेड़ की कुर्बानी की निंदा की तो उनके नाम से एक और विवाद जुड़ गया.
फ़ातिमा का कहना था कि भेड़ की कुर्बानी इसलिए दी गई क्योंकि, क़ुरान और बाइबिल में दिए गए अब्राहम और इस्हाक़ की कहानी के अनुसार, एक पिता ने अपने बेटे के बारे में बुरा सपना देख लिया था.

'स्वीकार और खंडन'

ईद उल अदहा, भेड़ की बलि
ईद उल अज़हा यानि कुरबानी वाली ईद के दिन जानवरों की बलि देने की परंपरा है.
स्थानीय मीडिया का कहना है कि फ़ातिमा ने अपने फ़ेसबुक पेज पर इस संदर्भ में की गई टिप्पणी की बात स्वीकार तो की है लेकिन इस बात का खंडन किया है कि ऐसा कर उन्होंने इस्लाम का अपमान किया है.
मिस्र में इस्लाम का अनादर करना एक अपराध है और इसके लिए पांच साल की जेल हो सकती है.
दुनिया भर में मुसलमान ईद-उल-अज़हा के दिन जानवरों की क़ुर्बानी देते हैं.
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भूमि अधिग्रहण क़ानून में क्या हुआ बदलाव? निखिल डे

भूमि अधिग्रहण क़ानून में क्या हुआ बदलाव? निखिल डे

  • 30 दिसंबर 2014
अरुण जेटली
नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने सोमवार शाम को भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलाव पर अध्यादेश जारी किया है.
इसके तहत 2013 में भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलाव को मंज़ूरी दी गई है. इसमें और पुराने क़ानून में क्या-क्या अलग है मोटे तौर पर?

समाज पर असर वाले प्रावधान को ख़त्म किया गया है

भारत में 2013 क़ानून के पास होने तक भूमि अधिग्रहण का काम मुख्यत: 1894 में बने क़ानून के दायरे में होता था.
लेकिन मनमोहन सरकार ने मोटे तौर पर उसके तीन प्रावधानों में बदलाव कर दिए थे.
ये भूमि अधिग्रहण की सूरत में समाज पर इसके असर, लोगों की सहमति और मुआवज़े से संबंधित थे.
ये जबरन ज़मीन लिए जाने की स्थिति को रोकने में मददगार था.
सोशल इंपैक्ट असेसमेंट की मदद से ये बात सामने आ सकती थी कि किसी क्षेत्र में सरकार के ज़रिये भूमि लिए जाने से समाज पर इसका क्या प्रभाव हो सकता है.
भूमि अधिग्रहण
ये इसलिए लागू किया गया था कि इससे ये बात सामने आ सकती थी कि इससे लोगों के ज़िंदगी और रहन-सहन पर क्या असर पड़ सकता है.
क्योंकि कई बार कई ऐसे लोग होते हैं जो ज़मीन के बड़े हिस्से के मालिक होते हैं लेकिन कई ऐसे होते हैं जिनके पास भूमि के छोटे टुकड़े मौजूद होते हैं.
सोशल इंपैक्ट असेसमेंट ये बात सामने ला सकता था कि पूरी अधिग्रहण प्रक्रिया का समाज पर क्या असर पड़ेगा.
इसके लिए आम सुनवाई की व्यवस्था पुराने क़ानून में थी.
सोमवार को मीडिया से बात करते हुए वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कुछ क्षेत्रों का नाम लेते हुए कहा कि इनमें सोशल इंपैक्ट असेसमेंट की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.

लोगों की रज़ामंदी के मामले से छुटकारा

2013 के क़ानून में एक प्रावधान रखा गया था लोगों सहमति का.
भट्टा गांव
सरकार और निजी कंपनियों के साझा प्रोजेक्ट में प्रभावित ज़मीन मालिकों में से 80 फ़ीसद की सहमती ज़रूरी थी.
पूरे तौर पर सरकारी परियोजनाओं के लिए ये 70 प्रतिशत था.
नए क़ानून में इसे ख़त्म कर दिया गया है.
वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है कि रक्षा, ग्रामीण बिजली, ग़रीबों के लिए घर और औद्योगिक कॉरीडोर जैसी परियोजनाओं में 80 फ़ीसद लोगों के सहमिति की आवश्यकता नहीं होगी.

नहीं बढ़ा मुआवज़ा

हालांकि संशोधन में मुआवज़े की दर को पहले जैसा ही रखा गया है.
(निखिल डे से बीबीसी संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली की बातचीत पर आधारित)