मोदी की वर्चुअल टीवी दहाड़
मोदी सरकार ने ‘मेक इन इण्डिया ‘ प्रचार अभियान का श्रीगणेश किया है। इसके लिए 25 क्षेत्रों को खोला गया है । सरकार चाहती है कारपोरेट घराने इन क्षेत्रों में दिल खोलकर निवेश करें । इस प्रचार अभियान में शेर को प्रतीक चिह्न, ग्लोबल कम्युनिकेशन और राष्ट्रवाद का कौशलपूर्ण ढंग से इस्तेमाल किया गया है। इस प्रचार अभियान की तमाम सदइच्छाएं राष्ट्रवादी तेवर के सामने बौनी हैं साथ ही जो प्रतीक चिह्न चुना गया है वह भी हमारे सरकारी तेवर से मेल खाता है ।
इस प्रचार अभियान की समूची रणनीति “मैं” के मुहावरे में निर्मित की गयी है। इस प्रचार अभियान से कितने नए उद्योग खुलते हैं यह तो भविष्य बताएगा लेकिन एक बात साफ़ तौर पर दिख रही है कि इस कैम्पेन के जरिए मोदी सरकार उद्योग जगत को राष्ट्रवाद के जरिए जोड़ना चाहती है। यह पिटा हुआ फ़ार्मूला है। कारपोरेट घराने कितने राष्ट्रवादी हैं और कितने विदेशवादी हैं यह उनके निवेश के पैटर्न को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। मसलन मोदी सरकार चाहती है कि देशी पूँजीपति विदेश की बजाय देश में कारख़ाने लगाएँ या पूंजी निवेश करें। वे यह भी कह रहे हैं कि उनको देश में अनुकूल निवेश का माहौल मिलेगा। ये दोनों ही चीज़ें सरकार के इरादे की अभिव्यक्ति हैं लेकिन इनका ग्लोबल- लोकल वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।
आज स्थिति यह है कि संचार – परिवहन- सड़क-बिजली सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने खड़ी है। अधिकांश राज्यों में निवेश के लायक न्यूनतम सुविधाएँ और परिवेश उपलब्ध नहीं है, ऐसे में भाषण से कोई परिवेश बनेगा इसमें संदेह है। भारत की राजनीतिक संरचनाएँ विविधतापूर्ण और असमान हैं। मोदी सरकार यदि पहले संरचनात्मक संरचनाओं में व्याप्त असमानताएँ कम करने लिए कोई बड़ा क़दम उठाती तो बेहतर परिणाम निकल सकते हैं। लेकिन मोदी सरकार की रुचि प्रचार में ज़्यादा है। मसलन् जिन कारपोरेट घरानों को सेज के नाम पर लाखों एकड़ ज़मीन आवंटित की जा चुकी है लेकिन बहुत कम सेज काम कर रहे हैं, ऐसे में पहले भारत के कारपोरेट घराने आवंटित सेज की ज़मीन पर प्रकल्प शुरु करें। बंद पड़े कारख़ानों को खोलें। लाखों कारख़ाने बंद पड़े हैं और इन कारख़ानों में काम करने वाले लाखों मज़दूरों की पगार आदि समस्याएँ अनसुलझी पड़ी हैं लेकिन मोदी सरकार को कोई चिन्ता नहीं है। जिन कारखानेदारों पर मज़दूरों का अरबों रुपया बक़ाया है उसे दिलाने की कोई अपील अभी तक मोदी सरकार ने नहीं की है। अनेक राज्य हैं जहाँ छठे वित्त आयोग के अनुसार पगार का भुगतान नहीं हो रहा।
जिस देश में सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय स्तर पर एक समान पगार न पाते हों वहाँ पर मोदी का उद्योगों को पुनर्रुज्जीवित करने का नारा प्रचार और इवेंट से अधिक महत्व नहीं रखता। मोदी सरकार यदि राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसे काम के लिए समान वेतन सुनिश्चित करवा दे तो यह देश की बहुत बड़ी सेवा होगी। लेकिन इस दिशा में कोई हरकत नजर नहीं आ रही। ऐसे में मोदी की टीवी दहाड़ महज़ वर्चुअल दहाड़ है इसका भारत की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नजर नहीं आता।
कारपोरेट घरानों को मात्र श्रम क़ानूनों में आमूलचूल परिवर्तन करके आकर्षित नहीं किया जा सकता। श्रम क़ानून हमारे सामाजिक वातावरण का बहुत छोटा अंश हैं वे समग्र नहीं हैं। श्रम क़ानूनों में कारपोरेट आकाओं की इच्छा के अनुकूल किया गया मौजूदा परिवर्तन अपराधीकरण को और बढ़ाएगा। सामाजिक अपराधीकरण से बचने का एकमात्र तरीक़ा है रेशनल श्रम क़ानूनों का निर्माण और अनुपालन।
कारपोरेट घरानों के पास रेशनल श्रम क़ानूनों का कोई विज़न नहीं है और इससे अपराधीकरण में गुणात्मक वृद्धि होती है। कहने का अर्थ है कि यदि मोदी सफल भी होते हैं तो देश में अपराधीकरण के सभी मानक धराशायी हो जाएँगे और देश में अपराधों की सुनामी आनी तय है। इससे सामाजिक तनाव और विभिन्न क़िस्म के अपराधों में इज़ाफ़ा होगा।
हमें नव्य उदारीकरण के नाम पर किए गए श्रम क़ानून सुधारों पर थोड़ा पुनर्विचार कर लेना चाहिए और उसके कुपरिणामों से सबक़ लेना चाहिए। मोदी सरकार इस पहलु पर विचार किए बिना आगे जाना चाहती है तो उसे चीन से सबक़ लेना चाहिए वहाँ श्रम क़ानूनों में किए गए सुधारों ने अपराधीकरण को कई गुणा बढ़ाया है।
रेशनल श्रम क़ानून समाज को सभ्य बनाते हैं जबकि इरेशनल श्रम क़ानून असभ्यता और अपराधीकरण को बढ़ावा देते हैं। मोदी का सपना सच होता है तो देश में असभ्यता और अपराधीकरण बढ़ेगा और यह मनमोहन सरकार के मार्ग पर चलना होगा। मनमोहन सिंह का आर्थिक स्वप्न समाज को अपराधीकरण की गटर में डुबाकर गया है और मोदी उस गटर को ही समृद्ध करना चाहते हैं।
इस प्रचार अभियान की समूची रणनीति “मैं” के मुहावरे में निर्मित की गयी है। इस प्रचार अभियान से कितने नए उद्योग खुलते हैं यह तो भविष्य बताएगा लेकिन एक बात साफ़ तौर पर दिख रही है कि इस कैम्पेन के जरिए मोदी सरकार उद्योग जगत को राष्ट्रवाद के जरिए जोड़ना चाहती है। यह पिटा हुआ फ़ार्मूला है। कारपोरेट घराने कितने राष्ट्रवादी हैं और कितने विदेशवादी हैं यह उनके निवेश के पैटर्न को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। मसलन मोदी सरकार चाहती है कि देशी पूँजीपति विदेश की बजाय देश में कारख़ाने लगाएँ या पूंजी निवेश करें। वे यह भी कह रहे हैं कि उनको देश में अनुकूल निवेश का माहौल मिलेगा। ये दोनों ही चीज़ें सरकार के इरादे की अभिव्यक्ति हैं लेकिन इनका ग्लोबल- लोकल वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।
आज स्थिति यह है कि संचार – परिवहन- सड़क-बिजली सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने खड़ी है। अधिकांश राज्यों में निवेश के लायक न्यूनतम सुविधाएँ और परिवेश उपलब्ध नहीं है, ऐसे में भाषण से कोई परिवेश बनेगा इसमें संदेह है। भारत की राजनीतिक संरचनाएँ विविधतापूर्ण और असमान हैं। मोदी सरकार यदि पहले संरचनात्मक संरचनाओं में व्याप्त असमानताएँ कम करने लिए कोई बड़ा क़दम उठाती तो बेहतर परिणाम निकल सकते हैं। लेकिन मोदी सरकार की रुचि प्रचार में ज़्यादा है। मसलन् जिन कारपोरेट घरानों को सेज के नाम पर लाखों एकड़ ज़मीन आवंटित की जा चुकी है लेकिन बहुत कम सेज काम कर रहे हैं, ऐसे में पहले भारत के कारपोरेट घराने आवंटित सेज की ज़मीन पर प्रकल्प शुरु करें। बंद पड़े कारख़ानों को खोलें। लाखों कारख़ाने बंद पड़े हैं और इन कारख़ानों में काम करने वाले लाखों मज़दूरों की पगार आदि समस्याएँ अनसुलझी पड़ी हैं लेकिन मोदी सरकार को कोई चिन्ता नहीं है। जिन कारखानेदारों पर मज़दूरों का अरबों रुपया बक़ाया है उसे दिलाने की कोई अपील अभी तक मोदी सरकार ने नहीं की है। अनेक राज्य हैं जहाँ छठे वित्त आयोग के अनुसार पगार का भुगतान नहीं हो रहा।
जिस देश में सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय स्तर पर एक समान पगार न पाते हों वहाँ पर मोदी का उद्योगों को पुनर्रुज्जीवित करने का नारा प्रचार और इवेंट से अधिक महत्व नहीं रखता। मोदी सरकार यदि राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसे काम के लिए समान वेतन सुनिश्चित करवा दे तो यह देश की बहुत बड़ी सेवा होगी। लेकिन इस दिशा में कोई हरकत नजर नहीं आ रही। ऐसे में मोदी की टीवी दहाड़ महज़ वर्चुअल दहाड़ है इसका भारत की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नजर नहीं आता।
कारपोरेट घरानों को मात्र श्रम क़ानूनों में आमूलचूल परिवर्तन करके आकर्षित नहीं किया जा सकता। श्रम क़ानून हमारे सामाजिक वातावरण का बहुत छोटा अंश हैं वे समग्र नहीं हैं। श्रम क़ानूनों में कारपोरेट आकाओं की इच्छा के अनुकूल किया गया मौजूदा परिवर्तन अपराधीकरण को और बढ़ाएगा। सामाजिक अपराधीकरण से बचने का एकमात्र तरीक़ा है रेशनल श्रम क़ानूनों का निर्माण और अनुपालन।
कारपोरेट घरानों के पास रेशनल श्रम क़ानूनों का कोई विज़न नहीं है और इससे अपराधीकरण में गुणात्मक वृद्धि होती है। कहने का अर्थ है कि यदि मोदी सफल भी होते हैं तो देश में अपराधीकरण के सभी मानक धराशायी हो जाएँगे और देश में अपराधों की सुनामी आनी तय है। इससे सामाजिक तनाव और विभिन्न क़िस्म के अपराधों में इज़ाफ़ा होगा।
हमें नव्य उदारीकरण के नाम पर किए गए श्रम क़ानून सुधारों पर थोड़ा पुनर्विचार कर लेना चाहिए और उसके कुपरिणामों से सबक़ लेना चाहिए। मोदी सरकार इस पहलु पर विचार किए बिना आगे जाना चाहती है तो उसे चीन से सबक़ लेना चाहिए वहाँ श्रम क़ानूनों में किए गए सुधारों ने अपराधीकरण को कई गुणा बढ़ाया है।
रेशनल श्रम क़ानून समाज को सभ्य बनाते हैं जबकि इरेशनल श्रम क़ानून असभ्यता और अपराधीकरण को बढ़ावा देते हैं। मोदी का सपना सच होता है तो देश में असभ्यता और अपराधीकरण बढ़ेगा और यह मनमोहन सरकार के मार्ग पर चलना होगा। मनमोहन सिंह का आर्थिक स्वप्न समाज को अपराधीकरण की गटर में डुबाकर गया है और मोदी उस गटर को ही समृद्ध करना चाहते हैं।
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