Sunday, August 31, 2014

केवल ओवैसी क्यों?





[खामोशी की चीख शीर्षक से 11 फरवरी 2013 को जनसत्ता में प्रकाशित] 



पर केवल ओवैसी ही क्यों पूछ रहे मेरे दोस्त की 
आँखों में कोई गुस्सा नहीं बस एक गहरा खालीपन था. गुस्सा तो वह शायद हो भी नहीं सकता था क्योंकि बीते तीन दशक में धीरे धीरे इस देश के साम्प्रदायिक सहजबोध का हिस्सा बना दी गयी तमाम रूढ़ियाँ इस प्यारे से दोस्त के व्यक्तित्व के सामने ध्वस्त हो जाती हैं. भगवा हमलों के जवाब में बढ़ती जा रही टोपियों के दौर में रोजों के बीच भी शराबखोरी कर लेने और फिर उसकी याद आने पर हलके से कुछ बुदबुदा कर माफी मांग लेने वाले इस प्यारे से दोस्त का होना भर न सिर्फ इस मुल्क में गंगाजमनी तहजीब के जिन्दा होने का सबसे बड़ा सबूत है बल्कि वहाबी इस्लाम के सूफी इस्लाम को खारिज करने की कोशिशों के एक दिन असफल हो जाने की जिन्दा उम्मीद भी.

हमने उसे सारी उम्र इस्लाम खतरे में है के नारों पर हँसते देखा है. देखा है कि कैसे उसने जहरीली तक़रीर करने आये मौलानाओं को बड़ी गंभीरता से सुनने के बाद धीरे से पूछा है कि मियाँ, ये सब तो ठीक है पर आप ये बताइये कि मस्जिदों पर ज्यादा हमले कहाँ होते हैं हिंदुस्तान में कि पाकिस्तान में? ये बताइए कि जेहादियों के हाथ ज्यादा कहाँ के मुसलमान क़त्ल होते हैं? और फिर स्तब्ध खड़े मौलाना को धीरे से यह कहते हुए भी कि मियाँ इस्लाम खतरे में तो है मगर इस पार नहीं, उस पार और वहां बचा लीजिये यहाँ अपने आप बच जाएगा.

हमने इस दोस्त की आँखों में कौम के स्वयंभू ठेकेदारों, फिर वह चाहे हिन्दू हों या मुसलमान, गुस्सा ही देखा था. हमारी साझेदारियों में इससे पहले ओवैसी और उनकी पार्टी मजलिस--इत्तेहादुल मुसलमीन सिर्फ एक बार आये थे वह भी तब जब उन्होंने प्रख्यात बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन पर हमला किया था और भारत के एक बहुत प्रगतिशील समझे जाने वाले शिक्षण संस्थान जेनयू में मुस्लिम कट्टरपंथियों के इस हमले पर पसरी गहरी चुप्पी के बीच हमने उनके खिलाफ पोस्टर चिपकाए थे, पर्चे बांटे थे.

ऐसा भी नहीं की हम हमेशा एक दूसरे से सहमत ही रहे हों. सच कहें तो भारत में इस्लाम पर लगातार बढ़ रहे दक्षिणपंथी हमले को लगभग खिलंदड़ाना अंदाज़ में खारिज कर देने की उसकी आदत हमारे बीच लगातार होने वाली लड़ाइयों का सबसे बड़ा सबब बनती रही थी. हमें लगता था कि उसका इस मुल्क की जनता के अमनपसंद होने पर बहुत गहरा यकीन कई बार उसे गहराते जा रहे संकट को देखने नहीं दे रहा.

आप गुजरात कहें और वो कहता कि यही वजह है कि भाजपा दुबारा कभी इस देश की सत्ता में नहीं आ पायी. आप न्याय के बारे में पूछें और वह कहेगा कि देर से सही गोधरा के तमाम बेगुनाह बरी तो हो गए न. आप दंगाइयों को अब तक सजा न मिलने के बारे में पूछें और हिन्दुस्तान की अदालतों में यकीन से लैस वह बतायेगा कि वे बच नहीं पायेंगे. आप सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र करें और वह कहेगा कि बरखुरदार, हालात इतने संगीन होते तो ये बेजुबान प्रधानमंत्री कभी यह दावा न कर पाता कि वैश्विक जेहाद में किसी हिन्दुस्तानी मुसलमान के शरीक न होने पर उसे गर्व है. 

पर सिर्फ ओवैसी क्यों पूछते उसी दोस्त की आँखों में इस बार वही यकीन गायब था. ऐसा भी नहीं कि उसके इस यकीन का छीजना हमें दिखा नहीं था. शहर बदल जाने के बाद आभासीय दुनिया में गाहेबगाहे मुठभेड़ हो जाने पर पूछे जाने वाले उसके सवालों में एक गहरी खामोशी और उससे भी गहरी उदासी थी. बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद उसने पूछा था कि इन्हें भी तिरंगे में लपेट दिया मियाँ? ये तो मुसलमानों को कैंसर कहते थे न और साम्प्रदायिक घृणा फैलाने के अदालत से सजायाफ्ता थे?

उसे अब तक साम्प्रदायिकता की आग के सामने अमन की मिसाल बने खड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश से आने पर गर्व था. राममंदिर आन्दोलन के चरम दौर में भी इस इलाके में दंगा करवा पाने की असफल कोशिशें अवाम पर उसको इंसानियत के जिन्दा होने का सबूत लगती थीं. पर फिर धीरे धीरे यह इलाका भी बदलने लगा था. हमें इस इलाके की हवाओं में फिरकापरस्ती का जहर घोलने की कोशिश कर रहे लोग अपने इरादों में कामयाब होते नजर आने लगे थे. 

रमजान काका का राम राम भगवा झंडों वाले जय श्रीराम में कब और कैसे बदल गया यह हम दोनों साथ साथ और साफ़ देख पा रहे थे.  एक बार कहा भी था उसने कि ये योगी आदित्यनाथ जैसे लोग और उनके खिलाफ कार्यवाही न करने वाली सरकारें ही हैं जो मुख्तार अन्सारियों को मुसलमानों का नेता बना देती हैं और इसे रोकना ही होगा.

इस बार उसने और किसी का जिक्र नहीं किया. सिर्फ इतना भर पूछा कि सिर्फ ओवैसी क्यों? उसकी खाली, भावहीन आँखों में मुझे इस सवाल से बचने की कोशिशों के नतीजे दिख रहे थे. याद रखिये कि हमने 1992 में ऐसे ही एक सवाल से बचने की कोशिश की थी और फिर इस मुल्क में कभी न होने वाले बमविस्फोट हमारे शहरों का आम नजारा हो गए थे. इस बार कीमत शायद और बड़ी हो.

न्याय, और सबके साथ न्याय ही एक देश को देश बना के रखता है. एक समुदाय को न्याय से वंचित रखने की कोशिशें न केवल मजहबी कट्टरपंथ को जन्म देती हैं और जिन्दा रखती हैं बल्कि उस समुदाय के भीतर की अमनपरस्त आवाजों को जिबह भी कर देती हैं. और फिर किसी भी धर्म के भीतर बैठे चंद मजहबी कट्टरपंथियों से लड़ना आसान है, पर पूरे समुदाय के हारे हुए यकीन से नहीं. 

No comments:

Post a Comment