शुक्रवार, 30 सितंबर 2016
सर्वोच्च न्यायालय का सिंगूर फैसला : एक बार फिर उठी बहस सार्वजनिक उद्देश्यों की परिभाषा पर
31 अगस्त को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल के सिंगूर में टाटा मोटर्स की नैनो कार बनाने वाली फैक्ट्री के लिए सरकार द्वारा किए गए जबरन भूमि अधिग्रहण के संबंध में ऐतिहासिक फैसला देते हुए पश्चिम बंगाल सरकार को आदेश दिया कि 10 हफ्तों के भीतर जमीन खोने वालों का उनकी जमीनों पर कब्जा पुनर्स्थापित किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ देश भर में चल रहे जनांदोलनों को एक नई राह दिखाई है। सिंगूर के बाद, और एक तरह से उसकी वजह से, 1894 के कानून में संशोधन कर भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 लागू किया गया। 2013 के प्रावधानों के अनुसार किसी भी कंपनी के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण में 80 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की पूर्व सहमति आवश्यक थी। केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश के जरिए इस प्रावधान में संशोधन की कोशिश पिछले साल असफल रही। किंतु बहुत सी राज्य विधायिकाओं में इस प्रावधान को हटाने के लिए 2013 के कानून में संशोधन कर दिया गया या फिर करने की प्रक्रिया चल रही है। इस संदर्भ में और खासकर 1894 के कानून के तहत लंबित मामलों में न्यायधीश गौड़ा ने कम से कम इस बात की तरफ इशारा किया है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में और ज्यादा छूट नहीं देगा, बल्कि इस बात की सख्त जांच की जाएगी कि कंपनी के लिए सरकार द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण वाकई सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ती करता है या नहीं। हम यहां पर आपके साथ सर्वोच्च न्यायालय के सिंगूर फैसले के एक प्रमुख हिस्से, सार्वजनिक हितों की परिभाषा, पर सेंटर पॉलिसी रिसर्च से नमिता वाही का एक विस्तृत विश्लेषण साझा कर रहे है;
सिंगूर मामले पर सर्वोच्च न्यायालय ने वैध सार्वजनिक उद्देश्यों की उस परिभाषा पर फिर से बहस छेड़ दी है जिसके तहत सरकार निजि स्वामित्व की जमीनों का बलपूर्वक अधिग्रहण कर सकती है। पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास कॉर्पोरेशन द्वारा टाटा मोटर्स के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण को सार्वजनिक उद्देश्य के तहत न होना बताते हुए न्यायाधीश गोपाल गौड़ा ने कंपनियों के लिए हुए भूमि अधिग्रहण वैध रूप से सार्वजनिक उद्देश्य के लिए हैं या नहीं की सख्त न्यायिक जांच का आदेश दिया है। जस्टिस गौड़ा के इस फैसले ने सार्वजनिक उद्देश्य की परिभाषा तथा कंपनियों के लिए होने वाले भूमि अधिग्रहण के लिए सरकार द्वारा घोषित सार्वजनिक उद्देश्य की वैधता के न्यायिक पुनर्विचार का अवसर दिया है।
औपनिवेशिक काल का भूमि अधिग्रहण कानून,1894, किसी भी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए तथा कानून में दिए गए प्रावधानों के मुताबिक मुआवजा अदा कर देने की स्थिति में सरकार द्वारा किसी भी जमीन का बलपूर्वक अधिग्रहण किया जा सकता था। सार्वजनिक उद्देश्य तथा मुआवजे का आधार इस तर्क पर आधारित था कि किसी को भी व्यक्तिगत रूप से ऐसे सार्वजनिक मालों का बोझ नहीं उठाना चाहिए जिसकी जिम्मेदारी, जनता के प्रतिनिधि होने के तौर पर, कानूनी रूप से सरकार की है। कानून में दिए गए प्रावधान जमीन से वंचित होने वाले को इस बात का पूरा मौका देता था कि वह यह साबित कर सके कि क्यों उसकी जमीन अधिग्रहित नहीं की जानी चाहिए या फिर जमीन के बदले दिया गया मुआवजा पर्याप्त है या नहीं।
1894 के कानून ने किसी भी कंपनी के लिए और सार्वजनिक उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए विभिन्न प्रावधान दिए हैं। कानून का भाग सात इस बात की तरफ इशारा करता है कि जब भी सरकार को किसी कंपनी के लिए भूमि अधिग्रहित करना है तो उसे यह घोषित करना होगा कि यह अधिग्रहण किसी ऐसे कार्य के लिए किया जा रहा है जो जनता के लिए उपयोगी साबित होगा। अपितु 1894 का वैधानिक इतिहास इसी तरफ इशारा करता है कि इस कानून का उद्देश्य कभी भी सभी कंपनियों के लिए अधिग्रहित करना नहीं था। कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण तभी वैधानिक हो सकता था जब उस कंपनी द्वारा किए गए कार्यों का उपयोग साधारण जनता की हित में किया जा सकता हो। इन प्रावधानों को इसी लिए समाहित किया जा सकता है ताकि सरकारें इसका निजी हितों के लिए इस्तेमाल न कर सके।
सर्वोच्च न्यायालय ने 1894 के कानून के दूसरे भाग के तहत सरकार द्वारा सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किए गए अधिग्रहण की विस्तार से व्याख्या की है। उन्होंने इस बात की लचीलता पर जोर देते हुए कहा कि समय, सरकार और समाज की आवश्यकताओं में परिवर्तन के साथ न्यायिक समावेश और बहिष्कार की प्रक्रिया से ही विकसित किया जा सकता है। न्यायालय ने इस धारणा से इंकार कर दिया कि सार्वजनकि उपयोग का मतलब सार्वजनिक उद्देश्य हो सकता है। इसके बजाए सरकार को यह दिखाने की जरूरत थी कि इस अधिग्रहण से व्यापक जनता या फिर जनता के किसी एक हिस्से का किसी भी रूप में फायदा हो रहा हो।
हालांकि, कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण के संबंध में 1959 में सर्वोच्च न्यायालय में आर.एल.अरोड़ा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार केस ने एक दूसरी ही कसौटी रखी जिसने इस बात को स्पष्ट किया कि कंपनी द्वारा किया गया कार्य सीधे-सीधे जनता के हित में हो, जैसे कि कोई स्कूल या फिर अस्पताल। केवल यह पर्याप्त नहीं है कि कार्य का उत्पाद जनता के लिए फायदेमंद हो। इसके अलावा सरकार द्वारा कंपनी के लिए किए जा रहे अधिग्रहण के समय पर की गई सार्वजनिक उद्देश्य की घोषणा इस कसौटी पर खरी उतरती है या नहीं इसकी जांच न्यायालय करेगा। यह एक सख्त जांच कसौटी थी जिसने न्यायालय द्वारा सरकारी कार्यों में व्यवधान डालने के एक अन्य उदाहरण के बतौर सरकारों का नाखुश कर दिया।
हालांकि 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने यू-टर्न लेते हुए सोमवंती बनाम पंजाब सरकार के मामले फैसला दिया कि सरकार द्वारा कंपनियों की ओर से किए जा रहे भूमि अधिग्रहण के लिए की गई सार्वजनिक उद्देश्य की घोषणा अपने आप में ऐसे उद्देश्य का पर्याप्त साक्ष्य है और न्यायालय में उसमें तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगा जब तक कि उसमें सरकार की ताकत का इस्तेमाल करते हुए किसी तरह की कोई धोखाधड़ी या फिर फर्जीबाड़ा न किया गया हो। कोर्ट ने यह भी रखा कि अधिग्रहण के दौरान होने वाले खर्चों में कंपनी की ओर से सरकार द्वारा किया गया न्यूनतम योगदान भी अधिग्रहण को सार्वजनिक उद्देश्य के लिए बना देगा।
इस अनुमोदक व्याख्या ने सरकार को खुली छूट दे दी कि वह कानून के सातवें भाग के तहत कंपनियों की तरफ भूमि अधिग्रहण के लिए दिए गए कठिन प्रावधानों को मात्र सार्वजनिक उद्देश्य घोषित कर और अधिग्रहण में होने वाले खर्चे में नाममात्र का योगदान करके नरअंदाज कर सके कानून के दूसरे भाग के तहत आसान प्रावधानों का पालन कर सके। पश्चिम बंगाल औद्योगिक निर्माण कॉर्पोरेशन द्वारा टाटा मोटर्स के लिए किए गए बलपूर्वक अधिग्रहण, जो कि पूरी तरह से टाटा मोटर्स द्वारा वित्त पोषित था, किसी भी तरह से असामान्य नहीं था।
1950-2015 के दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए भूमि अधिग्रहण संबंधी मामलों में दिए गए फैसलों के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा किए गए एक व्यापक अध्ययन में पाया गया कि लगभग 40 प्रतिशत मामलों में जहां भी भूमि अधिग्रहण हुआ है वहां पर वैधता को जांचने की जरूरत है। 10 केस जिन्हें चुनौती दी गई थी उनमें से 4 मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने मौजूदा प्रावधानों के अनुकूल न होने की वजह से निरस्त कर दिया था। किंतु सोमवंती के मामले में न्यायालय के नजरिए को देखते हुए हम पाते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने 1 प्रतिशत से भी कम मामलों में सरकार की सार्वजनिक उद्देश्यों की परिभाषा के आधार पर अवैध घोषित किया हो।
सिंगूर में जमीन से वंचित होने वाला तबका जमीन का इस्तेमाल खेती और खेती आधारित उद्योगों के लिए करता था। उन्होंने 1894 कानून के प्रावधानों के तहत उन्होंने भूमि अधिग्रहण पर आपत्ति दर्ज की थी, किंतु सरकार ने उनकी आपत्ति को अनसुना कर दिया। तब जमीन खोने वालों ने इस अधिग्रहण को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। जब अभी उनकी अपील न्यायालय में लंबित ही थी तभी पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम ने जमीनों पर कब्जा कर लिया। जमीन देने के लिए इच्छुक लोगों को मुआवजा दे दिया गया और अनिच्छुक लोगों को जबरदस्ती खदेड़ दिया गया। इसके बाद जमीन खोने वालों की तरफ से लगातार विरोध और नाकेबंदी हुई जिसने अंततः 2008 में टाटा को अपनी परियोजना बंद कर देने पर मजबूर किया।
न्यायधीश गौड़ा और अरूण मिश्रा में इस बात पर विवाद खड़ा हो गया कि सरकार द्वारा टाटा मोटर्स के लिए किया गया अधिग्रहण कानून के भाग दो के तहत “सार्वजनिक उद्देश्यों” के तहत आता है या फिर भाग सात के तहत “कंपनी के लिए” के तहत आता है। किंतु वह इस बात पर एकमत थे कि प्रक्रिया जो भी लागू होती हो सरकार ने उसका पालन नहीं किया है। इस मामले में सरकार द्वारा की गई कार्रवाईयों की कड़ी भर्त्सना करते हुए न्यायाधीशों ने पाया कि अधिग्रहण की प्रक्रिया में किसी भी तरह से दिमाग नहीं लगाया गया। उन्होंने यह भी कहा कि भूमि खोने वालों की आपत्ति पर हुई कलेक्टर की जांच नकली और आँखों का धोखा थी। अतः न्यायालय ने पश्चिम बंगाल सरकार को 10 हफ्तों के अंदर सभी जमीन खोने वालों का जमीन पर कब्जा स्थापित करने का आदेश दिया।
हालांकि पिछले 44 सालों के उदाहरणों के विपरीत, न्यायधीश गौड़ा ने इस बात पर जोर दिया कि इस मामले में न तो औद्योगिक विकास योजना किसी भी जनहित को पूरा करती थी और न ही अधिग्रहण की लागत में सरकार द्वारा कोई योगदान किया गया था। कंपनी के लिए सरकार द्वारा किया गया यह अधिग्रहण 1894 के कानून के तहत सार्वजनिक उद्देश्य की जरूरतों को पूरा नहीं करता था। प्रभावकारी तरीके से न्यायधीश गौड़ा का यह मत आर.एल.अरोड़ा मामले में न्यायालय के मत को पुनर्स्थापित करता था।
न्यायधीश मिश्रा कानून और तथ्यों के संदर्भ में न्यायधीश गौड़ा से असहमत थे। सोमवंती केस का उदाहरण लेते हुए उन्होंने स्थापित किया कि हालांकि की मुआवजे की रकम टाटा मोटर्स द्वारा जमा की गई थी, किंतु जमीन देने वालों को उसका भुगतान पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम द्वारा किया गया था, जो कि एक वैधानिक संस्थान है। अधिग्रहण कंपनी के लिए किए जाने के बावजूद, सार्वजनिक उद्देश्यों की सराकरी घोषणा चुनौती से परे थी।
सिंगूर के बाद, और एक तरह से उसकी वजह से, 1894 के कानून में संशोधन कर भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 लागू किया गया। 2013 के प्रावधानों के अनुसार किसी भी कंपनी के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण में 80 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की पूर्व सहमति आवश्यक थी। केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश के जरिए इस प्रावधान में संशोधन की कोशिश पिछले साल असफल रही। किंतु बहुत सी राज्य विधायिकाओं में इस प्रावधान को हटाने के लिए 2013 के कानून में संशोधन कर दिया गया या फिर करने की प्रक्रिया चल रही है। इस संदर्भ में और खासकर 1894 के कानून के तहत लंबित मामलों में न्यायधीश गौड़ा ने कम से कम इस बात की तरफ इशारा किया है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में और ज्यादा छूट नहीं देगा, बल्कि इस बात की सख्त जांच की जाएगी कि कंपनी के लिए सरकार द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण वाकई सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ती करता है या नहीं। चूंकि न्यायालय ने सार्वजनिक उद्देश्यों के आधार पर केस का फैसला नहीं किया, खासकर इसलिए क्योंकि दोनों ही न्यायधीश इस मसले पर एकमत नहीं हो सके, सार्वजनिक उद्देश्य का कानून तब तक अस्पष्ट रहेगा जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में कोई ठोस फैसला न दे।
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