Sunday, March 5, 2017

चुनिन्दा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए कोयला मंत्रालय ने खोला पिछले दरवाज़े का रास्ता *


                                                                                                                                                                     प्रेसविज्ञप्ति        दिनांक 5 मार्च 2017

चुनिन्दा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए कोयला मंत्रालय ने खोला पिछले दरवाज़े का रास्ता

नीलामी से बचने के लिए सरकारी कंपनियों के साथ हुए बड़े पैमाने पर समझौते

 छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ,रायपुर
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जब मई 2016 में मोदी सरकार ने अपने एक वर्षीय कार्य का लेखा जोखा प्रस्तुत किया, उसमें पारदर्शी एवं निष्पक्ष कोयला खदानों का आवंटन सबसे प्रमुख उपलब्धियों में से एक गिनाया गया था l सरकार ने दावा किया की 29 खदानों की नीलामी के ज़रिये राज्य सरकारों को 1.72 लाख करोड़ रुपयों का फायदा पहुंचा है l  उस समय लगभग सभी मीडिया एवं विशेषज्ञों ने नीलामी प्रक्रिया का स्वागत किया था कि इसके ज़रिये घोटालों और क्रोनी-कैपिटलिज्म का दौर अब पीछे छोड़ दिया गया है जिसके कारण कोलगेट जैसे गंभीर घोटाले हुए थे जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ऐतिहासिक निर्णय में 214 कोयला खदानों का आवंटन निरस्त कर दिया गया था |

परन्तु इस उपलब्धि के मात्र 2 साल बाद ही ऐसा प्रतीत होता है की पारदर्शी नीलामी से सरकार की रूचि कहीं पीछे छूट गई है और मनमाने रूप से चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को आवंटन में फायदा पहुंचाने का दौर फिर से वापस आ गया है l इस बार सरकार ने एक नए कानूनी प्रक्रिया का निजाद किया है जिसे एम.डी.ओ. (MDO) अर्थात माइन डेवलपर कम ऑपरेटर कहा जाता है l इस रास्ते से सरकारी कंपनियों की मिलीभगत से कोयला खदानों का पूरा विकास एवं संचालन पिछले दरवाज़े से सरकार के करीब कॉरपोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है और पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं l  ऐसे में अदानी जैसी कंपनियां, जिन्हें 2015 की नीलामी प्रक्रिया में कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली थी, वह भी देश में सबसे बड़े कोयला खदानों के मालिक बनने का सपना देखने लगे हैं l  वर्तमान में जारी कॉरपोरेट प्रेजेंटेशन में अदानी ने कहा है की 3 साल में वह 150 मिलियन टन  से अधिक का उत्पादन करेंगे जबकि उनके पास अभी 10 मिलियन टन की भी उत्पादन क्षमता नहीं है l  सितम्बर 2016 में आयोजित एक कोल मार्केट्स कांफ्रेंस में अदानी माइनिंग विभाग के चीफ कमर्शियल ऑफिसर राजेश अग्रवाल ने इस क्षमता उत्पादन का रास्ता भी साफ़ बताया जिसमें कहा गया की उन्हें कम से कम 15 नए एम.डी.ओ. कॉन्ट्रैक्ट मिल जाने का पूर्ण विशवास है l  जिस कंपनी को नीलामी प्रक्रिया में सफलता ना मिली हो, उसको ऐसा विश्वास  होना गंभीर सवाल खड़े करता है l साथ ही छत्तीसगढ़ में अदानी के इस विश्वास का आधार भी दिखाई दे रहा है जहां लगातार नए खदानों के एम.डी.ओ. आवंटन में अदानी को ही सफलता मिलती नज़र आ रही है जैसे परसा ईस्ट केते बासेन, परसा, केते  एक्सटेंशन, गारे  पेलमा -1, इत्यादि l

तथाकथित पारदर्शी और निष्पक्ष नीलामी कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया का क्या हुआ ?

हालांकि 2015 में भी नीलामी प्रक्रिया के बारे में कई सवाल उठाये गए थे, जिस पर विभिन्न न्यायालयों में कई केस लंबित हैं, फरवरी और मार्च में दो चरणों में कराए गए कोयला नीलामी को खनिज आवंटन की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण और अच्छे कदम के रूप में देखा गया था l परन्तु, आश्चर्यजनक बात यह है की मार्च 2015 के बाद से सरकार ने मानो नीलामी प्रक्रिया को जैसे दरकिनार ही कर दिया हो और लगभग सभी खदानों को अलोटमेंट रूट (आवंटन) के ज़रिये सरकारी कम्पनियों को गैर-प्रतिस्पर्धी नीलामी के ही आवंटितकर दिया l 2015 के बाद से कोयला मंत्रालय ने 61 से अधिक कोल ब्लाकों को  राज्य सरकार की  कंपनियों को आवंटित किया जबकि इस बीच केवल 3 खदानों की ही नीलामी हुई l  इससे ना सिर्फ नीलामी प्रक्रिया की प्रभावशीलता  बल्कि सरकार की मंशा पर भी बड़े सवाल खड़े होते हैं l नीलामी प्रक्रिया की विफलता का अंदाजा कोयला खदानों के तीसरे चरण के आवंटन से ही स्पष्ट हो गया था जब 13 कोयला खदानों की नीलामी को केवल इसलिए रद्द किया गया क्यूंकि उनके लिए पर्याप्त कंपनियों ने बोलियां ही नहीं लगाईं l  चौथे चरण को तो पूरी ही तरह से निरस्त करना पड़ा क्यूंकि उसमें चुने गए सभी 9 कोयला खदानों में पर्याप्त रुचि नहीं दिखाई पड़ी l  इसके बाद तो सरकार ने मानो नीलामी प्रक्रिया को जैसे छोड़ ही दिया और किसी नए खदान की नीलामी की कोशिश  ही नहीं की l सरकारी कंपनियों को गैर-प्रतिस्पर्धी आवंटन के ज़रिये 61 कोयला खदान आवंटित की गयी जिससे लगभग 17 बिलियन टन के कोल रिज़र्व को इन कंपनियों को सौंप दिया गया l  इसकी तुलना में नीलामी प्रक्रिया से केवल 2 बिलियन टन से भी कम कोयला रिज़र्व का आवंटन किया गया l इन आंकड़ो से साफ़ है की कोयला की पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया पूरी तरह से विफल है और उसकी सफलता का सरकार द्वारा गुणगान मात्र ढोंग और छलावा ही है |

तालिका 1:नीलामी प्रक्रियाके ज़रिये निजी कंपनियों को आवंटित कोयला खदानें

राज्य

कोल ब्लाकों  की संख्या

कुल माइनएबल रिज़र्व

(मी.टन)

कुल कोयला उत्पादन क्षमता

(मी. टन प्रति वर्ष)

छत्तीसगढ़

7

348

12.4

झारखंड

9

349

12.94

मध्य प्रदेश

5

295

5.65

महाराष्ट्र

5

64

1.62

उड़ीसा

3

446

13.87

पश्चिम बंगाल

3

157

4.9

कुल

32

1,659

51.38



टेबल2: अलोटमेंट रूट के ज़रिये सरकारी को आवंटित कोयला खदानें

राज्य

No. of coal blocks

Total estimated reserves (MT)

छत्तीसगढ़

14

5,305

झारखंड

14

5,529

मध्य प्रदेश

3

997

महाराष्ट्र

8

541

उड़ीसा

10

3,753

तेलेंगाना

2

85

पश्चिम बंगाल

10

1,107

कुल

61

17,317



एम.डी.ओ. (MDO) मॉडल और कंपनियों का पिछले दरवाज़े से प्रवेश

जिन भी सरकारी कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित की गयी हैं, लगभग सभी ने या तो निजी कंपनियों की एम.डी.ओ. (MDO) के रूप में नियुक्ति कर दी हैं या फिर वो इस प्रक्रिया में हैं l एम.डी.ओ. अर्थात  माइन डेवलपर कम ऑपरेटर कोयला खदान के विकास एवं संचालन के लिए ज़िम्मेदार होता है, जिसमें सभी पर्यावरणीय स्वीकृतियां लेना, भूमि अधिग्रहण करना, माइन के संचालन के लिए अन्य कांट्रेक्टर की नियुक्तियां, कोयला परिवहन, इत्यादि सभी खनन सम्बंधित गतिविधियाँ शामिल हैं l  अतः इस रास्ते से कोयला खदान का पूरा नियंत्रण निजी कंपनियों के पास पहुँच जाता है, जबकि दस्तावेजों में जिम्मेदारियां सरकारी कंपनी के पास रह जाती हैं l  यह मॉडल ना केवल प्रतिस्पर्धी नीलामी से बचाकर निजी कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित करने का पिछले दरवाज़े का रास्ता है, बल्कि माननीय सुप्रीमकोर्ट के कोलगेट केस में 2014 के निर्णय की मूल भावना की भी घोर अवमानना है l  सितम्बर 2014 को अपने ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने उस प्रक्रिया पर भारी सवाल उठाते हुए, गैरकानूनी करार दिया था, जिस प्रक्रिया से सरकारी माइनिंग कंपनियां निजी कंपनियों के साथ जॉइंट वेंचर (संयुक्त उपक्रम) बना लेते थे जिससे माइनिंग का लाभ निजी कंपनियों के पास चला जाता था l  सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था की ऐसी प्रक्रिया पिछले दरवाज़े से निजी कंपनियों को लाभ दिलाने का कामकर रही है और इस ज़रिये सरकार मनमाने रूप से चुनिंदा कंपनियों को लाभ पहुंचा रही है l एम.डी.ओ. मॉडल पूरी प्रतिस्पर्धी नीलामी प्रक्रिया का भी मज़ाक उड़ा देता है और उसकी प्रभावशीलता को ही ख़त्म कर देता है क्यूंकि कंपनियों को अब नीलामी प्रक्रिया के बिना ही मनमानी खदानें आवंटित की जा सकती हैं l  उदाहरण के तौर पर अदानी कंपनी ने 2015 में हुई नीलामी प्रक्रिया में विशेष भाग नहीं लिया परन्तु फिर भी उसे छत्तीसगढ़ में 4 खदानों के MDO कॉन्ट्रैक्ट अभी तक मिल गए हैं और वह अन्य बड़ी खदानों के MDO कॉन्ट्रैक्ट लेने की भरपूर कोशिश कर रहा है जैसा की गारे पेलमा सेक्टर 1,2,3, गिधमुड़ी पतुरिया, मदनपुर साउथ, इत्यादि, ये सभी छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी खदानें जिन्हें अब विभिन्न राज्य सरकारों को आवंटित कियागया है  |

एम.डी.ओ. प्रक्रिया से निजी कंपनियों को मनमानी खदानें मिलने के अलावा कई अन्य लाभ भी हैं l  इस रास्ते से निजी कंपनियां राज्य सरकार की कम्पनियों से लाभ बंटवारे के सौदे कर सकते हैं, जोकि नीलामी से मिली खदानों से मिले लाभ से कहीं अधिक फायदेमंद होते हैं l यह इसलिए संभव है क्यूंकि अलोटमेंट रूट से मिली खदानों पर सरकारी कंपनी को बहुत कम लगभग 100 -150  रूपये प्रति टन की रोयल्टी देनी पड़ती है जबकि प्रतिस्पर्धी नीलामी में यह रोयल्टी की दर 3500 रूपये प्रति टन तक भी जा सकती है l ऐसे में इसका मुनाफे का महत्वपूर्ण हिस्सा निजी कंपनियों के पास चला जाता है l  इसके अलावा एम.डी.ओ. के रास्ते से निजी कंपनियां कई महत्वपूर्ण माइन विकास सम्बंधित जोखिमों की तथा अग्रिम भुगतान की ज़िम्मेदारी को भी राज्य सरकारों पर स्थानांतरित कर सकती है l साथ ही इस रास्ते से निजी कंपनियों को बड़ी खदानों का भी संचालन मिल जाता है जोकि सामान्यतः केवल सरकारी कंपनियों के लिए ही सुरक्षित रखी गई हैं l  इस रास्ते से पक्षपात एवं क्रोनी कैपिटलिज्म को भी बढ़ावा मिलता है जिसके कई उदाहरण हमने कोलगेट स्कैम में देखे हैं l  ऐसे में यह बिलकुल आश्चर्यजनक नहीं है की अदानी जैसे बड़े कॉरपोरेट घरानों ने नीलामी प्रक्रिया में अपने संसाधन और ताकत को व्यर्थ करने की जगह एम.डी.ओ. के आसान रास्ते को चुना है l पर सवाल यह खड़ा होता है की क्या यह राष्ट्र एवं जन हित में है ?

छत्तीसगढ़ राज्य के सम्बन्ध में एम.डी.ओ. के परिणाम-

रोयल्टी भुगतान राज्य सरकार को मिलने वाले खनिज राजस्व का प्रमुख हिस्सा होता है l ऐसे में खनिज आवंटन के लिए अलोटमेंट रूट को चुनना खनिज राजस्व की क्षमता को बहुत कम कर देता है जबकि इसका कुछ फायदा उस राज्य सरकार को मिलता है जिसे यह खदान आवंटित हुई है l  ऐसे देखा जाए तो इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बड़ा नुक्सान छत्तीसगढ़ राज्य पर ही पड़ा है जहां राज्य में स्थित कोल ब्लाकों  का एक बड़ा हिस्सा अन्य राज्यों को आवंटित किया गया है l  हालांकि राज्य में स्थित 7 कोयला खदानों को नीलामी के माध्यम  से दिया गया हैं , ये सभी खदानें बहुत छोटी थी जिनकी कुल क्षमता मात्र 12.4 मिलियन टन प्रतिवर्ष है और इनमें कुल माइन रिज़र्व 348 मिलियन टन ही हैं l  लेकिन इन खदानों की नीलामी से यह तो सिद्ध हो गया की छत्तसीगढ़ राज्य में कोयला की रोयल्टी की दर औसतन 2400 रूपये प्रति टन है l  लेकिन इस महत्वपूर्ण खनिज राजस्व की क्षमता के बावजूद, राज्य के अधिकाँश बड़ी खदानों को कौड़ियों के भाव पर विभिन्न राज्य सरकारों को दे दिया गया l  जैसा की राजस्थान सरकार की कंपनी को आवंटित तथा अदानी द्वारा संचालित परसा ईस्ट केते बासेन खदान ही अपने आप में पूरी नीलामी हुए 7 खदानों से अधिक क्षमता की है – 15 मिलियन टन का प्रतिवर्ष उत्पादन तथा 450 मिलियन टन के कोयला रिज़र्व l इसी तरह गुजरात राज्य की सरकारी कंपनी को आवंटित गारे पेलमा सेक्टर – 1 खदानकी वार्षिक उत्पादन क्षमता 21 मिलियन टन है और कुल रिज़र्व 900 मिलियन टन से भी अधिक हैं l  कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ में 14 कोल ब्लॉक विभिन्न राज्य सरकारों को अल्लोटमेंट रूट से आवंटित किये गए हैं जिनकी कुल रिज़र्व 5.3 बिलियन टन से अधिक है और लगभग यह सभी खदानों के लिए MDO नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है |

पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्रों में भी मुनाफे के लिए आवंटित किये गए कोल ब्लाक –

छत्तीसगढ़ में वर्तमान में दो बड़े कोयला क्षेत्र हैं हसदेव अरण्य एवं मांड रायगढ़ l ये दोनों  आदिवासी बाहुल्य, सघन वनक्षेत्र हैं जिसमे समृद्ध जैव विविधता वन्य प्राणियों का आवास और कई महत्वपूर्ण जलाशय और नदियों का केचमेंट हैं l पर्यवार्नीय संवेदनशील इन क्षेत्रों के संरक्षण की प्राथमिकता को नजरंदाज कर सिर्फ कार्पोरेट मुनाफे के लिए कोल ब्लाको का आवंटन किया जा रहा हैं l यहाँ तक कि अन्य राज्यों को कमर्शियल माइनिंग के लिए कोल ब्लॉक  आवंटित किये गए हैं जिनमें  अंत-उपयोग को बिलकुल नज़रअंदाज किया गया है, जैसा की मदनपुर साउथ खदान आंध्र प्रदेश की सरकार को कमर्शियल माइनिंग के लिए दी गयी है l  ऐसे में यह आश्चर्यजनक है की छत्तीसगढ़ सरकार ने इसका कुछ विरोध नहीं किया और अन्य राज्य सरकार, जोकि अपने आप में अमीर प्रदेश है, को अपने संसाधन से राजस्व लाभ लेने दिए l इन क्षेत्रों में खनन से उत्पन्न पर्यावरणीय एवं सामाजिक दुष्प्रभाव बहुत ही गंभीर होंगे जिनको राज्य सरकार अनदेखी कर रही हैं l

कोयला आवंटन के MDO मॉडल से खड़े हुए कुछ प्रमुख सवाल

कोयला खदानों के अलोटमेंट रूट से आवंटन और उसके पश्चात निजी कंपनियों की MDO नियुक्ति की इस प्रक्रिया से कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं l क्या इस प्रक्रिया से विवेकाधीन और मनमाने रूप से चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को बहुमूल्य राष्ट्रिय सम्पदा को कौड़ियों के भाव नहीं सौंपा जा रहा है ? और क्या इससे सुप्रीम कोर्ट के 2014 के आदेश और उसमें उठाये गए निष्पक्षता और पारदर्शिता के मुद्दों का मज़ाक भर नहीं बन गया है ? जब सरकार ने 2015 में दावा किया था की उसने एक अत्यंत सफल कोयला नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत की है, तो फिर क्यूँ उससे अब मुंह मोड़ लिया ? और जब यह स्पष्ट है की प्रतिस्पर्धी नीलामी के रास्ते अधिक रोयल्टी मिलती है, तो क्यूँ बहुमूल्य राजस्व को व्यर्थ गंवाया जा रहा है? और यह पिछला दरवाज़ा खोलने से क्या सरकार ने नीलामी का प्रमुख दरवाज़ा ही बंद नहीं कर दिया है क्यूंकि जब आसानी से MDO के माध्यम से खदान का नियंत्रण एवं संचालन मिल जाए, तो फिर कौन सी निजी कंपनी नीलामी में जोखिम उठाने की कोशिश करेगी ? क्यूँ पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण खदानों को नीलामी में नहीं उतारा जाता और उनका अलोटमेंट रूट से आवंटन कर दिया जाता है? क्या इसमें निजी कंपनियों को स्वीकृति ना मिलने से जोखिम से बचाने की साज़िश तो ना समझा जाए ? और कोयला उत्पादन बढ़ाने की ऐसी क्या जल्दी है की उसमें अंत-उपयोग को भी ना देखा जाए और कमर्शियल माइनिंग के माध्यम से चंद मुनाफे के लिए बहुमूल्य संपदा का दोहन और पर्यवरण का विनाश कर दिया जाए ? ऐसे में सवाल तो सरकार की पूरी कोयला आवंटन नीति और कोल माइंस (विशेष उपबंध) अधिनियम पर भी खड़े होते हैं l क्या यह नीति वाकई देश की ऊर्जा सुरक्षा के लिए बनाई गई है जैसा की सरकार ने दावा किया था ? या फिर इससे मिलते राज्य सरकारों के खनिज राजस्व में कुछ इज़ाफे के मकसद से इस नीति को बनाया गया है ? या फिर कहीं इसका असल मकसद राज्य सरकार के हितों या पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों की अनदेखी कर केवल कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को मुनाफा पहुँचाना ही तो नहीं है ?

मांग पत्र

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन का मानना है की कोयला खदानों के आवंटन की प्रक्रिया केवल अदानी जैसे कुछ कॉरपोरेट घरानों को मुनाफा पहुंचाने के लिए ही बनाई गयी हैं जो प्रतिस्पर्धी और पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया से बचना चाहते हैं और कम मूल्यों पर देश के बहुमूल्य खनिज संसाधनों को हथिया कर उससे निजी लाभ कमाना चाहते हैं l  जिन खदानों को पर्यावरणीय स्वीकृतियां मिलने में कठिनाई आती, उन सभी को नीलामी प्रक्रिया की सार्वजनिक जांच से बचाकर अलोटमेंट रूट से आवंटित कर दिया गया जिससे मनमाने और गैरकानूनी रूप से स्वीकृतियां दे दी जाएँ l इस पूरी प्रक्रिया में छत्तीसगढ़ राज्य को खनिज राजस्व में गंभीर नुक्सान पहुंचा है और इसका सारा लाभ अदानी जैसी कंपनियों को मिला है जोकि आज छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ी कोयला कंपनी बनने की तरफ तेज़ गति से अग्रसर है, और जिसकी हसदेव अरण्य और मांड-रायगढ़ क्षेत्र के विशाल कोल भण्डार कर नज़र है |

छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन इस पूरी कोयला खदानों के आवंटन की प्रक्रिया की निष्पक्ष जांच की मांग करता है जिसमें विशेष रूप से सभी एम.डी.ओ (MDO) की नियुक्ति प्रक्रिया शामिल है l  हम मांग करते हैं की CAG इसे संज्ञान में लेकर जांच करे या फिर एक न्यायिक जांच कराई जाये l यह प्रक्रिया ना तो पारदर्शी है बल्कि कुछ कंपनियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य मात्र से रची गई है जिससे सरकार और देश के बहुमूल्य संसाधनों को व्यर्थ गंवाया जा रहा है l  यह प्रक्रिया पूरी तरह से सुप्रीम कोर्ट के 2014 के निर्णय की मूल भावना के विपरीत है और कोलगेट केस को पुनर्जन्म देती है l इसमें ना सिर्फ केन्द्रीय सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े होते हैं बल्कि छत्तीसगढ़ राज्य सरकार और रमन सिंह की भूमिका पर भी सवालिया निशान लगते हैं जोकि इस पूरी प्रक्रिया के बीच राज्य के हितों को नज़रंदाज़ कर प्रक्रिया में पूर्णतया भागीदार बने रहे l ऐसी स्थिति में हम सरकार को यह पुनः याद दिलाना चाहते हैं की कोयला संसाधन एक जन-सम्पदा है जिनका उपयोग केवल जन-हित में ही किया जाना चाहिए और निजी मुनाफे के लिए उन्हें व्यर्थ होने से बचाना सरकार की अभिन्न ज़िम्मेदारी है l  इसके साथ ही पर्यवार्नीय संवेदनशील क्षेत्रों में किसी भी कोल ब्लॉक का आवंटन या नीलामी न किया जाये l
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