Friday, February 6, 2015

दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, किसान - मज़दूर महारैली 24, फरवरी, 2015, जंतर मंतर, दिल्ली



कॉर्पोरेटभू माफि़आबिल्डरों को ज़मीन की लूट की छूट देने वाले

भूमि-अध्यादेश को रद्द करो!


दिल्ली चलोदिल्ली चलोकिसान मज़दूर महारैली
24, फरवरी, 2015, जंतर मंतरदिल्ली


साथियोजैसा की आप जानते हैं भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए राजग सरकार ने पिछली साल अमल में आये कानून में संशोधन करके एक अध्यादेश पारित किया हैइस अध्यादेश को लाकर सरकार ने अपनी दो मंशाएं स्पष्ट की हैं-
1. इस सरकार को संसदीय प्रक्रिया और मर्यादा की परवाह नहीं है
2. देश के तथाकथित आर्थिक विकास के लिए किसानों से ज़मीनें छीनकर उन्हें देशी-विदेशी कार्पोरेट्स को देना है.
साथियोदेश के तमाम जन आन्दोलन आजादी के बाद से ही भूमि के समान वितरण,ज़मींदारी उन्मूलनकाश्तकारों को ज़मीन देने और बड़े पैमाने पर भूमि-सुधार के लिए सरकार के साथ संघर्ष में रहे हैंअंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1894 के भूमि-अधिग्रहण कानून का विरोध समाज में इस मुद्दे पर रहा है कि यह किसानों और भूमि-मालिकों को यह हक नहीं देता कि वो अपनी ज़मीनें सरकार को देना चाहें या नहींइस कानून की मूल भावना में ‘राज्य की प्रभुसत्ता’ का सिद्धांत था जिसके अनुसार देश की समस्त प्राकृतिक संपदा अन्ततरू राज्य के नियंत्रण में हैहालांकि यहाँ उल्लेखनीय है कि यह औपनिवेशिक कानून फिर भी भू-धारकों के भू-अधिकारों पर केन्द्रित था यानी राज्य ज़मीन तो आपसे लेगा पर इस तरह से कि आपके भूमि-अधिकारों को मान्यता भी मिलेइस कानून में समय समय पर संशोधन होते रहे और1984 में इसे निजी कंपनियों के लिए भी लागू कर दिया गयाइसका ज़बरदस्त विरोध भी हुआइसके बाद जब बड़े पैमाने पर परियोजनाओं से विस्थापित होने वाली आबादी को सरकार ने उनके हाल पर छाड़ दिया तब जनांदोलनों के दबाव में पुनर्वास और पुनर्स्थापन की तरफ ध्यान देना पड़ा.
साथियो यह जनांदोलनों का दबाव ही था कि 2007 से भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास और पुनर्स्थापन के लिए नए कानून बनाने की कवायद शुरू हुई और तमाम मसौदे पेश किये गए.संप्रग सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में दो अलग अलग कानून बनाने की कोशिश की लेकिन इसे कानून की शक्ल नहीं दी जा सकीइसके बाद संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में दोनो कानूनों को जोड़कर एक कानून लाने की प्रक्रिया शुरू कीइस कानून के मूल मसौदे में जन आन्दोलनों के प्रभावी हस्तेक्षेपों के कारण सरकार की मंशा पूरी तरह से चल नहीं पाईऔर अंततः 2013 में ‘उचित मुआवजाभूमि अधिग्रहण में पारदर्शितापुनर्वास और पुनर्स्थापन के अधिकार अधिनियम, 2013’ आया उसमें नीयत ज़रूर पूंजीवादी वयवस्था की ज़रूरतों की पूर्ति की रही पर प्रक्रियाओं में यह कानून कुछ हद तक जनतांत्रिक थाहम जानते हैं इस कानून बनने की प्रक्रिया में देश के समस्त जन आन्दोलनों ने संघर्ष की लंबी श्रृखला चलाईऐसा नहीं है कि यह कानून जन आकांक्षाओं और विशेष रूप से किसानों और मजदूरों के हक में था पर फिर भी इसमें तमाम ऐसे प्रावधान थे जिनसे किसानों और मजदूरों के हितों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता थाविशेष रूप से ज़मीन धारकों की सहमति का प्रावधान,सामाजिक प्रभाव आंकलनभूमि-अधिग्रहण के बाद परियोजना शुरू होने की निश्चित समयावधिपुनर्वास और पुनर्स्थापन के स्पष्ट प्रावधान बगैरहयह कानून जनवरी 2013 में लागू हुआ और इसी के साथ 1894 के औपनिवेशिक कानून को खारिज कर दिया गया.गौरतलब है कि इस कानून के माध्यम से किसी एक परियोजना के लिए ज़मीन लेने का एक भी प्रयोग नहीं हुआ और राजग सरकार ने अपने आठ महीनों के अल्प कार्यकाल के दौरान ही इसमें संशोधन करते हुए एक ऐसा अध्यादेश लागू कर दिया है जो इस कानून में संशोधन की तरह नही बल्कि इसे पूरी तरह रद्द करने जैसा हैहम जानते हैं कि इस कानून के आने पर भी औद्योगिक जगत ने इसका विरोध किया थाइस सरकार ने केवल और केवल औद्योगिक जगत को ध्यान में रखकर यह संशोधन किये हैंजिन महत्वपूर्ण और जनतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन करने के प्रावधान इस कानून में थे उन्हें पूरी तरह खारिज करते हुए इसे वापिस उसी औपनिवेशिक कानून से भी खतरनाक बना दिया गया हैहम जानते हैं कि यह किसके दबाव में हो रहा है. ‘मेक इन इण्डिया’ का नारा देने वाले हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री बाहरी निवेश को बढ़ावा देने और देशी पूंजीपतियों की तिजोरियां भरने के लिए यह कहते हुए नहीं थकते कि हमारे देश में आपको सस्ता श्रमसस्ती मीन तो मिलेगी हीहम ऐसे कानून भी बनाएंगे जो किसी भी प्रकार से आपके निवेश और मुनाफे के रास्ते में रोड़ा नहीं बनेंगेंइस कानून में अध्यादेश के ज़रिये किये जा रहे रद्दोबदल प्रधानमंत्री की उसी घोषणा की परिणति है जो उन्होंने अमेरिका में बस गए हमारे देशी पूंजीपतियों के समक्ष अपने ‘शो’ में कहे थे कि उन्हें हर रोज देश के एक कानून को खत्म करने में आनंद की अनुभूति होगी.
इस अध्यादेश के जरिये वो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए बची-खुची गुंजाइश को भी पूरी तरह खत्म कर देना चाहते हैंइस अध्यादेश के माुर्फ़त वो तमाम बड़ी परियोजनाओं के लिए भूमि-अधिग्रहण को न केवल सरल बना देना चाहते हैं बल्कि बड़ी चालाकी से निजी कंपनियों को मनचाही ज़मीन देने के लिए रास्ता खोल देना चाहते हैं और इसलिए इस अधायादेश में औद्योगिक गलियारेविशेष आर्थिक क्षेत्रों जैसी विनाशकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान बनाया गया हैजन आंदोलन पहले भी इस तरह की बड़ी बड़ी परियोजनाओं का पुरजोर विरोध करते रहे हैं और बहुत मामलों में किसानों और मजदूरों ने अपनी आजीविका के साधन बचा पाए हैंअगर इस अध्यादेश को संसद के अंदर हरी झंडी मिल जाती है तो फिर जन आन्दोलनों के लिए लड़ाई के अवसर भी नहीं बचेंगे और मजदूर-किसान अपनी आजीविका के साधनों से बेदखल कर दिए जायेंगेहम कई लड़ाइयां जीते क्योंकि कानून हमारे पक्ष में थे पर इस अध्यादेश के लागू होने से कानून का सहारा हमें मिलने वाला नहीं है.
इस अध्यादेश में सामाजिक प्रभाव आंकलनअधिग्रहीत ज़मीन का नियत सीमा में उपयोग, 70-80 प्रतिशत भू-धारकों की सहमतिग्राम सभा की भूमिका जैसे प्रावधान खत्म करते हुए सरकार ने न केवल देश के भू-धारकों से उनकी ज़मीन छीनने का षणयंत्र रचा है बल्कि इसे एकतरफा फरमान की तरह बनाकर संविधान प्रदत्त हमारे न्यूनतम नागरिक अधिकारों का भी बलात हनन किया है.
साथियोइस सरकार ने जिस तेज़ी से अध्यादेशों को पारित किया हैवह चाहे कोयले के निजीकरण का होबीमा व रक्षा क्षेत्र में एफडीआई हो उससे पूरे भारतीय समाज में हलचल मची है और लोगों का भ्रम जल्द ही इस सरकार से टूट गया हैइस तरह से अध्यादेश लाना बताता है कि पूरी सरकार किस कदर घबराहट में कदम उठा रही हैउसमें इतना सहस नहीं है कि लोगों का विश्वास जीत पाएसंसद का भरोसा जीत पाएयह इन अध्यादेशों के ऊपर जागरूक जन आन्दोलनों का दबाव ही है कि भारत के राष्ट्रपति को एक बार नहीं बल्कि दोदो बार सरकार से यह पूछना पड़ा कि इस तरह अध्यादेश लाने की हड़बड़ी क्यों है?
यह सरकार बहुत कम समय में अपनी वैधता खो चुकी है लेकिन संसदीय लोकतंत्र की सीमाओं को समझते हुए हम यह भी जानते हैं कि अगले पांच साल तक इसे शासन में रहना है और यह इसलिए भी खतरनाक है कि इसके मंसूबे हमें पूरी तरह पता हैंअगले पांच साल काफी हैं देश में एक तानाशाही व्यवस्था कायम करने के लिएइस सरकार का सपना है कि समूल प्राकृतिक संपदा जितने जल्दी हो सके पूंजीपतियों के हवाले कर दी जाएइसके अलावा जिस तरह से यह सरकार लम्पट तत्वों को बढ़ावा दे रही है वो इनकी सिविल फ़ोर्स बनाने की तैयारी है जिसे ऐसे अवसरों पर समाज के अंदर बैमनस्य बढ़ानेऔर शांतिमयलोकतांत्रिक आन्दोलनों का दमन करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगाइसलिए संघर्ष अब दो तरफ़ा हैजहां एक तरफ हमें सरकार के इन तानाशाही अध्यादेशों से लड़ना है वहीं दूसरी तरफ हमें समाज के उन लम्पट तत्वों से भी लड़ना होगा.
ऐसी परिस्थितयों में हम समझते हैं कि सरकार ने पुनरू ज़मीन के मुद्दे को देश की राजनीति के केंद्र में ला दिया है और इतिहास के पन्नों को दुबारा खोला हैइसे हमें एक अवसर की तरह देखना चाहिएअगर सरकार ज़मीन अधिग्रहण करने के लिए एक तरफ़ा कानून ला रही है तो हमें भी अपनी वर्षों पुरानी न्यायपूर्णतार्किक और जन पक्षीय मांगों को समाज में स्थापित करने के प्रयास करने चाहिएऐसे में 23-24 जनवरी को नई दिल्ली में विभिन्न जन आन्दोलनों ने संयुक्त रूप से दो दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन किया थाइसमें यह प्रस्ताव आया था कि अब समय आ गया है जब सामाजिक जन आंदोलनों और मुख्य धारा के राजनैतिक दलों को एक साथ आकर इस अध्यादेश का कड़ा विरोध करना चाहिएइसी क्रम में यह तय हुआ है कि देश के तमाम जन आंदोलन और वाम पंथीसमाजवादी किसान आंदोलन और मजदूर संघ संयुक्त रूप से 24 फरवरी को संसद काघेराव करेंगेंयह समय है जब संसद के अंदर बजट सत्र चल रहा होगा और इसी दौरान यह सरकार इस अध्यादेश को संसद में पारित करवाने की कोशिश करेगी.
इस समय सामाजिक आन्दोलनों और राजनैतिक दलों का एक साथ आकार दबाव बनाना एक कारगर रणनीति हो सकती हैइसके अलावा हमें लड़ाइयों के कई केंद्र बनाने होंगेइस अध्यादेश का विरोध जिला स्तर भी हो और अपने निर्वाचन क्षेत्र के सांसद पर भी संसद के अंदर इस कानून का विरोध करने का दबाव बनाया जाए.
तो साथियोहम आप सभी से अनुरोध करते हैं कि आगामी 24 तारीख को जन्तर मंतर पर इस अधायादेश के विरोध में देश की तानाशाही सरकार पर दबाव बनाने के लिए भारी संख्या में आयें और इस सरकार को यह सन्देश दें कि देश के किसानमजदूर और तमाम मेहनतकाश वर्ग अभी गूंगा बहरा नहीं हुआ हैवह ज्यादा जागरूक और अपने हको को लेकरदेश के समुचित विकास और एक न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाने को लेकर सरकार से कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध है.
इस अध्यादेश को हम पारित नहीं होने देंगे!
जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), अखिल भारतीय वन श्रम जीवी मंच,राष्ट्रीय किसान मज़दूर संगठनएकता परिषद्जन संघर्ष समन्वय समितिछत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलनजनपहलकिसान संघर्ष समितिसंयुक्त किसान संघर्ष समितिइन्साफ,दिल्ली समर्थक समूहयुवा क्रांति


संपर्क: 9958797409, 9810423296, 9818905316, 9911955109

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