ट्रंप के लिए हवन करने वाले अब रोजगार का घाटा गिनें
*दैनिक 'छत्तीसगढ़’ का संपादकीय*
28 नवम्बर 2016
सुनील कुमार संपादक छत्तीसगढ़
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कुछ महीनों में दिल्ली और भारत के कुछ शहरों से ऐसी बहुत सी तस्वीरें आई थीं कि अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के लिए कुछ हिन्दू संगठन सार्वजनिक रूप से हवन कर रहे थे, और पोस्टर-बैनर लेकर उनकी जीत की कामना कर रहे थे। ये संगठन जाहिर और घोषित रूप से साम्प्रदायिक संगठन थे, और उनकी इस पहल के पीछे ट्रंप की यह घोषणा थी कि अगर वे राष्ट्रपति बनेंगे तो अमरीका में मुस्लिमों का घुसना बंद कर देंगे। अब ट्रंप तो राष्ट्रपति बन गए हैं, और उनके पहले के तेजाबी-चुनावी बयान धीरे-धीरे तेजी खोते जा रहे हंै, और कुर्सी तक पहुंचने के कई हफ्ते पहले ही वे अपनी पहले की कही हुई बातों की धार घटाते चल रहे हैं। लेकिन अमरीका की जिस संकीर्णतावादी जनता ने ट्रंप को बहुमत से जिताया है, वह सिर्फ मुस्लिमों के खिलाफ ट्रंप को वोट नहीं दे रही थी, वह प्रवासी कामगारों के खिलाफ भी थी, है, और उसने उस वजह से भी ट्रंप को वोट दिया था क्योंकि उन्होंने यह बार-बार यह घोषणा की थी कि वे अमरीका के रोजगार अमरीकियों के लिए वापिस उपलब्ध कराएंगे, और दूसरे देशों से आकर अमरीका में काम करने वाले मजदूरों और कामगारों के लिए कड़े प्रतिबंध लागू करेंगे।
नतीजा यह हुआ है कि अभी वहां के नए प्रतिबंधों के जो आसार दिख रहे हैं, उन्हें लेकर पहला अंदाज यह सामने आया है कि वहां काम कर रहे हिन्दुस्तानियों में से पौन लाख से अधिक लोग काम खो सकते हैं। इसका नतीजा भारत की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा, क्योंकि ऐसे लोग कमाई करके उसका खासा हिस्सा भारत में वापिस लाते थे, और वहां जाने पर वे अपने आसपास के और लोगों को भी पढऩे के लिए या काम करने के लिए वहां बुलाने की कोशिश करते थे। आज खबर यह है कि भारत की जो कंपनियां अमरीका में काम कर रही हैं, वे सस्ते भारतीय कर्मचारियों को काम का वीजा दिलाकर अमरीका ले जाने के बजाय अब वहीं के लोगों को रोजगार देना शुरू कर चुकी हैं। हो सकता है कि इसका पूरा असर देखने में साल-छह महीने का समय लग जाए, लेकिन जो हवन करने वाले लोग हैं, उन्हें यह जानकार बहुत खुशी नहीं होगी कि भारत से अमरीका जाकर काम करने वाले और अब रोजगार खोने वाले लोगों में से अधिकतर लोग गैरमुस्लिम ही हैं।
कट्टरता और धर्मांधता, नस्लवाद और जातिवाद, ये सब पहली नजर में अपनी नफरत की ताकत से बहुत से लोगों को जोड़ लेते हैं, लेकिन यह एक पुरानी कहानी के मुताबिक शेर की सवारी जैसा होता है, जिस पर चढऩा तो आसान रहता है, लेकिन जिस पर से उतरना मुश्किल रहता है, और लोग जब उतरते हैं तो शेर उन्हें चट कर सकता है। ट्रंप जिस तरह एक घोर आक्रामक अमरीकी राष्ट्रवाद की लहरों पर सवार होकर व्हाईट हाऊस तक पहुंच गया है, वे लहरें हिन्दुस्तान जैसे बहुत से देशों के लिए सुनामी की लहरों जैसी साबित हो सकती हैं। ट्रंप दुनिया पर जिस तरह का तीसरा विश्वयुद्ध थोप सकता है, वह भी भारत को कई तरह से भारी पड़ सकता है। आज भारत की अर्थव्यवस्था जिस तरह के सस्ते मिल रहे डीजल-पेट्रोल के सहारे चल रही है, तीसरे विश्वयुद्ध से अगर पेट्रोलियम खतरे में पड़ जाएगा, तो भारत के लोगों का खाना भी मुश्किल हो जाएगा। इसके अलावा अमरीका के घरेलू हित में अपनी तंगदिली और अपने तंगनजरिए से काम करने वाला ऐसा नासमझ राष्ट्रपति दुनिया पर तरह-तरह के आर्थिक प्रतिबंध भी लाद सकता है, और हो सकता है कि एक दिन ऐसा आए कि हिन्दुस्तान के ऐसे हवनकारी लोग हवन का सामान भी अमरीकी पेटेंट के रास्ते किसी अमरीकी कंपनी से खरीदने के लिए मजबूर हो जाएं।
नफरत की बुनियाद पर जो लोग एक साथ जुटते हैं, वे आपस में एक-दूसरे का भला लंबे समय तक नहीं चाह सकते क्योंकि नफरत का मिजाज ही दुश्मन तलाशना होता है। पहले वह किसी दूसरे देश या दूसरे धर्म को दुश्मन मानकर चलता है, और फिर वक्त आने पर अपने साथ के लोगों को भी खाने लगता है। हम उम्मीद करते हैं कि भारत को ट्रंप से होने वाले खतरे और नुकसान को देखते हुए उसके हिमायती हवन करने वाले लोगों को भी अक्ल आने का एक मौका आएगा, हालांकि वह भारत के अमनपसंद लोगों के लिए खासा महंगा पड़ेगा।
*-सुनील कुमार*
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