कौडियों में चाहिए जमीन...
देविन्दर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ
भूअधिग्रहण कानून जब बनाया गया था तब सुमित्रा महाजन के नेतृत्व वाली समिति की बहुत सी सिफारिशों को शामिल कर लिया गया था लेकिन कुछ छूट भी गईं थीं। ऎसा लगता है कि सरकार की मंशा बची हुई सिफारिशों को लागू करने की है और वह औद्योगिक समूहों के दबाव में आती जा रही है। उद्योग जगत एक बात लगातार कहता आ रहा है कि विकास के लिए उसे जमीन चाहिए और वह भी बेहद सस्ते दामों पर। लेकिन, वर्तमान भू अधिग्रहण कानून के तहत क्षेत्र के 80 फीसदी ग्रामीणों का अनुमोदन जरूरी है। उद्योग जगत का तर्क है कि इससे विकास की गति प्रभावित होगी।
उद्योगों की ओर से कही जाने वाली विकास की बात केवल एक ढकोसला है। वास्तव में उन्हें लगता है कि उनका जमीन खरीदना कठिन हो रहा है और इसीलिए वे सरकार पर कानून में बदलाव के लिए दबाव डाल रहे हैं। दूसरी ओर हकीकत यह है कि उड़ीसा में एक कम्पनी ने 18 साल पहले 3000 एकड़ जमीन ली थी लेकिन उस जमीन का आज तक कोई इस्तेमाल नहीं हो सका। इसी तरह बहुत सी कंपनियों ने सेज के नाम पर जमीनें हथिया लीं लेकिन लम्बा समय गुजर जाने के बावजूद उन जमीनों को विकसित नहीं किया। पंजाब में तो हालत यह है कि उद्योग अब मुफ्त में या टोकन मनी देकर जमीनें लेने की बात कर रहे हैं। बड़ी कंपनियां ही इस तरह की बातें कर रही हैं। इनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है। लेकिन, इन सभी का लालच सस्ते से सस्ते दामों में जमीनों को हथियाना है। देश भर में विकास के नाम पर व्यावसायिक गतिविधि के लिए जमीनें खरीदीं गई। मॉल बनाए गए लेकिन चंद मॉल के अलावा ज्यादातर मॉल सूने पड़े हुए हैं।
ऎसे अनेक हॉस्पिटल हैं जिन्होंने गरीबों के इलाज का वायदा करते हुए टोकन मनी देकर लंबी-चौड़ी जमीन खरीद ली लेकिन गरीबों को उन्होंने ठेंगा दिखा दिया है। राजस्थान में अजमेर के पास एक सीमेंट प्लांट लगाने के लिए 4000 एकड़ जमीन की जरूरत बताई गई लेकिन इसके लिए जमीन अधिग्रहण की बात उठी तो आंदोलन शुरू हो गया और फिर सीमेंट प्लांट 1000 एकड़ जमीन लेने को तैयार हो गया। क्या कोई बताएगा कि सीमेंट प्लांट को 3000 एकड़ अतिरिक्त जमीन किस लिए चाहिए थी।
सभी लैंड बैंक बना रहे हैं...
बहुत से विश्वविद्यालय खुल रहे हैं जिन्हें सैकड़ों एकड़ जमीन चाहिए। किसी विश्वविद्यालय को 600 एकड़ जमीन की आवश्यकता क्यों है भला। हॉस्पिटेलिटी उद्योग में लगे दो समूहों के पास इतने कमरे नहीं हैं, जितने एक बड़ी आईटी कम्पनी के पास हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक इस आईटी समूह के पास वर्तमान में 15 हजार से अधिक कमरे हैं। आईटी उद्योग से जुड़ी कंपनी को इतने कमरों की क्या जरूरत है ? ऎसा ही हाल आईटी उद्योग के अन्य बड़े समूहों का भी है। सभी कार्यालय परिसरों के लिए आवश्यक जमीन से अतिरिक्त भूमि जुटाकर लैंड बैंक बनाने की कोशिश में लगे हैं। आश्रम बनाने के लिए जमीनें ली जा रही हैं। हाल ही में एक संस्था ने दो सौ एकड़ से अधिक जमीन सत्संग के लिए ली गई। कोई यह बताए की सत्संग के लिए जमीन चाहिए या फिर स्टेडियम बनाने के लिए। ऎसा लगता है कि बाजार में काला धन काफी है और उसका निवेश करने के लिए जमीनों की लूट-खसोट हो रही है। इसे ही सरल बनाने के लिए भू अधिग्रहण कानून में संशोधन की तैयारी हो रही है।
देविन्दर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ
देविन्दर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ
भूअधिग्रहण कानून जब बनाया गया था तब सुमित्रा महाजन के नेतृत्व वाली समिति की बहुत सी सिफारिशों को शामिल कर लिया गया था लेकिन कुछ छूट भी गईं थीं। ऎसा लगता है कि सरकार की मंशा बची हुई सिफारिशों को लागू करने की है और वह औद्योगिक समूहों के दबाव में आती जा रही है। उद्योग जगत एक बात लगातार कहता आ रहा है कि विकास के लिए उसे जमीन चाहिए और वह भी बेहद सस्ते दामों पर। लेकिन, वर्तमान भू अधिग्रहण कानून के तहत क्षेत्र के 80 फीसदी ग्रामीणों का अनुमोदन जरूरी है। उद्योग जगत का तर्क है कि इससे विकास की गति प्रभावित होगी।
उद्योगों की ओर से कही जाने वाली विकास की बात केवल एक ढकोसला है। वास्तव में उन्हें लगता है कि उनका जमीन खरीदना कठिन हो रहा है और इसीलिए वे सरकार पर कानून में बदलाव के लिए दबाव डाल रहे हैं। दूसरी ओर हकीकत यह है कि उड़ीसा में एक कम्पनी ने 18 साल पहले 3000 एकड़ जमीन ली थी लेकिन उस जमीन का आज तक कोई इस्तेमाल नहीं हो सका। इसी तरह बहुत सी कंपनियों ने सेज के नाम पर जमीनें हथिया लीं लेकिन लम्बा समय गुजर जाने के बावजूद उन जमीनों को विकसित नहीं किया। पंजाब में तो हालत यह है कि उद्योग अब मुफ्त में या टोकन मनी देकर जमीनें लेने की बात कर रहे हैं। बड़ी कंपनियां ही इस तरह की बातें कर रही हैं। इनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है। लेकिन, इन सभी का लालच सस्ते से सस्ते दामों में जमीनों को हथियाना है। देश भर में विकास के नाम पर व्यावसायिक गतिविधि के लिए जमीनें खरीदीं गई। मॉल बनाए गए लेकिन चंद मॉल के अलावा ज्यादातर मॉल सूने पड़े हुए हैं।
ऎसे अनेक हॉस्पिटल हैं जिन्होंने गरीबों के इलाज का वायदा करते हुए टोकन मनी देकर लंबी-चौड़ी जमीन खरीद ली लेकिन गरीबों को उन्होंने ठेंगा दिखा दिया है। राजस्थान में अजमेर के पास एक सीमेंट प्लांट लगाने के लिए 4000 एकड़ जमीन की जरूरत बताई गई लेकिन इसके लिए जमीन अधिग्रहण की बात उठी तो आंदोलन शुरू हो गया और फिर सीमेंट प्लांट 1000 एकड़ जमीन लेने को तैयार हो गया। क्या कोई बताएगा कि सीमेंट प्लांट को 3000 एकड़ अतिरिक्त जमीन किस लिए चाहिए थी।
सभी लैंड बैंक बना रहे हैं...
बहुत से विश्वविद्यालय खुल रहे हैं जिन्हें सैकड़ों एकड़ जमीन चाहिए। किसी विश्वविद्यालय को 600 एकड़ जमीन की आवश्यकता क्यों है भला। हॉस्पिटेलिटी उद्योग में लगे दो समूहों के पास इतने कमरे नहीं हैं, जितने एक बड़ी आईटी कम्पनी के पास हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक इस आईटी समूह के पास वर्तमान में 15 हजार से अधिक कमरे हैं। आईटी उद्योग से जुड़ी कंपनी को इतने कमरों की क्या जरूरत है ? ऎसा ही हाल आईटी उद्योग के अन्य बड़े समूहों का भी है। सभी कार्यालय परिसरों के लिए आवश्यक जमीन से अतिरिक्त भूमि जुटाकर लैंड बैंक बनाने की कोशिश में लगे हैं। आश्रम बनाने के लिए जमीनें ली जा रही हैं। हाल ही में एक संस्था ने दो सौ एकड़ से अधिक जमीन सत्संग के लिए ली गई। कोई यह बताए की सत्संग के लिए जमीन चाहिए या फिर स्टेडियम बनाने के लिए। ऎसा लगता है कि बाजार में काला धन काफी है और उसका निवेश करने के लिए जमीनों की लूट-खसोट हो रही है। इसे ही सरल बनाने के लिए भू अधिग्रहण कानून में संशोधन की तैयारी हो रही है।
देविन्दर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ
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