सख्त कानून के बावजूद बस्तर में मौलिक अधिकारों से वंचित है बचपन
Despite strict laws childhood deprived of fundamental rights in Bastar
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जगदलपुर। प्रदेश में शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को बढ़ाने के सैकड़ों प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन बचपन के लिए मौजूद खतरों को कम करने में सफल नहीं हो सके हैं। इसका अंदाजा बस्तर संभाग में चाय की दुकान, होटलों, ढाबोंऔर पन्नी बीनने वाले बाल मजदूरों को देखकर लगाया जा सकता है।
बस्तर में आंकड़ों में न सही लेकिन हकीकत में सैकड़ों बाल मजदूर है जो उचित व्यवस्था के अभाव में मानसिक-शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। प्रदेश में बाल अधिकारों से जुड़े कानून होने के बावजूद इनका संरक्षण नहीं हो पा रहा है। प्रदेश में बाल आयोग भले ही बन गया हो लेकिन इससे ज्यादा लाभ नहीं हुआ है। अधिकारियों में इच्छाशक्ति नहीं होने से बच्चों के मौलिक अधिकार की बातें कागजों तक ही सीमित हैं। समाज बच्चों को उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में असफल साबित हो रहा है। निर्दोष बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऎसे कामों में लगाना बदस्तूर जारी है जो उनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हो रहा है।
यहां बचपन खतरे में
अभी भी राह चलते समाज के कई वर्ग के ऎसे बच्चे दिख जाते हैं जो स्कूल नहीं जाते। इसमें कचरा बीनने वाले बच्चे प्रमुख रूप से शामिल हैं। शहरी क्षेत्र में यह भी देखने में आया है कि लघु स्तर पर व्यापार करने वाले कई परिवार ऎसे हैं जो अपने बच्चों को साथ लेकर ही चलते हैं और उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। सुकमा, बीजापुर, कोंटा, भोपालपटनम जैसे इलाके में कई पहुंचविहीन गांव है, जहां शिक्षा की रोशनी तक पहुंची है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ शिक्षा की ओव्हरआल गुणवत्ता को लेकर 22वें स्थान पर है।
नंगे पैर जाते है स्कूल
प्राइवेट और केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में बच्चे जहां सूट-बूट में पढ़ने जाते हैं वहीं शासकीय प्राथमिक शालाओं के बच्चे पथरीली सड़कों से नंगे पांव ही स्कूल जाते है। इसके अलावा स्वच्छता अभियान के तहत नंगे पांव ही नन्हे बच्चे साफ-सफाई करते हैं।
गरीबी और पालकों में शिक्षा के आभावों के चलते कई ग्रामीण बच्चे नंगे पांव ही स्कूल आते हैं लेकिन प्राथमिक शालाओं में भी शिक्षकों और पालकों द्वारा बच्चों और को जूते पहनने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। सिर्फ पढ़ाने की औपचारिकता पूरी की जा रही है। बच्चों में ड्रेसिंग सेंस और अनुशासन में आने के लिए शिक्षकों द्वारा प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है। हाल ही में शहर में राज्य स्तरीय शालेय प्रतियोगिता आयोजित की गई थी उसमें भी कई बच्चे खेल के दौरान नंगे पैर दौड़े।
जूतों के संबंध में शासन द्वारा ऎसी कोई योजना नहीं है। कपड़े साइज के अनुसार फि ट हो जाते हैं, लेकिन पैर छोटा-बड़ा हो सकता है। पालकों और प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों द्वारा उनको प्रोत्साहित करना चाहिए, बच्चों को अनुशासन में आने के लिए शिक्षक ही प्रेरित कर सकते हैं। बृजेश बाजपेयी, जिला शिक्षा अधिक
बस्तर में आंकड़ों में न सही लेकिन हकीकत में सैकड़ों बाल मजदूर है जो उचित व्यवस्था के अभाव में मानसिक-शारीरिक शोषण का शिकार हो रहे हैं। प्रदेश में बाल अधिकारों से जुड़े कानून होने के बावजूद इनका संरक्षण नहीं हो पा रहा है। प्रदेश में बाल आयोग भले ही बन गया हो लेकिन इससे ज्यादा लाभ नहीं हुआ है। अधिकारियों में इच्छाशक्ति नहीं होने से बच्चों के मौलिक अधिकार की बातें कागजों तक ही सीमित हैं। समाज बच्चों को उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में असफल साबित हो रहा है। निर्दोष बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऎसे कामों में लगाना बदस्तूर जारी है जो उनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हो रहा है।
यहां बचपन खतरे में
अभी भी राह चलते समाज के कई वर्ग के ऎसे बच्चे दिख जाते हैं जो स्कूल नहीं जाते। इसमें कचरा बीनने वाले बच्चे प्रमुख रूप से शामिल हैं। शहरी क्षेत्र में यह भी देखने में आया है कि लघु स्तर पर व्यापार करने वाले कई परिवार ऎसे हैं जो अपने बच्चों को साथ लेकर ही चलते हैं और उनके बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। सुकमा, बीजापुर, कोंटा, भोपालपटनम जैसे इलाके में कई पहुंचविहीन गांव है, जहां शिक्षा की रोशनी तक पहुंची है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ शिक्षा की ओव्हरआल गुणवत्ता को लेकर 22वें स्थान पर है।
नंगे पैर जाते है स्कूल
प्राइवेट और केंद्र सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में बच्चे जहां सूट-बूट में पढ़ने जाते हैं वहीं शासकीय प्राथमिक शालाओं के बच्चे पथरीली सड़कों से नंगे पांव ही स्कूल जाते है। इसके अलावा स्वच्छता अभियान के तहत नंगे पांव ही नन्हे बच्चे साफ-सफाई करते हैं।
गरीबी और पालकों में शिक्षा के आभावों के चलते कई ग्रामीण बच्चे नंगे पांव ही स्कूल आते हैं लेकिन प्राथमिक शालाओं में भी शिक्षकों और पालकों द्वारा बच्चों और को जूते पहनने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। सिर्फ पढ़ाने की औपचारिकता पूरी की जा रही है। बच्चों में ड्रेसिंग सेंस और अनुशासन में आने के लिए शिक्षकों द्वारा प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है। हाल ही में शहर में राज्य स्तरीय शालेय प्रतियोगिता आयोजित की गई थी उसमें भी कई बच्चे खेल के दौरान नंगे पैर दौड़े।
जूतों के संबंध में शासन द्वारा ऎसी कोई योजना नहीं है। कपड़े साइज के अनुसार फि ट हो जाते हैं, लेकिन पैर छोटा-बड़ा हो सकता है। पालकों और प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों द्वारा उनको प्रोत्साहित करना चाहिए, बच्चों को अनुशासन में आने के लिए शिक्षक ही प्रेरित कर सकते हैं। बृजेश बाजपेयी, जिला शिक्षा अधिक
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