फिर बाहर आया जिन्न, खदानों के लिए भूमि कब्जाने की मुहीम
Then came the genie out
11/12/2014 2:19:28 AM
चुनाव से पूर्व भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास बिल को पारित कराने के लिए यूपीए का साथ देने वाली भाजपा का रूख अब बदल गया है। सत्ता में आई भाजपा अब उसी कानून में संशोधन की बात कह रही है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है कि आम सहमति नहीं बनी तो भी सरकार इस कानून में बदलाव करेगी। सरकार इस कानून के कुछ प्रावधानों को विकास में बाधा मान रही है। वहीं देश के मुख्य न्यायाधीश एच.एल.दत्तू ने एक कार्यक्रम में कहा कि सरकारों को अवाप्ति कम से कम करनी चाहिए। किसानों के हितों का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। एक तरफ उद्योग और विकास परियोजनाएं हैं तो दूसरी तरफ किसान और कृषि। पढिए, क्या कहते हैं जानकार...
नीयत और नीति साफ रखे सरकार
सरकार द्वारा कोई भी कानून सभी पक्षों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाया जाता है ताकि किसी पक्ष के साथ भेदभावपूर्ण माहौल न बन सके। पिछली यूपीए सरकार में भूमि अधिग्रहण कानून का जो संशोधित स्वरूप सामने आया था, उससे किसान और औद्योगिक जगत, दोनों को ही परेशानी का सामना करना पड़ा रहा था। दोनों ओर से जो फीडबैक आ रहा था, वह संतोष-जनक नहीं था। न तो किसानों का हित सुरक्षित हो पा रहा था और न ही उद्योगों के लिए जमीन की उपलब्धता आसान हो पा रही थी। यही वजह है कि एक व्यावहारिक समाधान निकालने की सख्त दरकार दिखाई दे रही है।
वित्त मंत्री अरूण जेटली का इशारा भी इसी ओर था। अंग्रेजी में कहावत है : "शार्पन द एजेज" यानी इस कानून में जो अच्छी बातें हैं, उनको बरकरार रखते हुए कुछ प्रक्रियागत पहलुओं को आसान बनाया जाए ताकि इस कानून का मकसद सफल हो सके। जब से यह कानून संशोधित हुआ है, तब से नाम मात्र का ही भूमि अधिग्रहण मुमकिन हो पाया है, जिससे ढांचागत विकास कार्यो में काफी दिक्कत पेश आ रही है। इन विकास कार्यो से जरूरतमंद तबके को जो रोजगार मिलते, वह भी खत्म से हो गए।
ऎसे वक्त में, जब अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं कहा जा सकता, तब ऎसे कड़क कानून उसकी प्रगति की राह में रोड़े ही डालते हैं, जिसके दीर्घकालिक परिणाम नकारात्मक होते हैं। इसलिए, ऎसा रास्ता निकालने की जरूरत है, जिससे किसानों को हित तो सौ फीसदी सुरक्षित रहे ही, साथ में विकास कार्य में भी अवरोध न आने पाए। जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में सम्बंधित सभी पक्षों के लिए व्यावहारिक रास्ता तलाशना जरूरी है। यूपीए सरकार में न सिर्फ पर्यावरण मंजूरी के चलते, बल्कि भूमि अधिग्रहण न होने पाने की वजह से एक के बाद प्रोजेक्ट्स लटकते चले गए और अर्थव्यवस्था की रफ्तार 5 फीसदी से नीचे आ गिरी थी। अब चूंकि मोदी सरकार कह रही है कि उन्हें विकास के लिए वोट मिला है तो उसे, इसे हकीकत भी बनाकर दिखाना होगा। विकास के लिए न सिर्फ ढांचागत निर्माण करना होता है बल्कि कारखाने-उद्योग भी लगाने होते हैं ताकि नई पीढ़ी को पर्याप्त रोजगार मिल सके। साथ ही "मेक इन इंडिया" जैसी नीति भी मूर्त रूप ले सके।
सबसे ज्यादा जरूरत मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में प्रगति लाने की है, जो यूपीए सरकार में सुस्त पड़ गया था। यह क्षेत्र रोजगार का अच्छा माध्यम है। मोदी का जोर भी देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ाने पर रहा है। बाहर से नई कम्पनियां आएं, वे यहां निर्माण करें और हमारे युवाओं को रोजगार मिले, सरकार की आमदनी बढ़े और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट सके। इन सबको हासिल करने के लिए प्राथमिक जरूरत जमीन की होती है, जिसकी उपलब्धता को आसान बनाना जरूरी है।
आज हमारे देश में बड़ी आबादी युवाओं की है, जिनका कौशल विकास अर्थव्यवस्था की तरक्की के लिए बेहद जरूरी है। इसके लिए हमें नए संस्थान चाहिए, जिन्हें बनाने के लिए भी जमीन की आवश्यकता है। अभी हमें नए आर्थिक जोन भी बनाने हैं। साथ ही किसानों को भी प्रोत्साहित करना होगा। यह धारणा गलत है कि हर प्रोजेक्ट के लिए हरी-भरी जमीन की ही जरूरत है। सरकार कृषि योग्य भूमि पर निर्भरता न रखे। जितनी जमीन की जरूरत हो उतनी ही अधिगृहीत करनी चाहिए ताकि भट्टा-पारसौल जैसे प्रकरण देखने को न मिलें। सरकार का काम किसान और कमजोर तबके का ध्यान रखना होता है न कि उनसे बेईमानी से जमीन हड़पना।
समावेशी विकास हो...
दरअसल, अगर सरकार की नीयत और नीति साफ हो तो कोई बाधा नहीं आती। अभी तक मोदी ने अपना केंद्र बिंदु निचले स्तर को सुविधाएं पहुंचाना रखा है। वे गांवों के विकास और ग्रामीणों के जीवन स्तर को सुधारने की बात करते रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण और स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलें, कृषि भी बढ़े और ढांचागत विकास भी हो। इन सब में सामंजस्य बनाकर समावेशी विकास ही मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
यह मौका है, जब मोदी को पूंजीवादी तबके के हितकर होने का आरोप भी गलत साबित करना होगा। इसके लिए "स्मार्ट अप्रोच" दिखानी होगी। ऎसे कई राज्य हैं, जहां सिर्फ हरी-भरी जमीन है और कई ऎसे राज्य हैं, जहां बड़ी मात्रा में बंजर जमीन है। इस विविधता को ध्यान में रखते हुए विकास करना होगा। कृषि को खत्म करके विकास करने की धारणा को बदलना होगा। यूरोप और अमरीका में विकास और खेती में अच्छा सामंजस्य रखा गया है। मोदी सरकार को नीचे जाती खेती के लिए नई हरित क्रांति एवं अर्थव्यवस्था के लिए समावेशी विकास की संजीवनी लानी होगी।
नरेंद्र तनेजा, ऊर्जा एवं वाणिज्य मामलों के जान
नीयत और नीति साफ रखे सरकार
सरकार द्वारा कोई भी कानून सभी पक्षों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाया जाता है ताकि किसी पक्ष के साथ भेदभावपूर्ण माहौल न बन सके। पिछली यूपीए सरकार में भूमि अधिग्रहण कानून का जो संशोधित स्वरूप सामने आया था, उससे किसान और औद्योगिक जगत, दोनों को ही परेशानी का सामना करना पड़ा रहा था। दोनों ओर से जो फीडबैक आ रहा था, वह संतोष-जनक नहीं था। न तो किसानों का हित सुरक्षित हो पा रहा था और न ही उद्योगों के लिए जमीन की उपलब्धता आसान हो पा रही थी। यही वजह है कि एक व्यावहारिक समाधान निकालने की सख्त दरकार दिखाई दे रही है।
वित्त मंत्री अरूण जेटली का इशारा भी इसी ओर था। अंग्रेजी में कहावत है : "शार्पन द एजेज" यानी इस कानून में जो अच्छी बातें हैं, उनको बरकरार रखते हुए कुछ प्रक्रियागत पहलुओं को आसान बनाया जाए ताकि इस कानून का मकसद सफल हो सके। जब से यह कानून संशोधित हुआ है, तब से नाम मात्र का ही भूमि अधिग्रहण मुमकिन हो पाया है, जिससे ढांचागत विकास कार्यो में काफी दिक्कत पेश आ रही है। इन विकास कार्यो से जरूरतमंद तबके को जो रोजगार मिलते, वह भी खत्म से हो गए।
ऎसे वक्त में, जब अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं कहा जा सकता, तब ऎसे कड़क कानून उसकी प्रगति की राह में रोड़े ही डालते हैं, जिसके दीर्घकालिक परिणाम नकारात्मक होते हैं। इसलिए, ऎसा रास्ता निकालने की जरूरत है, जिससे किसानों को हित तो सौ फीसदी सुरक्षित रहे ही, साथ में विकास कार्य में भी अवरोध न आने पाए। जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में सम्बंधित सभी पक्षों के लिए व्यावहारिक रास्ता तलाशना जरूरी है। यूपीए सरकार में न सिर्फ पर्यावरण मंजूरी के चलते, बल्कि भूमि अधिग्रहण न होने पाने की वजह से एक के बाद प्रोजेक्ट्स लटकते चले गए और अर्थव्यवस्था की रफ्तार 5 फीसदी से नीचे आ गिरी थी। अब चूंकि मोदी सरकार कह रही है कि उन्हें विकास के लिए वोट मिला है तो उसे, इसे हकीकत भी बनाकर दिखाना होगा। विकास के लिए न सिर्फ ढांचागत निर्माण करना होता है बल्कि कारखाने-उद्योग भी लगाने होते हैं ताकि नई पीढ़ी को पर्याप्त रोजगार मिल सके। साथ ही "मेक इन इंडिया" जैसी नीति भी मूर्त रूप ले सके।
सबसे ज्यादा जरूरत मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में प्रगति लाने की है, जो यूपीए सरकार में सुस्त पड़ गया था। यह क्षेत्र रोजगार का अच्छा माध्यम है। मोदी का जोर भी देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ाने पर रहा है। बाहर से नई कम्पनियां आएं, वे यहां निर्माण करें और हमारे युवाओं को रोजगार मिले, सरकार की आमदनी बढ़े और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट सके। इन सबको हासिल करने के लिए प्राथमिक जरूरत जमीन की होती है, जिसकी उपलब्धता को आसान बनाना जरूरी है।
आज हमारे देश में बड़ी आबादी युवाओं की है, जिनका कौशल विकास अर्थव्यवस्था की तरक्की के लिए बेहद जरूरी है। इसके लिए हमें नए संस्थान चाहिए, जिन्हें बनाने के लिए भी जमीन की आवश्यकता है। अभी हमें नए आर्थिक जोन भी बनाने हैं। साथ ही किसानों को भी प्रोत्साहित करना होगा। यह धारणा गलत है कि हर प्रोजेक्ट के लिए हरी-भरी जमीन की ही जरूरत है। सरकार कृषि योग्य भूमि पर निर्भरता न रखे। जितनी जमीन की जरूरत हो उतनी ही अधिगृहीत करनी चाहिए ताकि भट्टा-पारसौल जैसे प्रकरण देखने को न मिलें। सरकार का काम किसान और कमजोर तबके का ध्यान रखना होता है न कि उनसे बेईमानी से जमीन हड़पना।
समावेशी विकास हो...
दरअसल, अगर सरकार की नीयत और नीति साफ हो तो कोई बाधा नहीं आती। अभी तक मोदी ने अपना केंद्र बिंदु निचले स्तर को सुविधाएं पहुंचाना रखा है। वे गांवों के विकास और ग्रामीणों के जीवन स्तर को सुधारने की बात करते रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण और स्थानीय स्तर पर रोजगार मिलें, कृषि भी बढ़े और ढांचागत विकास भी हो। इन सब में सामंजस्य बनाकर समावेशी विकास ही मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
यह मौका है, जब मोदी को पूंजीवादी तबके के हितकर होने का आरोप भी गलत साबित करना होगा। इसके लिए "स्मार्ट अप्रोच" दिखानी होगी। ऎसे कई राज्य हैं, जहां सिर्फ हरी-भरी जमीन है और कई ऎसे राज्य हैं, जहां बड़ी मात्रा में बंजर जमीन है। इस विविधता को ध्यान में रखते हुए विकास करना होगा। कृषि को खत्म करके विकास करने की धारणा को बदलना होगा। यूरोप और अमरीका में विकास और खेती में अच्छा सामंजस्य रखा गया है। मोदी सरकार को नीचे जाती खेती के लिए नई हरित क्रांति एवं अर्थव्यवस्था के लिए समावेशी विकास की संजीवनी लानी होगी।
नरेंद्र तनेजा, ऊर्जा एवं वाणिज्य मामलों के जान
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