Saturday, November 15, 2014

बाबू! अम्मा ल जऊन छीने हावय ओला भगवान देखही

बाबू! अम्मा ल जऊन छीने हावय ओला भगवान देखही

Babu! Her goal snatched Jun Howy Ola God 

Babu! Her goal snatched Jun Howy Ola God Dekhi
11/15/2014 3:48:20 AM
बिलासपुर। मांओं की मौत के लिए दोषी चाहे कोई भी हो, पकड़े भी गए तो उन्हें कुछ ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। वो लोग उन परिवारों और मासूम बच्चों की पीड़ा समझ भी नहीं सकते, जिनकी दुनियां उजड़ चुकी है। कई घरों में मातम का माहौल है, आंखों में आंसुओं का सैलाब और दिलों में दर्द है। मासूम बच्चे मां के लिए बिलख रहे हैं। कहीं बाप बच्चों को दिलासा दे रहा है, तो कहीं बच्चे समझा रहे हैं, "बाबू फिकर झन कर, जेन हा अम्मा ल छीने हावय ओला भगवान देखही।"
ये पीड़ा...ये रूदन...और बच्चों का बिलखना-तड़पना उन घरों में हो रहा है, जहां नसबंदी शिविर और जहरीली दवाइयों ने सबकुछ लूट लिया। 2 रूपए में चावल देकर अपनी पीठ थपथपाने वाले सरकार की लापरवाही ने जिनकी खुशियां छीन लीं। मासूम बच्चों को बिन मां के बना दिया। ऎसे ही कुछ घरों में "पत्रिका" की टीम पहंुची। पीडित परिवारों का दर्द महसूस किया।
गनियारी के एक घर में बहोरिक अपने बच्चों को दिलासा दे रहा था। तीन साल का नासमझा अनीश है कि कुछ समझ ही नहीं रहा है। भला वो मासूम मौत-जिंदगी को समझे भी कैसे। वह तो यही समझ रहा है कि उसकी मां "शिवकुमारी" किसी काम से गई है। अब तक नहीं लौटी। वह पिता से जिद कर रहा है, बहोरिक भी उसे उसी की भाषा में समझा रहा है..."तोर मां आही बेटा, सूजी लगाए बर गै हवय...। तोर बर खाई लेके आही..।" बड़ा बेटा मनीष पहली कक्षा में पढ़ता है। वह कुछ समझदार दिखा, पीड़ा उसे भी है, लेकिन छोटे भाई का दर्द और बाप के आंसू देखकर वह दिलासा देने की कोशिश करता है... "बाबू फिकर झन कर, जेन मन अम्मा ल छीने हवय, ओखर भला नई होवय, ओला भगवान देखही।"
बहोरिक अपने दोनों बच्चों को अपनी सीने से लिपटा लेता है। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह जाती है। वहां खड़े परिवार के दूसरे सदस्यों की भी आंखें गीली हो जाती हैं। ये मंजर और नजारा सिर्फ बहोरिक के घर नहीं, बल्कि हर उस घर में है जहां अभी-अभी जहरीली दवा ने मौत दे दी। घर उजाड़ा और बच्चों को बेसहारा कर दिया। दिन का समय तो किसी तरह गुजर जाता है, लेकिन रात बड़ी मुश्किल से कटती है। बच्चों को नींद नहीं आती। वे मां के बारे में ही सवाल करते हैं।
मनीषा के लालन पालन की चिंता
बहोरिक की बेटी मनीषा अभी छ: माह की है उस मासूम को नहीं पता कि मां दुनिया छोड़कर चली गई है। बहोरिक का कहना है दोनों बच्चों को जैसे तैसे कर पाल लूंगा, लेकिन मनीषा को सम्भाल पाना मुश्किल हो गया है। बच्ची रोती है तो घर वाले बारी-बारी से उसे गोद लेते हैं। बच्ची के पेट भरने के लिए दूध का डिब्बा लेकर आया हूं।
"मां अस्पताल गई है..."
शहर से लगे ग्राम अमेरी सतनाम नगर का जगदीश निर्मलकर राज मिस्त्री का काम करता है। नसबंदी के जहर ने उसका घर भी उजाड़ दिया। पत्नी रेखा घर से सही सलामत निकली थी, लेकिन लौटी तो शरीर में जान नहीं थी। उसकी ढाई साल की बच्ची कीर्ति अपनी मां को याद करके दिन रात रो रही है। पिता से मां का पता पूछ रही है। तीन-चार दिनों पिता लगातार उसे दिलासा दे रहा है। कभी वह पिता की झूठी बातें मान जाती हैं, लेकिन अगले ही पल मां को याद करके फिर से बिलख पड़ती है। पत्रिका की टीम जब उनके घर पहंुची तो मासूम कीर्ति ने मासूमसियत से जवाब दिया, "मां अस्पताल गई है।" लेकिन दस मिनट बाद वह फिर से मां के पास जाने की जिद पर अड़ गई। पिता से लिपटकर रोने लगी। चार माह के बेटे शुभम की जिम्मेदारी भी अब जगदीश पर है। फिलहाल उसने शुभम को उसकी नानी के घर अमसेना भेज दिया है।
चाकलेट और खिलौना लेकर आ रही मां
ये पीड़ा..दिलों में टीस, आंखों में आंसुओं का समंदर हर उस घर में दिखा जहां नसबंदी अभिशॉप बन गई। परिवार नियोजन से खुशियों की जगह दुख का पहाड़ टूट पड़ा। ग्राम डिघौरा में धन्नालाल ने पत्नी दीप्ति को खो दिया। 9 साल के नीलकमल, 3 साल के इंद्र और 3 माह की तुलेश्वरी के सिर से मां का साया उठ गया। दादी गनेशिया तीन माह की तुलेश्वरी गोद में लिए बैठी थी। इंद्र उसे हटाकर बैठना चाहता था। दादी ने उसे रोक दिया, तो वह मां को पूछने लगा। कुछ देर खामोश रहा, फिर शायद उसे दादी की बात याद आ गई और उसने झट से कहा..."हां! मां तो पिताजी के साथ बाजार गई है, खिलौने और चॉकलेट लकर आएगी।" दादी को कुछ राहत मिली, लेकिन वह भी बच्चे की मासूमियत और दुख को समझकर आंसू पोंछने लगीं।


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