Wednesday, November 12, 2014

रकम मिलने का लालच देकर बैगा महिला की कर दी नसबंदी!

रकम मिलने का लालच देकर बैगा महिला की कर दी नसबंदी!



बिलासपुर (निप्र)। परिवार नियोजन के लक्ष्य को पाने के लिए स्वास्थ्य व मैदानी अमला किस तरह के खेल खेलते हैं, इसका सनसनीखेज खुलासा गौरेला के शिविर में ले जाकर बैगा आदिवासी महिलाओं की कराई गई नसबंदी से हो गया है। ग्लूकोज की बॉटल चढ़ाने पर सरकार की ओर से रकम मिलने का झांसा देकर मितानिन एक बैगा महिला को शिविर ले गई और उसकी नसबंदी करा दी। अब वह सिम्स में जीवन की उम्मीद लिए मौत से संघर्ष कर रही है। उसके पांच का दुधमुंहा बच्चा अपनी दादी के साथ बाहर मां के ठीक होने का इंतजार कर रहा है। इसी गांव की एक महिला की नसबंदी कराने से मौत हो गई है। जाहिर है, उसे भी इसी तरह का झांसा देकर शिविर तक ले जाया गया होगा।
गौरेला ब्लॉक के बिहड़ जंगल के बीच धनौली गांव है, जहां करीब 100 बैगा आदिवासी परिवार रहते हैं। नसबंदी का लक्ष्य पूरा करने के लिए अब इन्हीं बैगा परिवारों की महिलाओं को शिकार बनाया जा रहा है। 10 नवंबर को पेंड्रा और गौरेला के सामुदायिक भवन में नसबंदी कराने वाली महिलाओं को भी तबीयत बिगड़ने पर बुधवार को बिलासपुर शहर के सिम्स और जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया है। धनौली गांव की चैती बाई बैगा अस्पताल पहुंचने से पहले ही भगवान को प्यारी हो गई।
यूं तो बैगा जनजाति वर्ग की महिला व पुरुषों की नसबंदी पर केंद्र सरकार ने रोक लगा रखी है। इसके बाद भी बैगा आदिवासी महिला की नसबंदी, फिर मौत, प्रतिबंध के बाद भी किन परिस्थितियों में नसबंदी की गई, यह जानने का प्रयास नईदुनिया ने बुधवार रात किया। रात के करीब 9:45 बजे हुए, सिम्स के वार्डों में मरीजों का इलाज चल रहा था, मेन गेट में काफी चहल-पहल थी। पूरे अस्पताल परिसर की खाक छानने के बाद सिम्स के पीछे गार्डन वाले गेट के पास एक बुजुर्ग महिला के साथ एक युवती और एक अन्य महिला बैठी हुई थीं।
पूछताछ करने पर पता चला कि यह वही बैगा आदिवासी महिला है, जिसकी बहू की नसबंदी करा दी गई है और अब वह जीवन के लिए संघर्ष कर रही है। ठीक से हिंदी भी नहीं समझ पाने वाली बुजुर्ग महिला ने काफी मशक्कत के बाद बताया कि वह धनौली गांव की उसनी बाई बैगा है और वह अपनी बहू का इलाज कराने आई है।
जब उससे पूछा गया कि सरकार ने तो उनकी जाति की नसबंदी पर रोक लगा रखी है तो फिर उसने अपनी बहू को इजाजत कैसे दे दी। इतना सुनते ही उसकी आंखें भर आईं। उसने आपबीती सुनाते हुए बताया कि शिविर लगने के दो दिन पहले मितानित सुलोचना देवी उसके घर आई थी। उसने बताया कि दो दिन बाद गौरेला में शिविर लगने वाला है, जिसमें मात्र ग्लूकोज की बॉटल चढ़ाने पर सरकारी की ओर से रकम मिलेगी। इतना सुनते ही दाने-दाने के मोहताज इस बैगा परिवार के सदस्यों के चेहरे खिल गए और शिविर में जाने की हामी भर दी। सोमवार को फिर से मितानित पहुंची और उसके बहू मंगली बाई पति रामकुमार (26) को अपने साथ ले गई। शिविर में क्या हुआ, न तो मंगली को पता है और न ही उसनी बाई को।
शाम को जब मंगली घर लौटी तो उसकी तबीयत खराब थी। तब तक परिवार के सदस्य यही समझ रहे थे कि मंगली की तबीयत खराब है, वह जल्द ही ठीक हो जाएगी। मंगलवार को तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई तो गौरेला अस्पताल ले जाया गया। वहां उसनी बाई को उसकी बहू मंगली की नसबंदी के बारे में पता चला तो उसके पांव तले की जमीन खिसक गई। स्थिति में सुधार नहीं होने पर बुधवार को उसकी बहू को सिम्स रिफर कर दिया गया तो वह भी संजीवनी 108 में चढ़कर आ गई। उन्होंने बताया कि बेटा रामकुमार और उनके दो बच्चे गांव में हैं। वह कहती है कि यदि उसे नसबंदी कराने के बारे में पता होता तो वह कभी भी अपनी बहू की इसकी इजाजत नहीं देती।
सच्चाई पर पर्दा डालती रहीं एनएम
उसनी बाई के साथ बैठी युवती पी परतोती व महिला सी गोस्वामी एनएम हैं। जब नईदुनिया के सामने उसनी बाई सच्चाई बयां कर रही थी, तब दोनों हर बात को काट रही थी। दोनों यह सफाई देती रही कि मंगली बाई और उनके परिजनों की सहमति से ही नसबंदी की गई है। किसी से जोर जबर्दस्ती नहीं की गई है। नसबंदी के बारे में सभी को पहले से जानकारी दे दी गई थी। इसमें मितानिन की कोई गलती नहीं है।
अब तक नहीं मिली सहायता राशि
मंगली की सास उसनी बाई यह सोचकर खुश थी कि चलो कुछ दिन का गुजारा करने के लिए सरकार की ओर से रकम मिल जाएगी, पर धोखे से उसके परिवार की एक सदस्य जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है। उसनी बाई ने बताया कि मितानिन ने उसे तत्काल रकम मिलने की बात कही थी, लेकिन अब तक पैसा नहीं मिला है।
दाने-दाने को मोहताज
उसनी बाई ने बताया कि उसके तीन बेटों में चैन सिंह की मौत हो गई है। गांव में बैसाखू और रामकुमार रहते हैं। वह अपने छोटे बेटे रामकुमार के साथ रहती है, जिसकी पत्नी मंगली बाई की नसबंदी कर दी गई है। उसने बताया कि पहाड़ी इलाका होने के कारण गांव में उन्हें रोजी-मजदूरी भी नहीं मिलती। पहले चार, तेंदू, महुआ, नीम एकत्रित कर शहर में बेचने से दो-चार पैसे मिल जाते थे, लेकिन इस बार तो महुआ, चार भी नहीं हुआ। अलबत्ता, उनके सामने भूखों मरने की नौबत आ गई है। पहले तो लकड़ी भी काटकर बेच लेते थे, अब तो यह भी मुश्किल हो गया है।
आज भी अंधेरे में गांव
उसनी बाई के अनुसार गौरेला क्षेत्र के ग्राम धनौली में लगभग 100 बैगा आदिवासियों की बस्ती है। यह गांव शासन की योजनाओं से कोसों दूर है। पानी के लिए गांव में तो हैंडपंप है, लेकिन बिजली नहीं है। आज भी रात में अंधेरे में रहते हैं। उसने बताया कि 1 रुपए किलो का चावल मिलता है, लेकिन परिवार बड़ा होने से यह भी कम पड़ जाता है।

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