Wednesday, January 7, 2015

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जमीन मालिकों को फिर से ब्रिटिश काल में ले जाएगा, जन सरोकार के प्रावधान खत्म



भूमि अधिग्रहण  अध्यादेश  जमीन मालिकों को फिर से ब्रिटिश काल में ले जाएगा,  जन सरोकार के प्रावधान खत्म

मेधा पाटकर, सामाजिक कार्यकर्ता







केंद्र सरकार जमीन अधिग्रहण कानून-2013 में संशोधन के लिए जो अध्यादेश लाई है, वह जमीन मालिकों को फिर से ब्रिटिश काल में ले जाएगा। उस जमाने में यह धारणा रहती थी कि सत्ता सार्वभौम है और सरकार का ही पूरा अधिकार है। बाद में इसे चुनौती दी गई और कहा गया कि विकास कार्यो पर निर्णय का अधिकार ग्राम सभा से लेकर शहरी सरकार को होना चाहिए।

73-74वें संविधान संशोधन में भी यही बात कही गई कि विकास योजना स्थानीय स्तर पर बननी चाहिए। पंचायती राज प्रणाली और लोकतंत्र अस्तित्व में है तो सारी योजनाएं निचले स्तर से ही बननी चाहिए लेकिन ऎसा नहीं होने दिया जाता। 2013 के कानून में दो मुख्य प्रावधान थे - एक सामाजिक प्रभाव आकलन और दूसरा सहमति। पर अब अध्यादेश में ये दोनों प्रावधान कई योजनाओं में लागू नहीं होंगे। इस अध्यादेश में अधिग्रहण की पांच श््रेणियों में छूट रखी गई है। उनमें रक्षा, औद्योगिक कॉरिडोर, ग्रामीण ढांचागत निर्माण, अफोर्डेबल हाउसिंग, पीपीपी मॉडल के तहत सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर शामिल है।

गरीबों की आड़ में...

अब ज्यादातर अधिग्रहण इन्हीं योजनाओं के अंतर्गत कर लिया जाएगा। औद्योगिक कॉरिडोर के नाम पर बड़े पैमाने पर जमीन उद्योगों को जाने वाली है। अकेले दिल्ली-मुम्बई कॉरिडोर के लिए ही 3.90 लाख हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण हो रहा है। बहुत से किसानों की जमीन उनके हाथ से निकलने वाली है और सरकार यहां पर न तो सामाजिक प्रभाव का आकलन कराएगी और न ही सहमति ली जाएगी। सरकार गरीबों के लिए घर को मुद्दा बना रही है पर इसकी हकीकत उलट है। सरकार गरीबों के लिए मकान बनाती ही नहीं है। बिल्डर ही यह काम कर रहे हैं। इस अध्यादेश के जरिए रीयल एस्टेट का व्यापार बढ़ाया जा रहा है। 2013 का कानून सर्वदलीय सहमति से आया था।

भाजपा की नेता सुमित्रा महाजन और उससे पहले कल्याण सिंह इससे जुड़ी समिति के प्रमुख रहे थे। हालांकि इस कानून में कमजोरी यह है कि इसके तहत सरकारी परियोजनाओं में लोगों की सहमति नहीं चाहिए। पर अब तो अध्यादेश में तो पांच श््रेणियों की निजी और पीपीपी के लिए भी जमीन मालिकों की सहमति नहीं ली जाएगी। किसी भी देश में ऎसा कानून नहीं है कि सरकार निजी और पीपीपी परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण करके देती हो।

मौजूदा सरकार भी कह रही है कि वह पुनर्वास की सही व्यवस्था कर रही है पर पुनर्वास में लोग हमेशा ठगे जाते हैं। नर्मदा में एक-एक बांध में लाखों विस्थापितों का पुनर्वास नहीं हुआ है। सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में 2.5 लाख लोगों का पुनर्वास आज तक नहीं हुआ। सरकार जमीन का बाजार भाव अदा करने का वादा करती है पर उसमें भी लोगों को ठगा जाता है। सरकार को वैकल्पिक आजीविका का साधन देना चाहिए। इस अध्यादेश में भी यही कमजोरी है। सरकार कह रही है कि जितना सम्भव होगा उतनी नौकरियां दी जाएंगी यानी यह अध्यादेश किसानों, जमीन मालिकों को ब्रिटिश काल में ले जाएगा।
मेधा पाटकर, सामाजिक कार्यकर्ता

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