वर्षा डोंगरे और सरकारी अधिकारियों की भूमिका
संदीप पांडेय
छत्तीसगढ़ की वर्षा डोंगरे प्रकरण ने कई सवाल खड़े किये हैं, जिन पर विचार किया जाना जरुरी है.
4 मई 2017 को मुम्बई उच्च न्यायालय में 2002 की गुजरात साम्प्रदायिक हिंसा घटनाओं में बिल्किस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार एवं 14 लोगों के बलात्कार व कत्ल के मामले, जिसमें उसकी साढ़े तीन वर्षीय लड़की सलेहा का भी कत्ल हुआ, में 19 अभियुक्तों को सजा हुई. इसमें पांच पुलिसकर्मी व दो चिकित्सक भी शामिल हैं जिन्हें 2008 में निचली अदालत ने बरी कर दिया था. इन अधिकारियों की भूमिका मामले पर लीपापोती की कोशिश थी. 2002 के गुजरात की साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में ये पहला मामला है जिसमें अधिकारियों को भी सजा हुई है.
छत्तीसगढ़ की वर्षा डोंगरे प्रकरण ने कई सवाल खड़े किये हैं, जिन पर विचार किया जाना जरुरी है.
4 मई 2017 को मुम्बई उच्च न्यायालय में 2002 की गुजरात साम्प्रदायिक हिंसा घटनाओं में बिल्किस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार एवं 14 लोगों के बलात्कार व कत्ल के मामले, जिसमें उसकी साढ़े तीन वर्षीय लड़की सलेहा का भी कत्ल हुआ, में 19 अभियुक्तों को सजा हुई. इसमें पांच पुलिसकर्मी व दो चिकित्सक भी शामिल हैं जिन्हें 2008 में निचली अदालत ने बरी कर दिया था. इन अधिकारियों की भूमिका मामले पर लीपापोती की कोशिश थी. 2002 के गुजरात की साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में ये पहला मामला है जिसमें अधिकारियों को भी सजा हुई है.
सवाल अब यह उठता है कि ये अधिकारी किनके इशारे पर घिनौने कृत्यों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे थे? क्या यह 2002 की गुजरात में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में राज्य की मिलीभगत की पुष्टि है जो अब धीरे-धीरे मौन सच के रूप में मान ही लिया गया है?
हमारे देश में यह आम है कि सरकार या सत्ता में बैठे लोग सरकारी अधिकारियों, खासकर पुलिसकर्मियों, का अपने निहित स्वार्थों के लिए दुरुपयोग करते हैं. एक तरफ निर्दोष लोगों को अभियुक्त बना कर उनके खिलाफ सुबूत जुटाए जाते हैं ताकि उन्हें सजा हो सके.
26 अप्रैल, 2017 को सर्वोच्च न्यायालय की एक बेंच मुख्य न्यायाधीश जे.एस. केहर व न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड को उत्तर प्रदेश सरकार के वकील से पूछना पड़ा कि आखिर वे गुलजार अहमद वानी को और कितने दिनों जेल में रखेंगे जिन्हें अब तक 11 में से 10 आतंकवाद से सम्बंधित मामलों में बरी किया जा चुका है और वे 16 वर्षों से जेल में हैं. इस समय साबरमती रेल बम विस्फोट की घटना में उनके ऊपर मुकदमा चल रहा है. 96 में से 20 गवाहों से पूछताछ करने में वकीलों ने डेढ़ दशक का समय लगा दिया.
न्यायमूर्ति केहर ने पूछा यदि पुलिस के पास सुबूत नहीं तो इसका खामियाजा गुलजार अहमद वानी को क्यों भुगतना पड़े? बेंच ने निचली अदालत को 31 अक्टूबर तक का समय मुकदमे की सुनवाई पूरी करने के लिए दिया है जिसके बाद 1 नवम्बर, 2017 को गुलजार वानी को स्वतः जमानत मिल जाएगी चाहे मुकदमा पूरा हो अथवा नहीं. गुलजार अहमद वानी को आज से 16 वर्षों पहले जिस समय पुलिस ने आतंकवादी बता कर गिरफ्तार किया था वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पी एच.डी. कर रहे थे. किसी निर्दोष को पुलिस कैसे फंसाती है यह उसका अच्छा उदाहरण है.
दूसरी तरफ हमारे सामने बिल्किस बानो के जैसे मामले हैं जिसमें पुलिस पहले नामजद प्राथमिकी ही दर्ज करने को तैयार नहीं थी. साल भर के अंदर एक न्याययिक मजिस्टेªट ने पुलिस द्वारा अपनी जांच में शिकायत में अनियमितताएं पाए जाने के कारण मामले को बंद कर दिया गया. राष्ट्रीय मानवाधिकार अयोग के हस्तक्षेप से मामला फिर जीवित हुआ किंतु सी.आई.डी. ने बिल्किस को परेशान करना शुरू कर दिया. यह तो सी.बी.आई. के कुछ ईमानदार अधिकारियों व ईमानदार लोक अभियोजक की वजह से अभियुक्तों को सजा हुई नहीं तो वे आसानी से बच जाते.
किसी अधिकारी के लिए कोई स्पष्ट भूमिका लेनी कितना मुश्किल होता है इसका अंदाजा छत्तीसगढ़ की जेल अधिकारी वर्षा डोंगरे द्वारा वहां के थानों में आदिवासी लड़कियों के मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं को उजागर करने पर उन्हें निलंबित करने की घटना से लगाया जा सकता है. उसने बताया कि आदिवासी लड़कियों को नंगा कर उन्हें बिजली से झटके दिए जाते हैं.
वर्षा डोंगरे ने यह भूमिका ली है कि जन सेवक के रूप में वह सरकार व लोगों दानों के प्रति जवाबदेह है और यदि उसे यह महसूस होता है कि कहीं कुछ असंवैधानिक हो रहा है तो यह उसका कर्त्वय है कि उसे वह उजागर करे. उसे दुख है कि सरकार की माओवाद के खिलाफ लड़ाई में दोनों तरफ देश के ही नागरिक मर रहे हैं. वह सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं को नहीं उठा रही बल्कि संविधान की पांचवी अनुसूची में आदिवासी इलाकों में आदिवासियों को प्राकृतिक संसाधनों पर दिए गए अधिकारों का उल्लंघन कर उन्हें निजी कम्पनियों के हवाले किया जा रहा है के मुद्दे को भी उठा रही है.
वर्षा डोंगरे का मानना है ये मुद्दे उठाना उसका संविधान में दिए गए अभिव्यकित की स्वतंत्रता का अधिकार है. एक सरकारी अधिकारी बनने से उसका यह अधिकार कुछ कम नहीं हो जाता. यह वाकई में काबिले-तारीफ भूमिका है क्यों ज्यादातर सरकारी अधिकारी व्यवस्था में होने वाली अनियमितताओं को यह मानकर नजरअंदाज कर देते हैं कि सरकारी अधिकारी के रूप में उन्हें सरकार के सभी वैध-अवैध कार्यों को जायज ठहराना है.
यह वर्षा डोंगरे का पहला बहादुरी का कारनामा नहीं है. 2006 में जब वह मुख्यमंत्री रमन सिंह के पास छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग द्वारा 2003 में 147 अधिकारियों के चयन में अनियमितताओं की शिकायत लेकर गईं और मुख्यमंत्री ने उन्हें अपमानित कर निकाल दिया तो वे न्यायालय की शरण में गईं. दस वर्ष लगे लेकिन वे मुकदमा जीत गईं. न्यायालय ने टिप्पणी की कि यह उनके लगन और परिश्रम के कारण सम्भव हो पाया कि चयन में गड़बडि़यों प्रकाश में आईं. चयन सूची पुनः बनाने का आदेश दिया गया.
वर्षा डोंगरे जैसी अधिकारियों को तो पुरस्कृत कर उसे पदोन्नति देनी चाहिए ताकि वह किसी जिम्मेदार पद पर बैठ कर इस सड़ी-गली व्यवस्था को ठीक करने का काम कर सके. सरकार को समझना चाहिए कि अहंकारी व भ्रष्ट अधिकारी माओवाद से नहीं लड़ पाएंगे. ऐसे अधिकारी तो समस्या को और पेचीदा ही बनाएंगे जैसा कि उन्होंने अभी तक किया है. वर्षा डोंगरे जैसी ईमानदार अधिकारी को हाशिए पर डाल सरकार खुद को उसकी सेवाओं से वंचित कर रही है जिससे उसको लाभ हो सकता था.
सरकार द्वारा अहंकारी एवं भ्रष्ट अधिकारियों को बढ़ावा देना अपने पैर कुल्हाड़ी मारने जैसा है क्योंकि ऐसे अधिकारी जनता में अलोकप्रिय हो जाते हैं. वर्षा डांेगरे जैसी अधिकारी जनता का विश्वास भी जीतते हैं और लोकप्रिय बने रहते हैं. यही उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार या पदोन्नति है.
*लेखक मैगसेसे से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
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