नक्सलबाड़ी के 50 साल : उसी राजनीतिक ऊर्जा की आज संघी हमलों के प्रतिकार के लिए जरूरत है
- दीपंकर भट्टाचार्य -
(कैच न्यूज में 12 मई 2017 को प्रकाशित लेख का मूल अंग्रेजी से अनुवाद)
नक्सलबाड़ी ने 50 साल पूरे कर लिए हैं, जब भारत-नेपाल सीमा के पास पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जिले का एक मामूली सा इलाका भारत की राजनीतिक शब्दावली में तूफान की तरह प्रवेश कर गया ।
यह एक खास तरह का किसान विद्रोह था जिसने भूमि संम्बंधों में बदलाव के प्रश्न को राज्य सत्ता के वर्गीय विन्यास में बदलाव की जरूरत से जोड़ दिया था ।
राज्य ने इस कम्युनिस्ट विद्रोह को इसकी शुरूआत में ही कुचल देने की हर सम्भव कोशिश की । हिरासत में हत्यायें, फर्जी एनकाउण्टर, नौजवान कार्यकर्ताओं एवं उनके परिजनों का सामूहिक उत्पीड़न व बरबादी, थर्ड डिग्री टार्चर, बिना मुकदमा चलाये अनिश्चित काल तक अंधाधुंध हिरासतें– आज राज्य दमन के रूप में हम जो कुछ देख रहे हैं, दरअसल इन तौर तरीकों की शुरूआत नक्सलबाड़ी के प्रति राज्य की प्रतिक्रिया में हुई थी ।
बर्बरतम राज्य दमन के साथ सरकार ने नक्सलबाड़ी आन्दोलन को व्यवस्थित तरीके से बदनाम करने की रणनीति का सहारा भी लिया, नक्सलवाद को आतंकवाद बता कर और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़े आंतरिक खतरे के रूप में प्रचारित करके ।
फिर भी, नक्सलबाड़ी विद्रोह की 50वीं सालगिरह से पहले हम देखते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह पूरे शोर-शराबे के साथ नक्सलबाड़ी की यात्रा करते हैं और उसे अपने 'मिशन बंगाल' का प्रस्थान बिन्दु बनाते हैं । मजेदार बात यह रही कि जिन दम्पति ने नक्सलबाड़ी में उन्हें अतिथि बनाया था, वे उनकी पश्चिम बंगाल यात्रा का पहला चरण समाप्त होते ही भाजपा छोड़ त्रृणमूल कांग्रेस की ओर पलायन कर गये !
राज्य और केन्द्र में सत्तासीन दो दलों के बीच नक्सलबाड़ी को लेकर रस्साकशी से एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है – कि इतने दमन और बदनाम करने के बाद भी नक्सलबाड़ी उन सत्ताधारियों के गुणा-हिसाब में भी जो नक्सलबाड़ी को कई बार मृत घोषित कर चुके हैं, एक बेहद प्रभावशाली प्रतीक बना हुआ है, ।
नक्सलबाड़ी के लिए प्रेरणा
आइये, प्रतीकों से आगे बढ़ कर नक्सलबाड़ी की ऐतिहासिक अंतर्वस्तु और आज के दौर में उसकी अनुगूँज की ओर देखते हैं । नक्सलबाड़ी कोई अचानक हुआ किसानों का स्वत:स्फूर्त विद्रोह नहीं था, कॉरपोरेट भूमि लूट के खिलाफ आज कई स्थानों पर चल रहे किसानों व आदिवासियों के प्रतिरोध संघर्षों जैसा ।
इसकी जड़ें तेभागा और तेलंगाना की भावना को पुर्नजागृत करने के सचेत, संगठित और अनवरत कम्युनिस्ट प्रयासों में थीं । तेभागा 1940 के दशक में अविभाजित बंगाल में साम्प्रदायिकता से दूषित सामाजिक माहौल में अपनी वर्ग एकता और जुझारूपन के लिए उल्लेखनीय किसानों का क्रांतिकारी संघर्ष था । नक्सलबाड़ी को बनाने और संगठित करने वाले चारु मजूमदार और उनके कई साथी तेभागा आन्दोलन के कार्यकर्ता थे, और नक्सलबाड़ी व उससे जुड़े उत्तर बंगाल के कई इलाके उस ऐतिहासिक किसान उभार के प्रमुख केन्द्रों में रहे थे ।
इस सचेत कार्यवाही के साथ कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर एक तीखा वैचारिक संघर्ष भी जुड़ा हुआ था । तेभागा-तेलंगाना के दिनों से ही कम्युनिस्ट आन्दोलन में एक गम्भीर दृष्टिकोण मौजूद था जो महसूस करता था कि भारत में किसान प्रश्न और कृषि क्रांति की सम्भावनाओं को बुरी तरह से अनदेखा किया जा रहा है ।
कम्युनिस्ट नेतृत्व द्वारा तेलंगाना के संघर्ष को आधिकारिक तौर पर वापस लेने और आन्दोलन के गैर-संसदीय आयाम को प्रभावी रूप में संसदीय परिप्रेक्ष्य के अधीन कर देने के बाद यह बहस तेज हो गई । इस वैचारिक-राजनीतिक बहस का प्रामाणिक व विस्तृत ब्यौरा चारु मजूमदार के प्रसिद्ध 'आठ दस्तावेजों' में दिया गया है ।
नक्सलबाड़ी की जड़ें
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के अंदर नक्सलबाड़ी की पृष्ठभूमि और उसके मूल तत्व को समझना काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमें नक्सलबाड़ी के ऐसे ब्यौरे मिलते रहते हैं जो प्राय: सांस्कृतिक क्रांति के चीनी अनुभव की प्रतिकृति के रूप में नक्सलबाड़ी को दिखाना चाहते हैं ।
इसमें कोई शक नहीं कि नक्सलबाड़ी ने चीन से काफी प्रेरणायें लीं, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे भारत में बसंत का वज्रनाद कहा, और भारतीय कम्युनिस्ट क्रांतिकारी तो चीन के चेयरमेन माओ त्से तुंग को अपना चेयरमेन तक कहने लगे ।
परन्तु नक्सलबाड़ी की अंतर्वस्तु को समझने के लिए साठ के उथल पुथल भरे दशक के भारतीय संदर्भों में इसे देखना बहुत जरूरी है – शासक वर्गों और भारतीय राज्य का गहराता संकट, और कम्युनिस्ट आन्दोलन के अंदर उस मोड़ को भारतीय जनता के लिए क्रांतिकारी अवसर के रूप में देखने की गहराई से महसूस की जा रही भावना ।
एक के बाद एक हुए दो युद्धों ने भारतीय जनता के ऊपर भारी बोझ डाल दिया था । गहरे खाद्य संकट, बढ़ती कीमतें, गतिहीन कृषि और भारी बेरोजगारी के बीच आजादी के आन्दोलन के समय पनपे सपने गहरे मोहभंग में विलीन हो रहे थे ।
नेहरू और उनके उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री के मृत्यु के बाद कांग्रेस नेतृत्व परिवर्तन की एक भोंडी प्रक्रिया में फंसी हुई थी । इसके चुनावी पतन के पहले संकेत 1967 में देखे जा सकते हैं जब 9 राज्यों में इस पार्टी के हाथ से सत्ता चली गई । पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस को एक गठबंधन सरकार ने बाहर का रास्ता दिखाया था, जिसके सबसे बड़े घटक कम्युनिस्ट थे ।
इस पृष्ठभूमि में नक्सलबाड़ी का उदय हुआ, और जब राज्य ने किसान विद्रोह को कुचल देने का रास्ता चुना तब कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने दावानल की तरह उसे पूरे देश में फैलाने एवं 70 के दशक को भारतीय जनता की मुक्ति के दशक में बदल देने के आह्वान में अपनी प्रतिक्रिया दी ।
नक्सलबाड़ी उभार के दो सालों में ही उसके नेतृत्व ने एक नई पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी, की स्थापना कर एक कदम आगे बढ़ा दिया था । नई पार्टी, जिसका क्रांतिकारी कम्युनिस्ट कतारों ने भारी स्वागत किया और भारत के चारों कोनों तक तेजी से विस्तार हुआ, में अपने पूर्वज दलों सीपीआई एवं सीपीआई(एम) से उल्लेखनीय भिन्नतायें थी ।
महान तेलंगाना विद्रोह से सीपीआई बाकायदा पीछे हट चुकी थी, परन्तु सीपीआई (एमएल) [भाकपा(माले)] का तो निर्माण ही नक्सलबाड़ी की आग को संजोने और विस्तार देने के घोषित उद्देश्य के साथ हुआ था । सीपीआई(एम) का निर्माण सीपीआई में दोफाड़ विभाजन से हुआ था और सीपीआई(एम) की स्थापना करने वाले सभी सदस्य अविभाजित सीपीआई के वरिष्ठ नेतागण थे । भाकपा(माले) की स्थापना करने वाले सभी नेता ज्यादातर सीपीआई(एम) के जिला स्तरीय नेता थे ।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कृषि क्रांति को समाज के जनवादीकरण के लिए आवश्यक कार्यभार और कृषि संम्बंधों में बदलाव के लिए भूमिहीन गरीबों को नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में देखने की भाकपा(माले) की समझ के कारण दमित ग्रामीण गरीबों - जो सामाजिक रूप से ज्यादातर दलित, अत्यंत पिछड़ी जातियों एवं आदिवासियों से आते थे - के बीच नई पार्टी को खूब स्वीकार्यता मिली ।
भयंकर राज्य दमन और सामंती हिंसा, जो प्राय: राज्य संरक्षित जमीन्दारों की निजी सेनाओं द्वारा होती है, के आगे भाकपा(माले) की संघर्षशील शक्ति और टिके रहने की क्षमता का मुख्य श्रोत उत्पीडि़त गरीब जनसमुदाय के बीच इसकी गहरी जड़ें होना ही है । इतने तीखे दमन के आगे किसी भी अन्य पार्टी या आन्दोलन ने भाकपा(माले) जैसी दृढ़ता का परिचय नहीं दिया है ।
चारु मजूमदार का सिद्धांत
मीडिया के विश्लेषक में आम तौर पर भाकपा(माले), या जिसे लोकप्रिय रूप से नक्सलवाद कहा जाता है, को उसके शुरूआती दौर में अपनाये गये संघर्ष के विशिष्ट रूपों से जोड़ कर देखने की प्रवृत्ति रहती है । 60 दशक के उत्तरार्ध की परिस्थिति को अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थिति के रूप में भाकपा(माले) ने चिह्नित किया था, और उसके अनुरूप क्रांति स्पष्ट और तात्कालिक कार्यभार स्वयं ही बन गया था ।
आंशिक/तात्कालिक मांगें, जन संगठनों के रोजमर्रा के काम, और चुनावी हस्तक्षेप, सभी उस योजना में पीछे चले गये तथा सशस्त्र संघर्ष केन्द्र बिन्दु बन गया ।
लेकिन यदि हम भाकपा(माले) के उद्भव एवं विकास की यात्रा को थोड़ी दूर तक देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी में संघर्ष के किसी भी खास रूप के प्रति कभी भी अंधश्रद्धा नहीं रही है –हालात और वस्तुगत परिस्थितियों के अनुरूप संघर्ष के विशिष्ट रूप बदलते रहे हैं ।
आठ दस्तावेज जिन्होंने नक्सलबाड़ी की वैचारिक-राजनीतिक नींव रखी, ने संघर्ष के किसी भी रूप को कभी खारिज नहीं किया । जब गोलबंदी और कार्यवाही के केन्द्रीय रूप में सशस्त्र संघर्ष को देखा जा रहा था, तब भी चारु मजूमदार ने हमेशा सैन्यवाद के खतरों के प्रति आगाह किया था और राजनीति पर कमाण्ड रखने एवं जन समुदाय की पहलकदमियों को खोलने पर जोर दिया था ।
और भीषण सैन्य दमन एवं 1971 की चुनावी जीत व बंगलादेश युद्ध के बाद इन्दिरा गांधी के मजबूत हो जाने के बाद परिस्थितियों में आये विपरीत बदलावों की पृष्ठभूमि में अपने अंतिम लेख में चारु मजूमदार ने वाम एवं लोकतांत्रिक शक्तियों के निरंकुशता विरोधी व्यापक गठबंधन के निर्माण की जरूरत पर जोर दिया था । उन्होंने अपने साथियों को याद दिलाया कि ''जनता का हित ही पार्टी का हित है'' ।
सत्तर दशक के भीषण धक्के के बाद भाकपा(माले) को पुनर्जीवित करना क्रांतिकारी कम्युनिस्ट खेमे के लिए विशाल चुनौती था । जैसा कि हर धक्के के बाद होता है, कुछ हिस्से तो पूरे आन्दोलन को ही यह कहते हुए कि ये एक बड़ी भूल थी एक तरह से खारिज करने लगे थे । दूसरी ओर ऐसे लोग थे जो सशस्त्र संघर्ष को ही संघर्ष का एक मात्र रूप एवं रास्ता मानते रहे और उन्होंने खुद को भाकपा(माले) की धारा से काट कर अपने संगठन को भाकपा(माओवादी) के रूप में नया नाम दे दिया ।
जहां माओवादियों को मध्य भारत के जंगलों में कुछ माकूल जगह मिल पाई, पुनर्नवीन भाकपा(माले) ने बिहार और झारखण्ड के उत्पीडि़त ग्रामीण गरीबों में गहरी जड़ें बना लीं और ग्रामीण गरीबों के जोरदार संघर्षों एवं रेडिकल छात्रों व महिलाओं की दावेदारी के माध्यम से अपनी मौजूदगी का अहसास कराया । माले को मिला जनसमर्थन लगातार चुनावी जीतों और बिहार व झारखण्ड जैसे राज्यों में निरंतर राजनीतिक हस्तक्षेप में स्पष्ट दिखा ।
राज्य के साथ टकराव के पहले दौर में नई पार्टी के लिए अपने अनुभवों की समीक्षा करने और उनसे सीखने के अवसर ज्यादा नहीं थे । पुरानी गलतियों में सुधार से दमित उत्पीडि़त जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष और उनकी दावेदारी की नई नई सम्भावनायें खुलने लगीं ।
नक्सलबाड़ी की भावना
आज जब हम इस ऐतिहासिक जनविद्रोह की 50वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तब इस आन्दोलन की उपलब्धियों और आज उसकी प्रासंगिकता पर जरूर गौर करना चाहिए । कुछ तथ्य हमारा ध्यान स्वत: ही आकर्षित कर रहे हैं ।
नक्सलबाड़ी एक ऐसा किसान विद्रोह था जिसने उत्पीडि़त भूमिहीन गरीबों के दर्द और गुस्से को एक शक्तिशाली प्रतिरोध में बदल दिया था । आज के गहन कृषि संकट के दौर में नक्सलबाड़ी का यह संदेश बिल्कुल स्पष्ट है । किसानों को इस दर्द की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है, कर्ज में डूबे संकटग्रस्त लाखों किसानों को अपनी जान लेने पर मजबूर होना पड़ा है । परन्तु जबरिया भूमि अधिग्रहण और खेतिहर समुदाय के प्रति हरेक अन्याय के बाद प्रतिकार की अग्नि और तेज होती जा रही है ।
नक्सलबाड़ी क्रांतिकारी युवाओं का जनउभार था जिसकी प्रबलता, स्केल और आत्म वलिदान का स्तर आजादी आन्दोलन में युवाओं की भागीदारी के बराबर था । हजारों की संख्या में शहरी छात्र क्रांतिकारी आन्दोलन में कूद पड़े और उत्पीडि़त ग्रामीण गरीबों के साथ एकताबद्ध होने और 'सर्वप्रथम जनता' के सिद्धांत वाली देशभक्ति की परिभाषा के साथ गांव गांव में फैल गये – आज जब डब्लूटीओ-निर्देशित शिक्षा का बाजारीकरण और छात्र समुदाय के विरुद्ध युद्ध जैसे हालात बना संघ द्वारा विश्वविद्यालयों को वस्तुत: युद्ध क्षेत्रों में तब्दील कर किया जा रहा है तो इसके खिलाफ नक्सलबाड़ी की यही भावना विश्वविद्यालय कैम्पसों में प्रतिध्वनित हो रही है ।
जब राष्ट्रवाद को पूरी तरह हिन्दू बहुसंख्यकवाद के रूप में पुर्नपरिभाषित करने की कोशिशें चल रही हैं, तो होमोजिनाइजेशन और रेजिमेण्टेशन के इस फासीवादी प्रोजेक्ट के विरुद्ध बहुसांस्कृतिक भारत की लोकतांत्रिक विविधता की रक्षा करने के लिए नक्सलबाड़ी की 'सर्वप्रथम जनता' वाली देशभक्ति का रास्ता सबसे प्रभावी उपाय है ।
नक्सलबाड़ी की ऊर्जा की आज फिर जरूरत है
नक्सलबाड़ी के साथ भारतीय इतिहास में एक नये परिप्रेक्ष्य की शुरूआत हुई । इतिहास को देखने के शासक वर्गीय नजरिए को धता बताते हुए निगाहें उत्पीडि़तों के इतिहास पर टिक गईं । आदिवासी विप्लवों और किसान विद्रोहों के भूले बिसरे नायकों की उपस्थिति अंतत: इतिहास के पन्नों में महसूस होने लगी, और इतिहास लेखन के सबाल्टर्न स्कूल ने अपने आगमन की घोषणा कर दी ।
आज हम भारत में इतिहास के विरुद्ध युद्ध एक दूसरे छोर से होते हुए देख रहे हैं । प्राचीन इतिहास को पुराणों से बदला जा रहा है, मध्यकालीन इतिहास को एक बार फिर औपनिवेशिक-साम्प्रदायिक रूढि़वाद के चश्मे से देखा जा रहा है, और आधुनिक इतिहास को तोड़-मरोड़ कर हड़पने की चीज समझ लिया गया है ।
गांधी से लेकर सुभाष तक, भगत सिंह से लेकर अम्बेडकर तक, आधुनिक इतिहास के हरेक लोकप्रिय नायक को हड़पने की कोशिश हो रही है । भगवा शासक अपने खोखले इतिहास को भरने के लिए बेचैन हैं ।
नक्सलबाड़ी भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के क्रांतिकारीकरण का एक महान क्षण था । इसने वर्ग संघर्ष के नये प्रतिमानों को गढ़ा जो अर्थवाद की दीवारों अथवा संसदीय राजनीति के दायरे में सीमित नहीं थे, बल्कि समाज के हर क्षेत्र में उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के लिए उनकी प्रतिबद्धता थी । जाति व जेण्डर, नस्ल व राष्ट्रीयता, भाषा व संस्कृति, सभी को वर्ग संघर्ष के इस नये व्यवहार में उपयुक्त स्थान मिला ।
आज अपने हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्थान के एजेण्डा के साथ संघ ब्रिगेड सत्तासीन है । यह कॉरपोरेट लूट और साम्प्रदायिक धुवीकरण को दो-पाटों के बीच भारत को रौंद देना चाहती है । ऐसे हालात में नक्सलबाड़ी की ऊर्जा और प्रतिरोध शक्ति की जरूरत शायद इससे पहले कभी महसूस नहीं की गई थी ।
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