भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ,फिर लौटे अंग्रेजों के जमाने में
योगेन्द्र यादव, वरिष्ठ टिप्पणीकार -
जरा कल्पना कीजिए। कोई आपके घर में घुस आए और कहे कि "जिस मकान में आपने पूरी जिन्दगी गुजारी है वो फैक्ट्री बनाने के लिए चाहिए।" शायद आपका जवाब होगा "ना बाबा, ना, अपनी फैक्ट्री किसी और जगह बना लीजिए।" लेकिन वो हाथ में फरमान लहराते हुए आपको बताता है कि उसे देशहित में आपको आपकी ही जमीन से बेदखल करने का हक है। इससे देश को कैसे फायदा होगा- आपके ऎसे फिजूल सवालों का जवाब देने का उसके पास वक्त नहीं है।
"मरता क्या न करता" की स्थिति में फंसे आप अब यह सोचते हैं कि मकान तो गया, कम से कम दाम ही मिल जाए। आपको बताया जाता है कि मकान का दाम भी आप नहीं, बल्कि आपको आपके घर से बेदखल करने वाला ही तय करेगा। वह आपको बताता है कि पिछले साल आपके पड़ोस में ऎसे ही मकान बिके थे और उनकी रजिस्ट्री के कागज पर जो कीमत दर्ज है, उसी हिसाब से आपको कीमत मिलेगी। आप चिल्लाते जाते हैं कि "ज्यादातर रकम तो "ब्लैक" में दी गई थी, रजिस्ट्री में दर्ज कीमत तो जमीन की असल कीमत का एक हिस्सा भर है।" लेकिन आपको अनसुना कर बस एक चेक थमा दिया जाता है। ना घर आपका रहा, ना वाजिब दाम आपको मिला। यह किसानों के साथ आए दिन पेश आने वाली घटना है। इसे कहते हैं भूमि अधिग्रहण। लोकतांत्रिक राज्य द्वारा अपनी संप्रभुता का प्रयोग कर देश के सर्वोच्च हित में जबरन माल लेने का अधिकार।
"लोकहित" का मतलब रेलवे लाइन, सड़क और नहर जैसी जरूरी सुविधाएं बनाना हो तो शायद किसी को ऎतराज न हो। लेकिन, "लोकहित" का जुमला इस्तेमाल करके हाऊस-कॉलोनी, फैक्ट्री, यूनिवर्सिटी या फिर अस्पताल बनाने के लिए भी जमीन पर कब्जा जमाया जाता है। इन सब का बनाया जाना भी जरूरी है। लेकिन आखिर इनके लिए जमीन हथियायी क्यों जा रही है, खरीदी क्यों नहीं जा रही? किसानों की किस्मत के साथ चलने वाले इस खिलवाड़ से पिछले साल थोड़ी राहत मिली थी। संसद ने अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 को निरस्त किया। वर्ष 2013 में संसद में भूमि-अधिग्रहण में पारदर्शिता बरतने, उचित मुआवजा और पुनर्वास के अधिकार का कानून पास हुआ।
नए कानून में पहली बार किसान को प्रजा नहीं, नागरिक माना गया। यह प्रावधान हुआ कि जिन लोगों की जमीन ली जा रही है उनमें से 80 फीसदी का इस बात के लिए रजामंद होना जरूरी है। प्रस्तावित भू-अधिग्रहण से पहले यह आकलन करना जरूरी किया गया कि आस-पास के लोगों की जिन्दगी व पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा। जमीन छीनने से पहले पुनर्वास की व्यवस्था करनी होगी। नए कानून में भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रियाओं को लोकमुखी बनाया गया, मुआवजा भी बढ़ा। संसद में इस कानून पर दो साल से ज्यादा वक्त तक बहस चली। इस कानून का सभी दलों ने समर्थन किया था। राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज ने किसान के दु:ख-दर्द पर फड़कते हुए भाषण दिए थे। एक बार तो लगा कि इस लोकतंत्र में देर है, अंधेर नहीं। लेकिन अफसोस, ऎसा हो न सका। नए कानून के पास होते ही उद्योगपतियों, बिल्डरों और कंपनियों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। कहा कि इससे देश का विकास रूक जाएगा। चुनाव तक तो सभी पार्टियां चुप थीं, लेकिन उसके बाद इसका विरोध शुरू हो गया।
सरकार ने अब संसद के सामने जाकर 2013 के कानून को बदलवाने की जगह चोर दरवाजे से अध्यादेश जारी किया है। कहने को यह पिछले साल के कानून में संशोधन करता है, लेकिन वास्तव में यह अध्यादेश 2013 के नए कानून की सारी सकारात्मक बातें खत्म कर देता है। अध्यादेश से सरकार ने एक "बाईपास" बना दिया है। ऎसे पांच विशेष कारण चिह्नित किए हैं जिन पर 2013 वाले अधिनियम में वर्णित भू-अधिग्रहण के प्रावधान लागू नहीं होंगे। इन पांच कारणों का दायरा इतना विस्तृत है कि भूमि-अधिग्रहण का हर मामला उनके भीतर समेटा जा सकता है। एक बार फिर हम भूमि-अधिग्रहण के मसले पर लौटकर 120 साल पुराने अंग्रेजों के जमाने के कानून पर पहुंच गए हैं।
योगेन्द्र यादव, वरिष्ठ टिप्पणीकार -
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