मुंबई, दिल्ली में रहते हैं ज़्यादातर किसान! -पी साईनाथ
- 6 घंटे पहले
साल 2014 कैसा रहा? इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप समाज के किस तबके से आते हैं.
अगर आप व्यापारी हैं तो ये साल आपके लिए बेहद अच्छा रहा है क्योंकि आर्थिक नीति आपके समर्थन में है जैसा कि पहले भी रही है.
आप अगर छोटे किसान हैं तो आपके लिए साल 2014 अच्छा नहीं रहा और साल 2015 भी अच्छा नहीं रहने वाला है.
भारत के कई इलाकों में ख़ासतौर पर तेलांगना, मराठवाड़ा और विदर्भ में किसानों की आत्महत्या अब तक रुकी नहीं है.
पढ़ें पूरा विश्लेषण
मराठवाड़ा के विभागीय आयुक्त कार्यालय की जानकारी के मुताबिक, नवंबर के आखिर तक विभाग के 422 किसानों ने आत्महत्या की थी.
इनमें सबसे ज्यादा 122, बीड ज़िले में हुई है. हर दिन किसानों की कम से कम तीन आत्महत्याएं दर्ज हो रही हैं.
ज्यादातर आत्महत्याएं फसल की उपज न होने से या दिवालियापन के कारण हुई है. ऐसा ही हाल लगभग कई दूसरे राज्यों में भी है.
क्यों खुदकुशी न करें किसान?
नैशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक एक औसत किसान का परिवार पूरे महीने में साढ़े छह हजार से कम कमाता है.
उनकी आमदनी का जरिया भी बहुत अनिश्चित होता है. आप इस आमदनी को किसी भी दूसरे पेशे से जोड़ कर देख लीजिए तो साफ है कि खेती में आमदनी बहुत कम है.
हर साल सरकार कहती है कि खेती के लिए दिए जाने वाले कर्जे को बढ़ा दिया गया है.
फ़ायदा किसको?
कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की- दोनों ही सरकारों ने खेती के लिए कर्ज़ की सीमा को बढ़ाया है लेकिन सवाल ये है कि ये कर्ज़ किसके हाथ में जा रहा है.
महाराष्ट्र में इस कर्ज़ का केवल 37 प्रतिशत ग्रामीण बैंक के ज़रिए बांटा जा रहा है, बाक़ी 63 प्रतिशत गैर-ग्रामीण बैंकों की शाखाओं से बंट रहा है.
50 प्रतिशत से ज़्यादा लोन तीन शहरी ब्रांचों के ज़रिए बंटे हैं. ये शहर हैं मुंबई, पुणे और नाशिक.
शहरों में खेती!
सोचने की बात ये है कि इन शहरी-धनी इलाकों में कौन किसान हैं और किसको खेती के लिए कर्ज़ चाहिए.
आप खुद सोचिए कि यहां से किसको फ़ायदा जा रहा है. यह बात केवल महाराष्ट्र के लिए भर ही सही नहीं है.
भारत के बैंक एम्प्लॉई यूनिएन एसोसिएशन के आकंड़ो के अनुसार पिछले कुछ सालों में दिल्ली और चंडीगढ़ में खेती के नाम पर 32 हजार करोड़ रुपए का कर्ज़ बांटा गया है.
सवाल ये है कि इन शहरों में कहाँ खेती हो रही है.
कर्ज़ लेने वाले लोग कौन?
आपको ये जानकर शायद हैरानी हो कि जिस दर में कृषि लोन लेने वालों की संख्या लगातार बढ़ी है वो दर है 10 करोड़ से 25 करोड़ के बीच का लोन.
भारत जैसे देश में ऐसे कितने किसान हैं जो इतनी बड़ी राशी का लोन ले सकते हैं? किसानो की ये कहानी नई नहीं है.
1991 से जो नई आर्थिक नीति आई और 1995 से खेती को लेकर जो नीतियां बनीं उसने किसानों के हाथों से बहुत कुछ छीन लिया है.
केवल खेती के लिए कर्ज़ ही नहीं, खेती के लिए बेहद ज़रूरी चीज़ पानी भी किसानों के हाथों से निकलकर उद्योगपतियों के हाथों में जा रहा है.
नए साल में किसानों की हालत
नए साल में किसानों के लिए स्थिति और बदतर होगी. नई सरकार रोज़गार गांरटी योजना (मनरेगा) को केवल 200 ज़िलों में ही सीमित रखने की बात कर रही है.
पिछले सालों मे इस योजना ने गरीब मजदूरों और किसानों को उम्मीद की नई किरण दी है. अब सरकार उसमें भी कटौती कर रही है.
मैंने 22 साल केवल ग्रामीण भारत को कवर किया है. दुनिया में ये सबसे अनोखा इलाका है. यहां 83.3 करोड़ लोग रहते हैं और 780 से ज्यादा भाषाएं बोलते हैं.
रिश्ता कैसे बनेगा?
ग्रामीण भारत का इलाका काफ़ी जटिल है. इतनी परेशानियों के बावजूद सबसे ज्यादा मोहक है ये देखना कि कैसे लोगो की हिम्मत नहीं टूटती.
मुझे लगता है कि ग्रामीण और शहरी भारत का रिश्ता टूटता जा रहा है.
वजह ये भी है कि मीडिया में ग्रामीण भारत बहुत कम दिखता है और ये मीडिया की बहुत बड़ी ख़ामी है. तो सवाल ये है कि ये बातचीत, ये रिश्ता कैसे बनेगा?
मैंने इस तरफ पहला कदम बढ़ाते हुए एक ऐसा डिजिटल मंच तैयार करने की कोशिश की है जो ग्रामीण भारत के जीवन के हर पहलू को पेश करेगा.
ग्रामीण भारत की कहानी
ये मंच है पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया. ये पोर्टल ग्रामीण भारत का एक झरोखा है. ये एक ऐसा मंच है जिस पर आकर भारत के गांव की कहानी देखी, सुनी, समझी जा सकती है.
वो कहानियां जिन्हें पत्रकार, आम लोग, गांववासी, मैं और आप कोई भी कह सकता है. ये सिर्फ़ पत्रकारिता नहीं बल्कि आम लोगों की रोज़मर्रा जिंदगी की बातों का मंच है.
पिछले 22 साल के दौरान ग्रामीण भारत में पत्रकारिता के ज़रिए मैंने जो काम किया है उसके आधार पर मेरा ये विश्वास है कि पत्रकारिता की ज़रूरतें बढ़ीं हैं और ज़रूरी है कि हम ग्रामीण भारत की कहानी भी कहें.
(बीबीसी संवाददाता रूपा झा से बातचीत पर आधारित)
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