भूमि अधिग्रहण कानून में क्यों किया नमो सरकार ने संशोधन
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इस अध्यादेश के रूप में जिस तरह किसी को भी किसी समय मनमाने तरीके से उनके घर से निकाला जा सकता है और वो भी कानून की शक्ल में, इससे बड़ा दुर्भाग्य इस तथाकथित लोकतांत्रिक देश के लिए और क्या होगा? छद्म लोकतंत्र का आवरण टूट रहा है. इसे तोड़ने वाला ही अपने को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री कहता है…
रूपेश कुमार
नववर्ष 2015 के बधाई स्वरूप 31 दिसंबर 2014 को मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनरुद्धार संशोधन कानून 2013 में संशोधन के लिए अध्यादेश जारी किया. ऐसा तब है जब 2013 में तत्कालीन कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनरुद्धार संशोधन कानून जब बनाया था, तो उस समय भाजपा के भी सभी नेताओं ने सदन में इस कानून के पक्ष में कसीदे गढ़ने में कोई कमी नहीं की थी.
दरअसल, 2013 में इस कानून के बनने के पीछे देशवासियों के संघर्ष का महत्वपूर्ण योगदान था. हमारे देश में लगातार एक ऐसे भूमि अधिग्रहण कानून को बनाने के लिए विभिन्न जनसंगठनों व राजनीतिक दलों के जरिए भी आंदोलन होता रहता था, इनके परिणामस्वरूप ही 2013 का कानून बना था. अब सवाल उठता है कि प्रचंड बहुमत (भाजपा की नजर में) से आई मोदी सरकार ने फिर इसमें संशोधन की जरूरत क्यों समझी?
केन्द्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली का कहना है कि ‘यूपीए सरकार द्वारा बनाए गए कानून से हम सहमत थे और अभी भी हैं. हमने आधुनिक शहर बनाने के लिए और निवेशकों के लिए साथ ही गरीबों के खातिर ही कुछ संशोधन किए हैं.’
यह बात अब किसी से छिपी हुई नहीं है कि मोदी ने सत्ता में आने के बाद से ही जितने भी विदेशी दौरे किए या फिर जितने भी विदेशियों को अपने देश में आमंत्रित किया, उन्हें भारत में बेरोकटोक पूंजी निवेश के लिए भी अपने देश की सम्पदाओं का सम्पूर्ण दोहन का भी न्योता दिया. सवाल उठता है कि 2013 के कानून में बिना संशोधन किए क्या मोदी अपने विदेशी आकाओं से किया वादा पूरा कर पाते? इसके लिए 2013 के कानून में हुए संशोधनों के कुछ बिंदुओं को देखना लाजिमी होगा :
—2013 के कानून के सेक्शन 105 में प्रावधान था कि नेशनल हाइवे एक्ट 1956, रेलवे एक्ट 1989, कोल बियरिंग एरियाज एक्विजिशन एंड डेवलपमेंट एक्ट 1957 जैसे 13 कानून भूमि अधिग्रहण कानून के दायरे से बाहर रहेंगे, लेकिन उसमें यह प्रावधान था कि संसद की अनुमति से सरकार इस कानून के लागू होने की तिथि से एक साल बाद (यानी 1 फरवरी 2015) से इन कानूनों में भी भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को लागू कर सकती है. परिवर्तित कानून में संशोधन कर नए सेक्शन 10ए के तहत औद्योगिक गलियारे, इंफ्रास्ट्रक्चर, रक्षा आदि विशेष श्रेणी की सरकारी और सरकारी व निजी सहभागिता की परियोजनाओं को पूर्ववर्ती भूमि अधिग्रहण कानून के दायरे से बाहर कर दिया है.
—पूर्ववर्ती कानून में सरकारी व निजी क्षेत्र की सहभागिता वाली परियोजनाओं के लिए 70 फीसदी और निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए 80 फीसदी जमीन के मालिकों की मंजूरी अनिवार्य थी. नए कानून में इन श्रेणियों में जमीन के मालिकों की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी. साथ ही साथ ऐसी परियोजनाओं के लिए बहुफसलीय सींचित जमीन का भी अधिग्रहण किया जा सकता है.
—पूर्ववर्ती कानून के सेक्शन 101 में प्रावधान था कि अगर अधिग्रहित भूमि 5 वर्षों तक उपयोग में नहीं लायी जाती है, तो वह जमीन के मूल मालिक को वापस कर दी जाएगी. इसमें संशोधन करते हुए 5 वर्ष की जगह, वह समय सीमा जो किसी परियोजना की स्थापना के लिए नियत की गई हो 5 वर्ष, जो भी अधिक हो, कर दिया गया है.
—कानून के सेक्शन 24 (2) में प्रावधान था कि मुकदमे की स्थिति में स्थगन आदेश 5 वर्ष की समय सीमा में समाहित होगा. इसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया था. संशोधित अध्यादेश में स्थगन आदेश की अवधि को 5 वर्ष की समय सीमा में नहीं जोड़ा जाएगा.
—कानून के सेक्शन 24 (2) में प्रावधान था कि मुकदमे की स्थिति में स्थगन आदेश 5 वर्ष की समय सीमा में समाहित होगा. इसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया था. संशोधित अध्यादेश में स्थगन आदेश की अवधि को 5 वर्ष की समय सीमा में नहीं जोड़ा जाएगा.
— अध्यादेश में मुआवजे की परिभाषा को बदलते हुए इसमें उस मुआवजे को भी शामिल कर लिया गया है, जो इस उद्येश्य के लिए शुरु किए गए किसी भी खाते में पड़ा हो.
—पूर्ववर्ती कानून के सेक्शन 87 में प्रावधान था कि किसी केन्द्रीय या राज्य स्तरीय अधिकारी द्वारा कानून के उल्लंघन की स्थिति में संबंधित विभाग के प्रमुख को भी जिम्मेवार माना जाएगा. इस अध्यादेश में इस व्यवस्था को संशोधित करते हुए प्रावधान किया गया है कि न्यायालय प्रोसिज्यूर कोड के सेक्शन 197 के तहत ही कार्रवाही कर सकता है.
— पूर्ववर्ती कानून में प्रावधानों को लागू करने की समय सीमा दो वर्ष निर्धारित की गई थी, लेकिन अध्यादेश में इसे बढ़ाकर 5 वर्ष कर दिया गया है.
—अधिग्रहण से ‘प्रभावित परिवारों की परिभाषा में बदलाव स्पष्ट नहीं है.
—संशोधित अध्यादेश के रेट्रोस्पेक्टिव प्रावधान के अनुसार पहले से अधिग्रहित भूमि का अधिग्रहण रद्द किया जा सकता है, जिनमें मुआवजे नहीं दिए गए हैं या जमीन का कब्जा नहीं लिया गया है.
— मुआवजे के निर्धारण व बंटवारे में न्यायालय की निगरानी के प्रावधाव को बदल दिया गया है, अब यह जरूरी नहीं होगा.
इन सभी बदलाओं के गहन विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस अध्यादेश का स्वरूप 1894 में ब्रिटिश शासन द्वारा लाए गए औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण के समान ही है. समुचित मुआवजे का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता तथा पुनर्वास कानून में बड़ा बदलाव कर मोदी सरकार ने फिर से एक बार औपनिवेशिक शासन की याद दिला दी है. इस अध्यादेश को गुलामी का अध्यादेश ही कहा जा सकता है.
इस अध्यादेश के रूप में जिस तरह किसी को भी किसी समय मनमाने तरीके से उनके घर से निकाला जा सकता है और वो भी कानून की शक्ल में, इससे बड़ा दुर्भाग्य इस तथाकथित लोकतांत्रिक देश के लिए और क्या होगा? छद्म लोकतंत्र का आवरण टूट रहा है और इसे तोड़ने वाला ही अपने को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री कहता है.
आज पूरे देश के लोकतंत्र पसंद लोग सड़क पर उतरकर इस अध्यादेश का विरोध कर रहे हैं, लेकिन ‘आदिवासियों व किसानों की जमीन नहीं छीनने देंगे का नारा देकर चुनाव जीतने वाली पार्टी के कानों पर जूं भी नही रेंग रही है. देश देशी-विदेशी पूंजीपतियों के चंगुल में पूरी तरह से फंसते जा रहा है. अगर हम अब भी कुम्भकर्णी निद्रा में सोए रहेंगे, तो हमारे देश का भविष्य क्या होगा? ये सोचने की बात है. आज वक्त की जरूरत है कि ऐसे गुलामी के अध्यादेश को फाड़कर आग के हवाले कर दें और उस आग की लपटों से ऐसे अध्यादेश पारित करने वाली सरकार के