*दैनिक 'छत्तीसगढ़’ का संपादकीय*
25 अप्रैल 2017
*बस्तर के ताजा नक्सल-हमले से नौबत बदली नहीं है, वही है*
बस्तर के सुकमा में कल फिर नक्सलियों ने घात लगाकर हमला किया और सीआरपीएफ के दो दर्जन से अधिक जवान शहीद हो गए। उनके नामों की लिस्ट देखें तो वे कई प्रदेशों से आए हुए थे, और नामों पर एक नजर डालने से ही पता लगता है कि आदिवासी बस्तर में लोकतंत्र का जिम्मा पूरा करने के लिए फतवे उठाकर आए हुए इन शहीदों में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, सभी शामिल थे। दूसरी तरफ केन्द्र और राज्य सरकार के पास बस्तर के पिछले हमले में हुई दर्जन भर शहादत के बाद कहने को नया कुछ नहीं है, क्योंकि बस्तर की इस खतरनाक और जटिल जमीनी हकीकत पर रणनीति को बहुत आसानी से और जल्दी-जल्दी बदला भी नहीं जा सकता। छत्तीसगढ़ को अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त से विरासत में मिली हुई नक्सल-समस्या से जूझना आसान नहीं पड़ रहा, लेकिन केन्द्र सरकार की मदद से नक्सल मोर्चे पर प्रदेश सरकार लगातार बेहतर काम कर पा रही है। यह बात आज शहादत के आंकड़ों के बीच सुनने में अटपटी लग सकती है, लेकिन सच यही है कि नक्सल कब्जे के इलाके धीरे-धीरे करके सरकार अपने कब्जे में ले रही है, और उन इलाकों में लगातार जो विकास हो रहा है, उसे पूरा करने के लिए रोज नए खतरे उठाने भी पड़ रहे हैं।
दरअसल देश के भीतर हो, या कि सरहद पर, मौत के आंकड़े जब जत्थे में आते हैं, तो वे हालात पर सोचने की ताकत को कमजोर कर देते हैं। अगर आंकड़े एक साथ बड़े होते हैं, तो वे सरकार को नाकामयाब साबित कर देते हैं, और वही आंकड़े अगर किस्तों में धीरे-धीरे आते हैं, तो सरकार की नाकामयाबी उस तरह सिर चढ़कर नहीं बोलती। छत्तीसगढ़ में जो लोग नक्सल मोर्चे पर दोनों तरफ की मौतों, और आदिवासियों की मौतों के आंकड़ों से परे देख पा रहे हैं, उनको यह समझ आ रहा है कि इलाके नक्सली-कब्जे से छुड़ाने के दौरान, और वहां पर सड़कें बनाने, बिजली ले जाने, जैसे कई विकास कार्यों में तैनात जवानों पर हमला नक्सलियों के लिए आसान हो जाता है। अगर राज्य की पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बल अपने सुरक्षित मोर्चों और छावनियों में बैठे रहते, तो इतनी मौतें नहीं होतीं। इसलिए आज ऐसे हमलों के साथ-साथ यह समझने और देखने की भी जरूरत है कि सरकार के काम को, विकास की योजनाओं को जब आगे ले जाया जा रहा है, तो उस दौरान भी ऐसे हमले हो रहे हैं, शायद बढ़ रहे हैं।
लेकिन आज बस्तर में जो हालात हैं उन्हें देखते हुए यह अनदेखा करना ठीक नहीं होगा कि आदिवासियों के एक तबके की हमदर्दी नक्सलियों के साथ इसलिए हो सकती है क्योंकि सरकार से, शहरी समाज और कारोबार से उन्हें शोषण और भ्रष्टाचार के बिना कुछ नहीं मिलता। यह बात जगजाहिर है कि बस्तर के अफसर-कर्मचारी, नेता और सत्ता के ओहदों पर बैठे हुए लोगों में से एक बड़ा हिस्सा खुले भ्रष्टाचार में शामिल रहता है, और इसलिए न सरकार की साख बन पाती है, न ही लोकतंत्र की। दूसरी तरफ जब पुलिस पर ज्यादती और हत्या-बलात्कार जैसे आरोप लगते हैं, तो यह मानना ठीक नहीं होगा कि वे सारे के सारे आरोप झूठे हैं। देश की सबसे बड़ी अदालतों से लेकर मानवाधिकार आयोगों तक ने ऐसे आरोपों को सही माना है, और यह बात बिल्कुल साफ है कि जिस परिवार के बेकसूर लोगों की हत्या हो, जिनकी बेकसूर बेटियों के साथ बलात्कार हो, उनकी कोई हमदर्दी सरकार के साथ नहीं हो सकती, और जमीनी आबादी के मन में नफरत पैदा करते हुए वर्दियां अपने सिर पर से खतरा कम भी नहीं कर सकतीं। सरकार को नक्सली मोर्चे पर खतरों को गिनाते हुए कभी भी यह कहने का हक नहीं मिल सकता कि विपरीत परिस्थितियों में लगातार काम करने की वजह से सुरक्षा बल हो सकता है कि कुछ ज्यादतियां करते हों। ऐसी ज्यादती से न सिर्फ उन गिने-चुने आदिवासी परिवारों पर जुल्म होता है, बल्कि पूरे इलाके के मन में सुरक्षा बलों के खिलाफ नफरत खड़ी हो जाती है, और उनमें से कुछ लोग नक्सलियों को खबर देकर सरकारी वर्दियों के लिए खतरा खड़ा कर सकते हैं।
सरकार के लिए नक्सल मोर्चा किसी जीत की नौबत नहीं है, यह हार और हार की नौबत है, जब तक कि इस समस्या को निपटा न लिया जाए। एक तरफ नक्सली हमलों से जिंदगियां जाती हैं, दूसरी तरफ सरकारी सुरक्षा बलों की ज्यादतियों से सरकार पर तोहमत आती है। यह नौबत बदलने के लिए सरकार को बंदूक की लड़ाई के साथ-साथ बातचीत का रास्ता ढूंढना ही होगा। बंदूक छोडऩे की शर्त पर बातचीत करने की शर्त ठीक नहीं होगी, बिना किसी शर्त के कुछ मध्यस्थ लोगों के साथ बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि पूरी दुनिया का यह इतिहास है कि कोई भी हथियारबंद आंदोलन महज बंदूकों के बल पर खत्म नहीं किए जा सकते। श्रीलंका में लिट्टे को खत्म करने के लिए फौज ने जितने बेकसूरों को मारा, वैसा भारतीय लोकतंत्र में संभव नहीं है। हम फिर इस बात को दुहराना चाहते हैं कि नक्सली जिन मध्यस्थ लोगों से बातचीत करने को तैयार हों, ऐसे लोगों को ढूंढकर छत्तीसगढ़ सरकार को अपने स्तर पर, और भारत सरकार को अपने स्तर पर वार्ता शुरू करनी चाहिए, क्योंकि इसमें नक्सलियों और सुरक्षा बलों के अलावा आम आदिवासी भी बड़ी संख्या में मारे जा रहे हैं, और इन इलाकों में लोकतंत्र के फायदे नहीं पहुंच पा रहे हैं।
*-सुनील कुमार*7
25 अप्रैल 2017
*बस्तर के ताजा नक्सल-हमले से नौबत बदली नहीं है, वही है*
बस्तर के सुकमा में कल फिर नक्सलियों ने घात लगाकर हमला किया और सीआरपीएफ के दो दर्जन से अधिक जवान शहीद हो गए। उनके नामों की लिस्ट देखें तो वे कई प्रदेशों से आए हुए थे, और नामों पर एक नजर डालने से ही पता लगता है कि आदिवासी बस्तर में लोकतंत्र का जिम्मा पूरा करने के लिए फतवे उठाकर आए हुए इन शहीदों में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, सभी शामिल थे। दूसरी तरफ केन्द्र और राज्य सरकार के पास बस्तर के पिछले हमले में हुई दर्जन भर शहादत के बाद कहने को नया कुछ नहीं है, क्योंकि बस्तर की इस खतरनाक और जटिल जमीनी हकीकत पर रणनीति को बहुत आसानी से और जल्दी-जल्दी बदला भी नहीं जा सकता। छत्तीसगढ़ को अविभाजित मध्यप्रदेश के वक्त से विरासत में मिली हुई नक्सल-समस्या से जूझना आसान नहीं पड़ रहा, लेकिन केन्द्र सरकार की मदद से नक्सल मोर्चे पर प्रदेश सरकार लगातार बेहतर काम कर पा रही है। यह बात आज शहादत के आंकड़ों के बीच सुनने में अटपटी लग सकती है, लेकिन सच यही है कि नक्सल कब्जे के इलाके धीरे-धीरे करके सरकार अपने कब्जे में ले रही है, और उन इलाकों में लगातार जो विकास हो रहा है, उसे पूरा करने के लिए रोज नए खतरे उठाने भी पड़ रहे हैं।
दरअसल देश के भीतर हो, या कि सरहद पर, मौत के आंकड़े जब जत्थे में आते हैं, तो वे हालात पर सोचने की ताकत को कमजोर कर देते हैं। अगर आंकड़े एक साथ बड़े होते हैं, तो वे सरकार को नाकामयाब साबित कर देते हैं, और वही आंकड़े अगर किस्तों में धीरे-धीरे आते हैं, तो सरकार की नाकामयाबी उस तरह सिर चढ़कर नहीं बोलती। छत्तीसगढ़ में जो लोग नक्सल मोर्चे पर दोनों तरफ की मौतों, और आदिवासियों की मौतों के आंकड़ों से परे देख पा रहे हैं, उनको यह समझ आ रहा है कि इलाके नक्सली-कब्जे से छुड़ाने के दौरान, और वहां पर सड़कें बनाने, बिजली ले जाने, जैसे कई विकास कार्यों में तैनात जवानों पर हमला नक्सलियों के लिए आसान हो जाता है। अगर राज्य की पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बल अपने सुरक्षित मोर्चों और छावनियों में बैठे रहते, तो इतनी मौतें नहीं होतीं। इसलिए आज ऐसे हमलों के साथ-साथ यह समझने और देखने की भी जरूरत है कि सरकार के काम को, विकास की योजनाओं को जब आगे ले जाया जा रहा है, तो उस दौरान भी ऐसे हमले हो रहे हैं, शायद बढ़ रहे हैं।
लेकिन आज बस्तर में जो हालात हैं उन्हें देखते हुए यह अनदेखा करना ठीक नहीं होगा कि आदिवासियों के एक तबके की हमदर्दी नक्सलियों के साथ इसलिए हो सकती है क्योंकि सरकार से, शहरी समाज और कारोबार से उन्हें शोषण और भ्रष्टाचार के बिना कुछ नहीं मिलता। यह बात जगजाहिर है कि बस्तर के अफसर-कर्मचारी, नेता और सत्ता के ओहदों पर बैठे हुए लोगों में से एक बड़ा हिस्सा खुले भ्रष्टाचार में शामिल रहता है, और इसलिए न सरकार की साख बन पाती है, न ही लोकतंत्र की। दूसरी तरफ जब पुलिस पर ज्यादती और हत्या-बलात्कार जैसे आरोप लगते हैं, तो यह मानना ठीक नहीं होगा कि वे सारे के सारे आरोप झूठे हैं। देश की सबसे बड़ी अदालतों से लेकर मानवाधिकार आयोगों तक ने ऐसे आरोपों को सही माना है, और यह बात बिल्कुल साफ है कि जिस परिवार के बेकसूर लोगों की हत्या हो, जिनकी बेकसूर बेटियों के साथ बलात्कार हो, उनकी कोई हमदर्दी सरकार के साथ नहीं हो सकती, और जमीनी आबादी के मन में नफरत पैदा करते हुए वर्दियां अपने सिर पर से खतरा कम भी नहीं कर सकतीं। सरकार को नक्सली मोर्चे पर खतरों को गिनाते हुए कभी भी यह कहने का हक नहीं मिल सकता कि विपरीत परिस्थितियों में लगातार काम करने की वजह से सुरक्षा बल हो सकता है कि कुछ ज्यादतियां करते हों। ऐसी ज्यादती से न सिर्फ उन गिने-चुने आदिवासी परिवारों पर जुल्म होता है, बल्कि पूरे इलाके के मन में सुरक्षा बलों के खिलाफ नफरत खड़ी हो जाती है, और उनमें से कुछ लोग नक्सलियों को खबर देकर सरकारी वर्दियों के लिए खतरा खड़ा कर सकते हैं।
सरकार के लिए नक्सल मोर्चा किसी जीत की नौबत नहीं है, यह हार और हार की नौबत है, जब तक कि इस समस्या को निपटा न लिया जाए। एक तरफ नक्सली हमलों से जिंदगियां जाती हैं, दूसरी तरफ सरकारी सुरक्षा बलों की ज्यादतियों से सरकार पर तोहमत आती है। यह नौबत बदलने के लिए सरकार को बंदूक की लड़ाई के साथ-साथ बातचीत का रास्ता ढूंढना ही होगा। बंदूक छोडऩे की शर्त पर बातचीत करने की शर्त ठीक नहीं होगी, बिना किसी शर्त के कुछ मध्यस्थ लोगों के साथ बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि पूरी दुनिया का यह इतिहास है कि कोई भी हथियारबंद आंदोलन महज बंदूकों के बल पर खत्म नहीं किए जा सकते। श्रीलंका में लिट्टे को खत्म करने के लिए फौज ने जितने बेकसूरों को मारा, वैसा भारतीय लोकतंत्र में संभव नहीं है। हम फिर इस बात को दुहराना चाहते हैं कि नक्सली जिन मध्यस्थ लोगों से बातचीत करने को तैयार हों, ऐसे लोगों को ढूंढकर छत्तीसगढ़ सरकार को अपने स्तर पर, और भारत सरकार को अपने स्तर पर वार्ता शुरू करनी चाहिए, क्योंकि इसमें नक्सलियों और सुरक्षा बलों के अलावा आम आदिवासी भी बड़ी संख्या में मारे जा रहे हैं, और इन इलाकों में लोकतंत्र के फायदे नहीं पहुंच पा रहे हैं।
*-सुनील कुमार*7
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