ईवनिंग टाइम्स में प्रकाशित आज शाम की बात *
*बौने होते पहाड़ और हम गमले के बोन्साई*
अपनी अरपा और यमुना दोनों ही नदियां संकट में है । यूं तो सारी ही नदियां "विकास "के कारण अपने अस्तित्व को बचाने जूझ रहीहै ।सारे खेत और सारे जंगल,पहाड़ भी। तालाब भी। सभ्य समाज इन संकटों की अनदेखी करते हुए तरक्की कर रहा है ।
बात इसलिए निकल पड़ी कि आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने फटकार लगाई है । इसलिए कि विश्व संस्कृति महोत्सव का आयोजन श्री श्री ने यमुना किनारे किया था ।इससे नदी को भारी नुकसान हुआ । इस नुकसान की भरपाई में दस साल लग जाएंगे और 40 (चालीस ) करोड़ रूपये खर्च करने पडेंगे । ऐसा कहना है प्राधिकरण का। रविशंकर महाराज को यह आलोचना नागवार गुजरी।वे श्री श्री हैं । बहुत धीरे और मीठा बोलते हैं । आर्ट आफ लिविंग के जरिए लोगों को जीवन-पाठ पढ़ाते हैं । कहते हैं कि इससे लोगों को सुकून मिलता है । इसके लिए कुछ फीस देनी पड़ती है । उलझनों भरी जिंदगी जी रहे लोग कुछ पलों के सुकून के लिए हजारों रूपये देते भी हैं । ठीक भी है । सुकून तो चाहिए ही। किसी मजदूर को दिन भर कड़ी मेहनत के बाद बिना लिविंग के ही सुकून भरी नींद आ जाती है ।पर जिंदगी संवारने में लगे ढेर सारे कड़ी मेहनत करने वालों को फिर भी सुकून नहीं मिलता । थोड़े में गुजारा नहीं होता । ज्यादा की तलाश में वे सुकून खो देते हैं । और कभी आचार्य रजनीश में तो कभी श्री श्री में इसे ढूंढते हैं । पहले आसाराम में भी ढूंढते थे (हैं भी )। यह तो अपनी -अपनी पसंद है और इस पर किसी को आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए । है भी नहीं । सवाल यहां दूसरा है । यमुना हमारे देश की बहुत महत्वपूर्ण नदी है । सभी नदियां जीवन दायिनी है । गंगा की पवित्रता के साथ ही यमुना की पावनता पर भी लोगों की आस्था है । अब तो नहीं पर आज दादी- नानी बन चुकी बहुत सी बहनों के नाम इसीलिए उनके माता-पिता ने इन नदियों के नाम पर रखे थे । अब वे ही गंगा यमुना अपनी पोतियों नातिनों के नाम किसी नदी के नाम पर नहीं रखतीं । इनकी नातिनें दूर्वा (दूब) या युक्ता होती हैं । जो इन्हीं नदियों की किसी बूंद से सिंचित होकर बढ़ती है । ऐसे ही बदलती है पसंद और गंगा - यमुना पुरानी हो जाती है । नर्मदा भी। बात यमुना की , इससे जुड़ा है भगवान कृष्ण का नाम । कालिया मर्दन भी ।
ऐसी पावन नदी के किनारे विश्व संस्कृति महोत्सव हुआ । राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण(एन जी टी) ने उस समय भी आपत्ति की थी । लेकिन राजनीति का साथ या संरक्षण होने पर ऐसी आपत्ति की चिंता नहीं होती । श्री श्री को भी नहीं हुई । महोत्सव हो गया । उसी समय करोड़ों का जुर्माना लगाया गया था । लाखों पटाए भी गए। अब आकलन करके प्राधिकरण ने कहा है कि इससे तो यमुना को बहुत नुकसान हुआ है । इसे ठीक करने में दस बरस लग जाएंगे और चालीस करोड़ रुपये खर्च भी करने पडेंगे । महाराज को यह बात ठीक नहीं लगी।अपनी आलोचना के जवाब में उल्टे प्राधिकरण को ही लपेट लिया । कहा कि एनजीटी ने अनुमति ही क्यों दी ? यमुना को हुए नुकसान के लिए तो सरकार और एनजीटी ही जिम्मेदार है। अनुमति देने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए । साथ ही यह भी कहा कि अगर यमुना इतनी ही नाजुक है तो वहां महोत्सव की अनुमति नहीं देनी थी।
बात बिलकुल सही है । लेकिन लोगों को इतना भोला कैसे समझ लेते हैं महाराज जी ? लोग जानते हैं कि प्रतिबंधों के बावजूद अनुमति कैसे मिल जाती है । हर शहर में पुलिस मैदान,सार्वजनिक उद्यान,स्वीमिंग पुल आदि होते हैं । इनमें कार्यक्रमों की अनुमति नहीं होती । फिर भी छुटभैये नेता तक की भभकी काम आ जाती है और ऐसी अनुमति दे देते हैं अफसर । नेता-अफसर-उद्योग की त्रयी और अब गुरूओं की भी, ही तो देश को चला रहीहै । चल भी रहा है देश। विकास भी कर रहा है । जब छुटभैया नेता की इतनी हैसियत है तो श्री श्री के पावर के सामने कौन नतमस्तक नहीं । हम चुप समाज के लोग सब सहते हैं । पेड़ की एक डंगाल काट लेने पर वन अफसरों के जुर्म और जुर्माना सहते हैं । अपनी गाड़ी से किए जा रहे पर्यावरण के नुकसान पर चालान होते हैं । अपनी दूकान पर निर्धारित आकार से बड़ा बोर्ड लगाने पर भी जुर्माना भरते हैं । इसलिए कि हम सिद्धांतों,ईमानदारी और अब मजबूरी में जीने के आदी हैं । बरसों से अपनी बर्बादी पर बोलना बंद कर चुके हैं । फिर भी कोई मनोज मिश्रा होता है जो श्री श्री के खिलाफ या यमुना को बचाने के लिये याचिका लगाता है ।और एनजीटी में कोई अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार होता है जो आयोजन करने वाले रविशंकर महाराज को जवाब देने का साहस करता है । और फिर महाराज की आलोचना भी सुनता है । जनता देखती है । जानती है । इस मामले में कुछ नहीं होना है । मीडिया की अपनी प्राथमिकताएं हैं। यहां तो दाल में पानी ज्यादा होने या कच्ची रोटियों की शिकायत पर सेना का एक देशभक्त जवान बर्खास्त कर दिया जाता है । इस निर्मम और शक्तिशाली व्यवस्था में बोलना इतना आसान भी नहीं । किसान अपने खेत और फसल के लिए रोना रोते रहें आत्महत्या करते रहें। नदियां प्रदूषित होती रहे ।महानदी या अरपा की रेत खोद डाली जाए। जंगलों को काट डाला जाए।पहाडों को भी बौने कर दिए जाए । बौनेपन के साथ जीते हुए आखिर हम अपनी ऊंचाई जो भूल चुके हैं ।
रविशंकर महाराज का प्राधिकरण और सरकार की आलोचना करना उतना ही सही है जितना अरपा नदी की रेत निकालने से रोकने पर सरपंच का खनिज अफसर को धमकाना या शहर में डेयरी रखने और हटाए जाने पर निगम अफसरों को दौड़ाना या कि बेजा कब्जे से घिरे गोलबाजार को सुधारने के लिए अफसरों का व्यापारियों के सामने गिडगिडाना या कि सीवरेज के गड्ढों में गिरते-मरते हुए भी हमारा चुपचाप जीते रहने का स्वांग करना । रविशंकर महाराज से लेकर सरपंच के पावर के सामने हम सब बौने हैं ।गमलों में लगे बोन्साई की तरह । चिंगराजपारा में खड़ा बूढ़ा पीपल अपनी छाँव देने बुला रहा है लेकिन हम लीविंग में सुकून ढूंढ रहे हैं ।
- *नथमल शर्मा*
*बौने होते पहाड़ और हम गमले के बोन्साई*
अपनी अरपा और यमुना दोनों ही नदियां संकट में है । यूं तो सारी ही नदियां "विकास "के कारण अपने अस्तित्व को बचाने जूझ रहीहै ।सारे खेत और सारे जंगल,पहाड़ भी। तालाब भी। सभ्य समाज इन संकटों की अनदेखी करते हुए तरक्की कर रहा है ।
बात इसलिए निकल पड़ी कि आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने फटकार लगाई है । इसलिए कि विश्व संस्कृति महोत्सव का आयोजन श्री श्री ने यमुना किनारे किया था ।इससे नदी को भारी नुकसान हुआ । इस नुकसान की भरपाई में दस साल लग जाएंगे और 40 (चालीस ) करोड़ रूपये खर्च करने पडेंगे । ऐसा कहना है प्राधिकरण का। रविशंकर महाराज को यह आलोचना नागवार गुजरी।वे श्री श्री हैं । बहुत धीरे और मीठा बोलते हैं । आर्ट आफ लिविंग के जरिए लोगों को जीवन-पाठ पढ़ाते हैं । कहते हैं कि इससे लोगों को सुकून मिलता है । इसके लिए कुछ फीस देनी पड़ती है । उलझनों भरी जिंदगी जी रहे लोग कुछ पलों के सुकून के लिए हजारों रूपये देते भी हैं । ठीक भी है । सुकून तो चाहिए ही। किसी मजदूर को दिन भर कड़ी मेहनत के बाद बिना लिविंग के ही सुकून भरी नींद आ जाती है ।पर जिंदगी संवारने में लगे ढेर सारे कड़ी मेहनत करने वालों को फिर भी सुकून नहीं मिलता । थोड़े में गुजारा नहीं होता । ज्यादा की तलाश में वे सुकून खो देते हैं । और कभी आचार्य रजनीश में तो कभी श्री श्री में इसे ढूंढते हैं । पहले आसाराम में भी ढूंढते थे (हैं भी )। यह तो अपनी -अपनी पसंद है और इस पर किसी को आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए । है भी नहीं । सवाल यहां दूसरा है । यमुना हमारे देश की बहुत महत्वपूर्ण नदी है । सभी नदियां जीवन दायिनी है । गंगा की पवित्रता के साथ ही यमुना की पावनता पर भी लोगों की आस्था है । अब तो नहीं पर आज दादी- नानी बन चुकी बहुत सी बहनों के नाम इसीलिए उनके माता-पिता ने इन नदियों के नाम पर रखे थे । अब वे ही गंगा यमुना अपनी पोतियों नातिनों के नाम किसी नदी के नाम पर नहीं रखतीं । इनकी नातिनें दूर्वा (दूब) या युक्ता होती हैं । जो इन्हीं नदियों की किसी बूंद से सिंचित होकर बढ़ती है । ऐसे ही बदलती है पसंद और गंगा - यमुना पुरानी हो जाती है । नर्मदा भी। बात यमुना की , इससे जुड़ा है भगवान कृष्ण का नाम । कालिया मर्दन भी ।
ऐसी पावन नदी के किनारे विश्व संस्कृति महोत्सव हुआ । राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण(एन जी टी) ने उस समय भी आपत्ति की थी । लेकिन राजनीति का साथ या संरक्षण होने पर ऐसी आपत्ति की चिंता नहीं होती । श्री श्री को भी नहीं हुई । महोत्सव हो गया । उसी समय करोड़ों का जुर्माना लगाया गया था । लाखों पटाए भी गए। अब आकलन करके प्राधिकरण ने कहा है कि इससे तो यमुना को बहुत नुकसान हुआ है । इसे ठीक करने में दस बरस लग जाएंगे और चालीस करोड़ रुपये खर्च भी करने पडेंगे । महाराज को यह बात ठीक नहीं लगी।अपनी आलोचना के जवाब में उल्टे प्राधिकरण को ही लपेट लिया । कहा कि एनजीटी ने अनुमति ही क्यों दी ? यमुना को हुए नुकसान के लिए तो सरकार और एनजीटी ही जिम्मेदार है। अनुमति देने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए । साथ ही यह भी कहा कि अगर यमुना इतनी ही नाजुक है तो वहां महोत्सव की अनुमति नहीं देनी थी।
बात बिलकुल सही है । लेकिन लोगों को इतना भोला कैसे समझ लेते हैं महाराज जी ? लोग जानते हैं कि प्रतिबंधों के बावजूद अनुमति कैसे मिल जाती है । हर शहर में पुलिस मैदान,सार्वजनिक उद्यान,स्वीमिंग पुल आदि होते हैं । इनमें कार्यक्रमों की अनुमति नहीं होती । फिर भी छुटभैये नेता तक की भभकी काम आ जाती है और ऐसी अनुमति दे देते हैं अफसर । नेता-अफसर-उद्योग की त्रयी और अब गुरूओं की भी, ही तो देश को चला रहीहै । चल भी रहा है देश। विकास भी कर रहा है । जब छुटभैया नेता की इतनी हैसियत है तो श्री श्री के पावर के सामने कौन नतमस्तक नहीं । हम चुप समाज के लोग सब सहते हैं । पेड़ की एक डंगाल काट लेने पर वन अफसरों के जुर्म और जुर्माना सहते हैं । अपनी गाड़ी से किए जा रहे पर्यावरण के नुकसान पर चालान होते हैं । अपनी दूकान पर निर्धारित आकार से बड़ा बोर्ड लगाने पर भी जुर्माना भरते हैं । इसलिए कि हम सिद्धांतों,ईमानदारी और अब मजबूरी में जीने के आदी हैं । बरसों से अपनी बर्बादी पर बोलना बंद कर चुके हैं । फिर भी कोई मनोज मिश्रा होता है जो श्री श्री के खिलाफ या यमुना को बचाने के लिये याचिका लगाता है ।और एनजीटी में कोई अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार होता है जो आयोजन करने वाले रविशंकर महाराज को जवाब देने का साहस करता है । और फिर महाराज की आलोचना भी सुनता है । जनता देखती है । जानती है । इस मामले में कुछ नहीं होना है । मीडिया की अपनी प्राथमिकताएं हैं। यहां तो दाल में पानी ज्यादा होने या कच्ची रोटियों की शिकायत पर सेना का एक देशभक्त जवान बर्खास्त कर दिया जाता है । इस निर्मम और शक्तिशाली व्यवस्था में बोलना इतना आसान भी नहीं । किसान अपने खेत और फसल के लिए रोना रोते रहें आत्महत्या करते रहें। नदियां प्रदूषित होती रहे ।महानदी या अरपा की रेत खोद डाली जाए। जंगलों को काट डाला जाए।पहाडों को भी बौने कर दिए जाए । बौनेपन के साथ जीते हुए आखिर हम अपनी ऊंचाई जो भूल चुके हैं ।
रविशंकर महाराज का प्राधिकरण और सरकार की आलोचना करना उतना ही सही है जितना अरपा नदी की रेत निकालने से रोकने पर सरपंच का खनिज अफसर को धमकाना या शहर में डेयरी रखने और हटाए जाने पर निगम अफसरों को दौड़ाना या कि बेजा कब्जे से घिरे गोलबाजार को सुधारने के लिए अफसरों का व्यापारियों के सामने गिडगिडाना या कि सीवरेज के गड्ढों में गिरते-मरते हुए भी हमारा चुपचाप जीते रहने का स्वांग करना । रविशंकर महाराज से लेकर सरपंच के पावर के सामने हम सब बौने हैं ।गमलों में लगे बोन्साई की तरह । चिंगराजपारा में खड़ा बूढ़ा पीपल अपनी छाँव देने बुला रहा है लेकिन हम लीविंग में सुकून ढूंढ रहे हैं ।
- *नथमल शर्मा*
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