कुपोषण का घर है पोरियाहुर
Thursday, January 12, 2017
कांकेर | अंकुर तिवारी: छत्तीसगढ़ का कांकेर ज़िला कुपोषण का गढ़ बनता जा रहा है. तमाम सरकारी योजनाओं के बाद भी दावों की हक़ीकत काग़जों में दम तोड़ दे रही है. जिले के आदिवासी कुपोषण की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं. ज़िले के कई इलाकों में आदिवासियों के लिए स्वास्थ्य योजनाओं और मितानीन का दूर-दूर तक अता-पता नहीं है.
अब जैसे पोरियाहुर को ही लें. कोयलीबेड़ा विकासखंड के माचपल्ली ग्राम पंचायत के आश्रित पोरियाहुर गांव के आदिवासी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं. इस गांव में आदिवासियों के 11 परिवार रहते हैं, जिसके कुल 65 सदस्य हैं. इनसे बात करने पर पता लगता है कि ये लोग शासन की योजनाओं से अनजान है. राज्य का मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री कौन है यह बात ग्रामीणों को नहीं मालूम हैं. सरकार भले ही इस इलाके के विकास के लिए करोड़ो रूपये भेजती हो मगर आदिवासी समुदाय को इसका लाभ नहीं मिल रहा हैं.
इस गांव में रहने वाली तीन साल की बच्ची लक्ष्मी पद्दा का पेट फूल गया है और उसके हाथ पांव दुबले पतले हैं. देखकर समझ में आता है कि लक्ष्मी गंभीर रूप से कुपोषण की चपेट में है तथा उसे जल्द ही मदद की जरूरत है. लक्ष्मी की तरह ही गांव के 6 साल के पुसु पद्दा, चार साल के लक्ष्मय, तीन साल की मनिता, पांच साल की जत्ते, दो साल की कमली और डेढ़ साल की सोमा के हालात भी ऐसे ही हैं, जिन्हें इलाज की ज़रुरत है. गांव के दूसरे बच्चों की हालत भी कुछ ठीक नहीं है.
इन आदिवासी बच्चों से कुपोषण को दूर करने के लिए गांव में किराये की झोपड़ी में एक आंगनबाड़ी केंद्र भी खोला गया है लेकिन गांव वालों की मानें तो पिछले कई वर्षों से आंगनबाड़ी कार्यकर्ता गांव में नहीं पहुंची हैं. इस आंगनबाड़ी केंद्र को एक सहायिका के भरोसे कागजों पर संचालित किया जा रहा है.
आंगनबाड़ी केंद्र के बाहर विभाग द्वारा जो बोर्ड लगाया गया हैं, उनमें मुख्यमंत्री रमन सिंह और पूर्व मंत्री लता उसेंडी की फोटो लगी हुई है. आज भी महिला एवं बाल विकास विभाग की नजर में पूर्व मंत्री लता उसेंडी ही विभागीय मंत्री हैं. इस बोर्ड को देखकर समझा जा सकता है कि गांव के आदिवासी बच्चों को रेडी-टू-ईट फूड, पोलियों की खुराक और कुपोषण तथा बीमारी से बचाने के लिए लगाया जाने वाला टीका अब तक नहीं लगाया गया है.
अब थोड़ी बातें गांव की भी. घने जंगलों और पहाड़ के बीच बसें इस गांव को बाहरी दुनिया से जोड़ने के लिए एक कच्ची सड़क तक नहीं है, जिसके कारण ग्रामीणों को छोटे-बड़े नदी नालों को पार कर पगडंडी के रास्ते गांव से आना-जाना करना पड़ता है. गांव में पेयजल के लिए एक सरकारी हैंडपंप लगाया गया है, गर्मी के दिनों में यह हैंडपंप सूख जाता है. घरेलू उपयोग की चीजों के लिये पास की दुकानें 15 किलीमीटर दूर संगम गांव में हैं. रास्ते में कोटरी नदी पड़ती है, जिसे बरसात के दिनों में पार कर राशन-पानी लाना संभव नहीं होता है. ऐसे में इन आदिवासियों की मुश्किल भरी ज़िंदगी का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल तो नहीं ही है.
गांव में बिजली है नहीं और चिमनी जलाने के लिये मिलने वाला एक लीटर मिट्टी तेल हर रात अंधेरे से लड़ने के लिये पर्याप्त नहीं होता. यही कारण है कि गांव के अधिकांश घरों में रात में अंधेरा पसरा रहता है.
गांव से पलायन कर गए आदिवासी
ग्रामीण मनकूराम पद्दा कहते है कि सरकार की अनदेखी के चलते जल, जंगल और जमीन को स्वर्ग मानने वाले आदिवासियों को पलायन करना पड़ा है. यहाँ के चार परिवार पलायन कर महाराष्ट्र चले गए हैं और दिहाड़ी मजदूर बन गए हैं. इसके साथ ही दो परिवार पास के गांव जुरहान, दो परिवार ग्राम पल्ली और बाकी लोग कहाँ जा बसे हैं, इसकी कोई खबर नहीं है.
ग्रामीण मनकूराम पद्दा कहते है कि सरकार की अनदेखी के चलते जल, जंगल और जमीन को स्वर्ग मानने वाले आदिवासियों को पलायन करना पड़ा है. यहाँ के चार परिवार पलायन कर महाराष्ट्र चले गए हैं और दिहाड़ी मजदूर बन गए हैं. इसके साथ ही दो परिवार पास के गांव जुरहान, दो परिवार ग्राम पल्ली और बाकी लोग कहाँ जा बसे हैं, इसकी कोई खबर नहीं है.
आदिवासियों के लिए स्कूल नहीं
यहाँ के आदिवासियों ने आज तक स्कूल की दहलीज़ पर कदम नहीं रखा हैं और ना ही सरकार ने आदिवासियों को शिक्षित करने के लिए गांव में स्कूल खोलने की जहमत उठाई है. सरकार के दावे और वादे इस गांव में दम तोड़ देते हैं. गांव के लोग चाहते हैं कि यह तस्वीर बदले लेकिन उनकी आवाज़ अब तक अनसुनी है.
यहाँ के आदिवासियों ने आज तक स्कूल की दहलीज़ पर कदम नहीं रखा हैं और ना ही सरकार ने आदिवासियों को शिक्षित करने के लिए गांव में स्कूल खोलने की जहमत उठाई है. सरकार के दावे और वादे इस गांव में दम तोड़ देते हैं. गांव के लोग चाहते हैं कि यह तस्वीर बदले लेकिन उनकी आवाज़ अब तक अनसुनी है.
अस्पताल पहुँच से दूर
38 साल के बुधराम कहते हैं कि यहाँ स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है, कोई बीमार पड़ जाये तो उसे गांव के ही दवा-दारु पर निर्भर रहना पड़ता है. गांव से अस्पताल तक जाने के लिए कोई रास्ता नहीं हैं. मरीजों को खाट पर लादकर बड़ी मुश्किल से दूर के अस्पताल लाया जाता है, तब तक मरीज की हालत और भी ख़राब हो जाती है. गांव में चिकित्सक कभी नहीं आते हैं. और ना ही जिला प्रशासन इस ओर ध्यान देता हैं.
38 साल के बुधराम कहते हैं कि यहाँ स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है, कोई बीमार पड़ जाये तो उसे गांव के ही दवा-दारु पर निर्भर रहना पड़ता है. गांव से अस्पताल तक जाने के लिए कोई रास्ता नहीं हैं. मरीजों को खाट पर लादकर बड़ी मुश्किल से दूर के अस्पताल लाया जाता है, तब तक मरीज की हालत और भी ख़राब हो जाती है. गांव में चिकित्सक कभी नहीं आते हैं. और ना ही जिला प्रशासन इस ओर ध्यान देता हैं.
बीस हजार रूपये में पक्का मकान?
आदिवासियों को पक्का मकान बनाने के लिए इंदिरा आवास योजना का लाभ दिया गया, लेकिन यह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. ग्रामीण कुलेराम, रायसू, मोड्डू, बुधराम, सुकलू और बैसू ने बताया कि इंदिरा आवास योजना के तहत पक्का मकान बनाने के लिए सरपंच ने 20 हजार रूपये दिया. लेकिन इतने पैसे में कोई पक्के मकान कैसे बना सकता है. इसलिए हमने मिट्टी के घर बनाये हैं.
आदिवासियों को पक्का मकान बनाने के लिए इंदिरा आवास योजना का लाभ दिया गया, लेकिन यह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. ग्रामीण कुलेराम, रायसू, मोड्डू, बुधराम, सुकलू और बैसू ने बताया कि इंदिरा आवास योजना के तहत पक्का मकान बनाने के लिए सरपंच ने 20 हजार रूपये दिया. लेकिन इतने पैसे में कोई पक्के मकान कैसे बना सकता है. इसलिए हमने मिट्टी के घर बनाये हैं.
और हां, स्वच्छ भारत अभियान इस गांव में कभी आया ही नहीं. घरों में शौचालय नहीं होने के कारण ग्रामीण आज भी खुले में ही शौच के लिए जाते हैं.
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