चर्च पंसद हैं मुझे........
यह तब लिखा था जब बंसत तिमोथी जिंदा थे। बंसत तिमोथी कौन है क्या है इसका जिक्र आगे करूंगा।
फिलहाल यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि मुझे चर्च पंसद है। बहुत ज्यादा पंसद है। देवदार और पलाश के बड़े-बड़े पेड़ों की वजह से चर्च मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं। चर्चों के प्रति मेरे आकर्षण की एक वजह यह भी रही है कि भिलाई सेक्टर छह की एक चर्च में मेरा दोस्त अलीवर जैकब हर संडे कांगो बजाने जाया करता था। अलीवर की वजह से मैं यह जान पाया था कि कैसे आरडी बर्मन बिस्किट के खाली डिब्बे, खाली बोतलें और कंघी के उपयोग से संगीत पैदा कर दिया करते थे। अपने पिता के रिकार्ड प्लेयर से गाना सुन-सुनकर मैं थोड़ा बहुत गाने लगा था। संगीत में आरडी का प्रभाव पैदा करने के लिए मैने और अलीवर ने स्कूल की लगभग हर टेबल और कुर्सी को ठोंक-बजाकर कांगों में तब्दील कर दिया था। हम दोनों ऐसी टेबल पर बैठते थे जिसमें बूम-बूम-धूम-धूम की आवाज निकलती थी। जैसे ही आधी छुट्टी होती मैं और अलीवर चालू हो जाते थे। मुझे अलीवर की दोस्ती इसलिए भी पंसद थीं क्योंकि पूरे स्कूल में वहीं एक था जो हर रोज बोरोलीन लगाकर आता था और मैं बोरोलीन की खूशबू के पीछे पागल था। अलीवर अपने टिफिन बाक्स में मेरे लिए कुछ न कुछ तो लाता ही था। कई बार कागज में छिपाकर बोरोलीन भी ले आता था ताकि मैं उसे चुपड सकूं।
चर्च के प्रति एक आकर्षण की दूसरी वजह हिंदी फिल्म देवता भी थीं। संजीव कुमार, शबाना आजमी और डैनी के अभिनय से सजी इस फिल्म का एक गीत- चांद चुराके लाया हूं... मुझे बेहद पंसद था। अब भी है। मुझे लगता था शबाना से मिलने-जुलने का संजीव कुमार ने बढिय़ा ठिकाना खोजा है। चर्च के पीछे। बाग-बगीचों में नौजवान लड़के-लडकियों से पैसे वसूलने वाली पुलिस चर्च के पीछे तो जा ही नहीं सकती क्योंकि सामने ईशु खड़े होंगे जो उन्हें रोक लेंगे।
एक रोज मैंने अलीवर से कहा कि चर्च देखना है। हमने एक योजना बनाई। हम स्कूल जाने के लिए साथ निकले लेकिन स्कूल न जाकर विजय और बंसत टाकीज में फिल्मों के पोस्टर देखने चले गए। हमारी योजना थीं कि हम फिल्मों के पोस्टरों को देखने के बाद चर्च आएंगे और फिर घर जाकर कह देंगे स्कूल से आ गए।
हम चर्च पहुंचे। चर्च में प्रवेश करते ही मैं ठीक वैसे ही चिल्लाने लगा जैसे फिल्म मधुमति में दिलीप कुमार- सुहाना सफर ये मौसम हंसी... गाने के पहले हे.. हो.. हो करके चिल्लाता है। मैं चिल्लाता रहा और आवाज टकराकर मुझ तक पहुंचती रही, लेकिन थोड़े ही देर में मेरी यह खुशी काफूर हो गई। फिल्म अमर-अकबर-अंथोनी में अभिताभ बच्चन को समझाने वाला एक फादर जैसा फादर हमारे सामने खड़ा था। फादर ने हमें समझाया कि जब कोई प्रार्थना में लीन हो तो उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए।
मैं और अलीवर उस जगह पहुंच गए, जहां बड़ी सी मोमबत्ती जल रही थी। वहां गहरे कत्थे रंग का स्कार्फ पहने हुए एक बूढ़ी औरत और हल्का गुलाबी फ्राक पहनी हुई एक खूबसूरत लड़की प्रार्थना कर रही थी। अलीवर और मैं उस बूढ़ी औरत के बगल में घुटनों के बल बैठ गए। अलीवर ने तो प्रार्थना की मुद्रा अख्तियार कर ली, लेकिन मैं यह सोचकर हाथ नहीं जोड़ पा रहा था कि घर में पता चलेगा तो क्या होगा? मां ने हर फोटो के सामने अगरबत्ती घुमाना सिखाया था तो मन मोमबत्ती देखकर थोड़ा हिचक रहा था। इसी हिचक के चलते मैं कभी सुलभा देशपांडे के समान दिखने वाली बूढ़ी औरत को देखता रहा तो कभी निरमा वाशिंग पाउडर के चित्र जैसी नजर आने वाली लड़की को। लड़की कुछ बुदबुदा रही थी। मैंने अलीवर से पूछा- लड़की क्या बोल रही है। उसने बताया- ईशु से कुछ मांग रही है। मैंने चर्च में अपने देवी-देवताओं का आह्वावान किया। जितने भगवानों को अगरबत्ती लगाने के दौरान जानता था उन सबसे मैंने कहा- बुढिय़ा और लड़की ईशु से जो कुछ मांग रहे हैं तुम उन्हें दे देना।
इसके बाद जब कभी भी मुझे अवसर मिलता मैं चर्च जरूर जाता रहा। यहीं पर मैंने कांगो-बांगो, मरकस, एकार्डियन, सेक्सोफोन और वायलिन के साथ समूह में 'प्रभु ईशु आया मेरा जीवन बदला.. यहां पाप नहीं यहां पुण्य नहीं जैसा गीत सुना था। एक रोज मुझे ' जो क्रूस पे कुरबां है वह मेरा मसीहा है, हर जख्म जो उसका है वह मेरे गुनाहों का है गीत ने परेशान कर दिया। काफी दिनों तक मैं यह सोचता रहा कि क्या ईशु सचमुच हमारे गुनाहों की वजह से क्रूस पर चढ़े थे? काफी खोजबीन के बाद यह पता चला कि गीत की धुन को छत्तीसगढ़ के बंसत तिमोथी नामक शख्स ने तैयार किया था। तिमोथी जी जबरदस्त वायलिन बजाते थे। छत्तीसगढ़ में आने से पहले तिमोथी जी जबलपुर की प्रसिद्ध मसीही संस्था स्वर संगम प्रभात में काम किया करते थे। यह संस्था रेडियो सीलोन के लिए कार्यक्रम बनाया करती थी। देश- दुनिया के चर्चों में आज भी तिमोथी जी के संगीतबद्ध किए गए गीत बज रहे हैं।
दोस्तों चर्च जाता हूं तो बहुत कुछ याद आता है। बचपन याद आता है। अलीवर जो अब इस दुनिया में नहीं है.. वह याद आता है। तिमोथी जी भी नहीं है लेकिन वंदना करते हैं हम... रेडियों सीलोन में सुबह-सुबह बजने वाली प्रार्थना भी याद आती है।
हर साल २५ दिसम्बर को चर्च जरूर जाता हूं। पिछले साल अपने एक अजीज दोस्त के साथ रायपुर से बाहर जंगल में था तब हमने एक कैंडल जलाकर ईशु को याद किया था। चर्च में मोमबत्ती लगाते हुए लोग मुझे अच्छे लगते हैं। वहां दिखने वाले बच्चों को देखकर लगता है कि देश- दुनिया में बहुत सी चीजें खराब है, लेकिन उम्मीद अब भी खूबसूरत ही है जो बच्चों के रुप में हमारे आसपास मौजूद हैं। एक अजीज दोस्त का कहना है कि मैं अब भी बच्चा हूं। दोस्त को क्या मालूम कि मैं अपने भीतर के बच्चे को बचाकर रखने के लिए ही हर रोज चर्च के सामने से गुजरता हूं।
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राजकुमार सोनी
पत्रकार पत्रिका
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