मुस्लिम शासनकाल में नहीं हुआ था हिंदुओं पर हमला'
By Web Desk | Sunday, September 13, 2015 - 18:35
'मुस्लिम शासनकाल में नहीं हुआ था हिंदुओं पर हमला'
वाशिंगटन. स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की एक इतिहासकार का कहना है कि पुराने संस्कृत ग्रंथ इस बात का खुलासा करते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंध हुआ करते थे. उनका कहना है कि मुगलों के शासनकाल में कोई धार्मिक या सांस्कृतिक संघर्ष नहीं था. यह इतिहासकार ऑड्रे ट्रश्के हैं.
दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक और बौद्धिक इतिहास पर इनकी काफी पकड़ मानी जाती है. इन्होंने अपनी किताब 'कल्चर ऑफ एनकाउंटर्स : संस्कृत एट द मुगल कोर्ट' में कहा है कि 16वीं से 18वीं सदी के बीच दोनों समुदायों में एक-दूसरे के लिए बहुत ज्यादा सांस्कृतिक आदर-भाव पाया जाता था. धार्मिक या सांस्कृतिक झगड़े नहीं थे.
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय ने एक बयान में कहा है, "उनका (ट्रश्के) शोध जो सामान्य धारणाएं हैं, उससे बिलकुल अलग तरह का खाका खिंचता है. सामान्य धारणा यही है कि मुसलमान हमेशा भारतीय भाषाओं, धर्मो और संस्कृति के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते रहे हैं."
दक्षिणपंथी हिंदुओं ने देखा अपना फायदा-
ट्रश्के का कहना है कि समुदायों को बांटने वाली व्याख्याएं दरअसल अंग्रेजों के दौर 1757 से 1947 के बीच अस्तित्व में आईं. ट्रश्के लिखती हैं कि उपनिवेशवाद 1940 के दशक में खत्म हो गया। लेकिन, दक्षिणपंथी हिंदुओं ने हिंदू-मुसलमान के बीच के विवादों को हवा देते रहने में काफी राजनैतिक फायदा देखा.
ट्रश्के कहती हैं कि भारत में मौजूदा धार्मिक तनाव की वजह मुगलकाल के बारे में बनी बनाई वैचारिक अवधारणा में निहित है. उप महाद्वीप के इतिहास का वस्तुष्ठि और सटीक अध्ययन नहीं किया जाता. आज की धार्मिक असहिष्णुता को न्यायोचित ठहराने के लिए मुगलकाल के उन धार्मिक तनावों का हवाला दिया जाता है जो दरअसल थे ही नहीं.
ट्रश्के का काम बताता है कि भारत में मुसलमानों की लालसा भारतीय संस्कृति या हिंदू धर्म पर प्रभुत्व हासिल करने की नहीं थी. सच तो यह है कि आधुनिक काल के शुरुआती दौर के मुसलमानों की रुचि परंपरागत भारतीय विषयों को जानने में थी.
भारत में रहकर की स्टडी-
यह विषय संस्कृत ग्रंथों में मौजूद थे. स्टैनफोर्ड में धार्मिक विषयों की शिक्षा देने वाली ट्रश्के ने अपने शोध के लिए कई महीने पाकिस्तान में और 10 महीने भारत में गुजारे. वह पांडुलिपियों की तलाश में कई अभिलेखागारों में गईं. उन्होंने इस बात को समझा कि मुगल समाज के संभ्रांत लोग संस्कृत विद्वानों के निकट संपर्क में रहते थे. ट्रश्के से पहले इस रिश्ते पर किसी ने गहरी रोशनी नहीं डाली थी. उन्होंने बताया कि भाषाई और धार्मिक मामलों पर हिंदू और मुसलमान बुद्धिजीवियों में विचारों का आदान-प्रदान होता था.
ट्रश्के का शोध बताता है कि बजाए इसके कि मुगल भारतीय ज्ञान और साहित्य को खत्म करना चाहते थे, सच यह है कि मुगलों ने भारतीय चिंतकों और विचारकों के साथ गहरे संबंध का समर्थन किया था. ट्रश्के इस्लामी शासन व्यवस्था में संस्कृत के इतिहास पर किताब लिख रही हैं.IANS
दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक और बौद्धिक इतिहास पर इनकी काफी पकड़ मानी जाती है. इन्होंने अपनी किताब 'कल्चर ऑफ एनकाउंटर्स : संस्कृत एट द मुगल कोर्ट' में कहा है कि 16वीं से 18वीं सदी के बीच दोनों समुदायों में एक-दूसरे के लिए बहुत ज्यादा सांस्कृतिक आदर-भाव पाया जाता था. धार्मिक या सांस्कृतिक झगड़े नहीं थे.
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय ने एक बयान में कहा है, "उनका (ट्रश्के) शोध जो सामान्य धारणाएं हैं, उससे बिलकुल अलग तरह का खाका खिंचता है. सामान्य धारणा यही है कि मुसलमान हमेशा भारतीय भाषाओं, धर्मो और संस्कृति के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते रहे हैं."
दक्षिणपंथी हिंदुओं ने देखा अपना फायदा-
ट्रश्के का कहना है कि समुदायों को बांटने वाली व्याख्याएं दरअसल अंग्रेजों के दौर 1757 से 1947 के बीच अस्तित्व में आईं. ट्रश्के लिखती हैं कि उपनिवेशवाद 1940 के दशक में खत्म हो गया। लेकिन, दक्षिणपंथी हिंदुओं ने हिंदू-मुसलमान के बीच के विवादों को हवा देते रहने में काफी राजनैतिक फायदा देखा.
ट्रश्के कहती हैं कि भारत में मौजूदा धार्मिक तनाव की वजह मुगलकाल के बारे में बनी बनाई वैचारिक अवधारणा में निहित है. उप महाद्वीप के इतिहास का वस्तुष्ठि और सटीक अध्ययन नहीं किया जाता. आज की धार्मिक असहिष्णुता को न्यायोचित ठहराने के लिए मुगलकाल के उन धार्मिक तनावों का हवाला दिया जाता है जो दरअसल थे ही नहीं.
ट्रश्के का काम बताता है कि भारत में मुसलमानों की लालसा भारतीय संस्कृति या हिंदू धर्म पर प्रभुत्व हासिल करने की नहीं थी. सच तो यह है कि आधुनिक काल के शुरुआती दौर के मुसलमानों की रुचि परंपरागत भारतीय विषयों को जानने में थी.
भारत में रहकर की स्टडी-
यह विषय संस्कृत ग्रंथों में मौजूद थे. स्टैनफोर्ड में धार्मिक विषयों की शिक्षा देने वाली ट्रश्के ने अपने शोध के लिए कई महीने पाकिस्तान में और 10 महीने भारत में गुजारे. वह पांडुलिपियों की तलाश में कई अभिलेखागारों में गईं. उन्होंने इस बात को समझा कि मुगल समाज के संभ्रांत लोग संस्कृत विद्वानों के निकट संपर्क में रहते थे. ट्रश्के से पहले इस रिश्ते पर किसी ने गहरी रोशनी नहीं डाली थी. उन्होंने बताया कि भाषाई और धार्मिक मामलों पर हिंदू और मुसलमान बुद्धिजीवियों में विचारों का आदान-प्रदान होता था.
ट्रश्के का शोध बताता है कि बजाए इसके कि मुगल भारतीय ज्ञान और साहित्य को खत्म करना चाहते थे, सच यह है कि मुगलों ने भारतीय चिंतकों और विचारकों के साथ गहरे संबंध का समर्थन किया था. ट्रश्के इस्लामी शासन व्यवस्था में संस्कृत के इतिहास पर किताब लिख रही हैं.IANS
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