में सामान्य वर्ग से आता हूँ
मेरे सयुंक्त परिवार में की जवान पीढ़ी में कुल 9 लोग गिने मेने आज,
जो नोकरी करने योग्य थे या कहिये उन्हें नोकरी की जरुरत थी।
उनमे से सौ प्रतिशत लोग निजी कंपनी या कहे कि कारपोरेट की नोकरी करते है .
मेरी पीढ़ी में चार में से तीन भाई सरकारी नोकरी करते थे , और मेरे पिता के परिवार् में भी सब लोग सरकारी नोकरी में थे.
मुझे कभी याद नहीं आता की हमारे घर में कभी आरक्षण को लेके कोई चिंता या नाराजी व्यक्त हुई हो , क्यों की कभी उस वज़ह से कोई परेशानी ही नहीं पड़ी आज तो कार्पोरेट और निजी कंपनी में आरक्षण के कोई मतलब ही नहीं बचा।
मेरे कहने का ये मतलब यह कतई नहीं है की रोजगारी की समस्या ही नहीं है ।
में सिर्फ यह कह रहा हूँ की आरक्षण की बहस दुर्भावना पूर्ण ज्यादा है , वास्तविक कम ।
जैसे मेरे घर के लोग भी गाहे बगाहे आताक्षण के खिलाफ बहस करते मिल जायेंगे जब की उहे इसकी कभी जरुरत ही नही थी.
जो नोकरी करने योग्य थे या कहिये उन्हें नोकरी की जरुरत थी।
उनमे से सौ प्रतिशत लोग निजी कंपनी या कहे कि कारपोरेट की नोकरी करते है .
मेरी पीढ़ी में चार में से तीन भाई सरकारी नोकरी करते थे , और मेरे पिता के परिवार् में भी सब लोग सरकारी नोकरी में थे.
मुझे कभी याद नहीं आता की हमारे घर में कभी आरक्षण को लेके कोई चिंता या नाराजी व्यक्त हुई हो , क्यों की कभी उस वज़ह से कोई परेशानी ही नहीं पड़ी आज तो कार्पोरेट और निजी कंपनी में आरक्षण के कोई मतलब ही नहीं बचा।
मेरे कहने का ये मतलब यह कतई नहीं है की रोजगारी की समस्या ही नहीं है ।
में सिर्फ यह कह रहा हूँ की आरक्षण की बहस दुर्भावना पूर्ण ज्यादा है , वास्तविक कम ।
जैसे मेरे घर के लोग भी गाहे बगाहे आताक्षण के खिलाफ बहस करते मिल जायेंगे जब की उहे इसकी कभी जरुरत ही नही थी.
[ डा लखन सिंह ]
No comments:
Post a Comment