इतिहास का गौरव गान मध्यमवर्गीय ऐय्याशी
रवीश कुमार
एक हफ्ते से ध्यान फिर से उन मज़दूर बस्तियों की तरफ़ चला गया है जहाँ इतिहास और वर्तमान से बेदख़ल कर दिये गए लोग रहने के लिए मजबूर हैं । ये लोग मज़दूर हैं जो बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल और बुंदेलखंड से गुड़गाँव, ग्रेटर नोएडा, दिल्ली, फ़रीदाबाद, लुधियाना, सूरत, भिवंडी की अंधेरी बस्तियों में रहते हैं । यहाँ इन्हें सुबह सुबह शौच के लिए एक शौचालय तक मयस्सर नहीं है । कमरों में खिड़कियाँ नहीं है । इनसे बिजली की दर वो वसूली जाती है जो अमीर भी नहीं देता । गुलाम की तरह अधिक दाम पर सामान ख़रीदने के लिए मजबूर किये जाते हैं । कंपनियाँ ख़ून चूस रही हैं । न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं देतीं । मकान मालिक मारते पीटते हैं ।
इनके कमरे में अख़बार तक नहीं आता । अख़बार ख़रीदने की क्रयशक्ति नहीं है । टीवी तब देख पाते हैं जब दुकान वाला थोड़ा बाहर की तरफ घुमा देता है । वर्ना मोबाइल में गाना और वीडियो डाउनलोड ही इनका सहारा है । इन सबको बिहारी या भैय्या जी कहकर दुत्कारा जाता है । ये लोग भागे हुए हैं । भगाये हुए हैं । सताये जा रहे हैं । त्योहारों के वक्त जब ट्रेन पकड़ते हैं तो शौचालय में सो कर जाना पड़ता है । इनकी आँखों में एक शून्य तैरता दिखता है । काम करने की जगह और घर के बीच एक सफ़र ही है जिसे तय करने की उम्मीद में जीते रहते हैं ।
इन बिहारी मज़दूरों की औरतें दिल्ली शहर में भी अपने घर के भीतर पोलिथिन में शौच करती हैं । बाहर जाना पड़ता है तो चेहरे को ढंक लेती हैं ताकि ये पता न चले कि कौन हैं । मैंने खुद दिल्ली शहर में मर्दों की तरह औरतों को सड़कों के किनारे पेशाब करते देखा है । किसी भी राज्य या किसी भी पार्टी की सरकार को चुन लीजिये सबका रिकार्ड इस मामले में बदतर है । इन सरकारों ने कभी भी स्थानीय प्रशासन से ये नहीं कहा कि इन मज़दूरों के रहने की जगह में साफ सफाई होनी चाहिए । किसी ने कंपनियों को मजबूर नहीं किया कि कम से कम न्यूनतम मज़दूरी तो दो । मध्यमवर्गीय ऐय्याश सिर्फ आँकड़ों का गीत गाएगा । उसे यह नहीं समझ आता है कि सरकार और प्रशासन ने उसके भी असुरक्षित रहने के पर्याप्त इंतज़ाम कर लिये हैं । अंतर सिर्फ थोड़ा बेहतर होने में ही है ।
ऐसे बेबस लोगों लोगों के साथ इतिहास के नाम पर घटिया मज़ाक़ हो रहा है । पाँच हज़ार महीने की कमाई के लिए अपमानजनक शर्तों पर जीने वालों को इतिहास के गौरव की मिठाई दी जा रही है । आप अपनी आँखें फोड़ कर ज़रा बताइये कि इन गरीब बिहारी मज़दूरों के लिए इलाक़े का इतिहास गौरव किस काम का है । बुद्ध, अशोक, चंद्रगुप्त, नालंदा की धरती हो जाने से गरीब बिहारी मज़दूरों की भुजाएँ क्या वाक़ई में फड़कने लगती होंगी । रैलियों में इन्हें बुलाकर बिठाकर अशोक और चंद्रगुप्त के नाम पर जो हमारे नेता परोसने लगते हैं उससे क्या इनकी स्थिति बदल जाती होगी ।
आजकल चुनावी सभाओं में राज्य लेकर ज़िले तक को किसी न किसी ऐतिहासिक शख़्सियत की धरती बताए जाने की मूर्खता चल पड़ी है । चंपारण है तो गांधी की धरती है । गया है तो बुद्ध की धरती है ।दूरबीन लगाकर देखो वहाँ गांधी जैसा क्या दिखता है, बुद्ध जैसा क्या दिखता है । बोलने वाले की करनी में कितना गांधी है, कितना बुद्ध है । क्या इन जगहों की राजनीतिक आर्थिक हकीकत को देखकर लगता है कि वहाँ अभी भी बुद्ध मौजूद हैं ? गांधी मौजूद हैं ? मठ मंदिर और आश्रम हो जाने से उसका वर्तमान गांधी या बुद्ध का नहीं हो जाता । इनका नाम जपने वाला कितना गांधी बन गया है ? कितना बुद्ध बन गया है ?
झूठ, कपट और काले धन से खुलेआम चलने वाली हमारी राजनीति क्यों फटीचर टाइप किसी गाँव क़स्बे ज़िले और राज्य को इसकी धरती उसकी धरती बताती रहती है । ताली बजवाने के लिए या यह बताने के लिए इतिहास बोध जितना नेता का है उतना ही या उससे भी कम जनता का है । वे कौन लोग हैं जिन्हें इतिहास पर गौरव होता है । आसान सा जवाब है । सत्ता और संसाधनों पर नियंत्रण रखने वाले खातेपीते लोग हैं । यही इतिहास का आधा अधूरा गान करने लगते हैं । इनके लिए गौरव एक मेकअप है जिसे गालों पर पोत कर किराये के स्टेडियम में जाते हैं । इंडिया इंडिया करने ।
जो बेआवाज़ है उसने न तो अशोक के बारे में पढ़ा है न चाणक्य की नीति जानता है। उसकी समस्या का समाधान न तो सम्राट के नाम से होता है न स्टेशन पर बिकने वाले उसके सिपाहसलार की किताब से ।अशोक अगर पंजाब के होते तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता और चाणक्य अगर बीकानेर के होते तो भी वो उनकी जगह पांच रुपये वाले बीकानेरी गुझिया के पैकेट से मतलब रखता जिससे उसकी एक शाम की भूख शांत हो जाती है । मध्यमवर्गीय ऐय्याशी है इतिहास का यह गौरव गान । दरअसल इसे भी चंद नामों से ज्यादा नहीं मालूम । इतिहास इस तबके ने भी नहीं पढ़ा है । फ़र्क ये है कि इसे अपनी मूर्खता को विद्वता के रूप में दिखाना आता है, ग़रीबों के चेहरे पर इतिहास गौरव वाले चार नाम आते ही दिख जाता है कि इन्हें मालूम नहीं था ।
हर जगह की धरती पर कोई न कोई पैदा हुआ है । कहीं की भी धरती किसी भी नेता के राज में क़सम पैदा होने वालों की तरह नहीं हो सकी है । ये मैंने नासा के वैज्ञानिकों से मिलकर सैटेलाइट सर्वे के द्वारा पता कर लिया है । चुनावी रैलियों में इतिहास गौरव गान के नाम पर सार्वजनिक चेतना को भोथरा मत कीजिये । दो चार नामों के ज़रिये इतिहास गौरव के नाम पर इतिहास को चिरकुट मत बनाइये । ये गौरव गान ग़रीबों का नहीं है । मध्यमवर्ग का है । उसकी ऐय्याशी है ।
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