विश्व हिंदी सम्मेलन: स्पष्ट करो कि तुम्हारा एजेण्डा क्या है ?Featured
राजेश जोशी
भाषा का सवाल चाहे संस्कृति से जुड़ा हो लेकिन भाषा-नीति को देश की राजनीति ही निर्धारित करती है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं से जुड़े तमाम सवाल आज भी अगर इतने उलझे हुए और भ्रमपूर्ण स्थिति में नज़र आते हैं, तो इसलिये कि हमारी सरकारें और राजनीतिज्ञ भाषा नीति के मामले में स्पष्ट नहीं हैं। भाषा-नीति को लेकर कोई स्पष्ट विज़न राजनीतिज्ञों के पास नहीं है। राजनीतिज्ञों का हिन्दी और भारतीय भाषाओं के भाषाविदों और रचनाकारों से संवाद का कोई रिश्ता ही नहीं है। सच तो यह है कि सारे राजनीतिज्ञ भारतीय भाषाओं के सवाल से हमेशा बचने की कोशिश करते रहे हैं। हालांकि त्रिभाषा फार्मूला हो या राजभाषा अधिनियम इसे सरकारों ने ही बनाया है लेकिन खासतौर से हिन्दी क्षेत्र में इन दोनों के साथ क्या सलूक किया गया इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिये। त्रिभाषा फार्मूले के साथ सबसे बड़ा दोगलापन हिन्दी क्षेत्रों की सरकारों द्वारा किया गया और लगातार किया जा रहा है। लेकिन इसके बारे में कोई चर्चा विश्व हिन्दी सम्मेलनों में नहीं हुई, नाही विश्व हिन्दी सम्मेलनों में कोई प्रस्ताव इस बारे में पारित किया और ना ही कोई दबाव सरकारों पर बनाया गया कि इसे ठीक किया जाये।
विश्व हिन्दी सम्मेलन को हिन्दी प्रदेश में करने का कोई औचित्य नज़र नहीं आता। आज तक हुए नौ सम्मेलन या तो गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों में किये गये या विदेशों में आयोजित किये गये। हालांकि उसकी भी कोई उल्लेखनीय उपलब्धी रही हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। विगत नौ सम्मेलनो पर कितना व्यय हुआ और हिन्दी के प्रचार प्रसार में उनकी उपलब्धियाँ क्या हैं ? कौन से ठोस परिणाम हमारे सामने आये हैं ? मुझे लगता है कि दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में सरकार और आयोजकों को इस बारे में एक श्वेत-पत्र जारी करना चाहिये। अगर एक बार भी हम पूरी ईमानदारी से इनका मूल्यांकन कर सकें तो पायेंगे कि विश्व हिन्दी सम्मेलन सिर्फ एक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है और इसने हिन्दी को फायदे के बजाय नुकसान ही अधिक पहुँचाया है। पहले के बनिस्बत अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ा है। हिन्दी को आज भी हम कैरियर की भाषा नहीं बना पाये हैं। आम धारणा यही है कि हिन्दी पढ़ने से नौकरी नहीं मिलती। उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम हिन्दी को हम नहीं बना पाये हैं।
इस विश्व हिन्दी सम्मेलन में अपनायी गयी प्रक्रियाओं पर एक नज़र डालें तो आप पायेंगे कि यह हिन्दी के बौद्धिक समाज का अपमान है। जिलाधीशों के सहारे जिलों के हिन्दी हितेशियों को सम्मेलन का प्रतिनिधि चुना जा रहा है। जिस तरह से रचनाकारों और विद्वानों से अपने रजिस्ट्रेशन करवाने का विज्ञापन निकाला गया, सुरक्षा के नाम पर जिस तरह बारकोड चैक करने की बात की जा रही है, सम्मेलन के उदघाटन समारोह के कार्ड के पीछे छपे निर्देशों को पढ़ें तो आश्चर्य होता है कि ये सारी व्यवस्थाएँ देश के सबसे बड़े समुदाय द्वारा बोली जाने वाली भाषा के सम्मेलन की है या किसी जासूसी नाटक की रिहर्सल चल रही है ?
सम्मेलन के उदघाटन समारोह के कार्ड पर सिर्फ मंत्रियों के याने उदघाटक प्रधान मंत्री अध्यक्ष विदेश मंत्री, विशेष अतिथि मुख्य मंत्री है। इसमें न तो कोई लेखक है न भाषाविद। इसी तरह समापन के कार्ड पर भी मुख्य अतिथि भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, अध्यक्ष विदेश मंत्री, विशेष अतिथि मुख्यमंत्री है और विशेष उपस्थिति -एक फिल्मी अभिनेता की है, जिनका नाम अमिताभ बच्चन है। हिन्दी के किसी शीर्षस्थ भाषाविद या रचनाकार के लिये कोई जगह नहीं है। भाषा के प्रचार प्रसार में फिल्म इंडस्ट्री के योगदान से इंकार नहीं, इसके लिये इस विषय पर एक सेमिनार आयोजित हो सकता था लेकिन अगर विश्व हिन्दी सम्मेलन को एक पापुलिस्ट....यानि सस्ती लोकप्रियतावादी छवि ही दी जानी है तो बेहतर होता कि सरकार और इसके आयोजक इसे बालीवुड को सौंप देते। शायद बालीवुड इस सम्मेलन को ज्यादा बेहतर स्वरूप दे देता लेकिन विश्व हिन्दी सम्मेलन की आड़ में जो राजनीति का खेल खेला जाना है वह तब शायद पूरा नहीं हो पाता। ई की मात्रा की आड़ में उ की मात्रा का खेल जारी है।
विश्व हिन्दी सम्मेलन को हिन्दी प्रदेश में करने का कोई औचित्य नज़र नहीं आता। आज तक हुए नौ सम्मेलन या तो गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों में किये गये या विदेशों में आयोजित किये गये। हालांकि उसकी भी कोई उल्लेखनीय उपलब्धी रही हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। विगत नौ सम्मेलनो पर कितना व्यय हुआ और हिन्दी के प्रचार प्रसार में उनकी उपलब्धियाँ क्या हैं ? कौन से ठोस परिणाम हमारे सामने आये हैं ? मुझे लगता है कि दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में सरकार और आयोजकों को इस बारे में एक श्वेत-पत्र जारी करना चाहिये। अगर एक बार भी हम पूरी ईमानदारी से इनका मूल्यांकन कर सकें तो पायेंगे कि विश्व हिन्दी सम्मेलन सिर्फ एक तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं है और इसने हिन्दी को फायदे के बजाय नुकसान ही अधिक पहुँचाया है। पहले के बनिस्बत अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ा है। हिन्दी को आज भी हम कैरियर की भाषा नहीं बना पाये हैं। आम धारणा यही है कि हिन्दी पढ़ने से नौकरी नहीं मिलती। उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम हिन्दी को हम नहीं बना पाये हैं।
इस विश्व हिन्दी सम्मेलन में अपनायी गयी प्रक्रियाओं पर एक नज़र डालें तो आप पायेंगे कि यह हिन्दी के बौद्धिक समाज का अपमान है। जिलाधीशों के सहारे जिलों के हिन्दी हितेशियों को सम्मेलन का प्रतिनिधि चुना जा रहा है। जिस तरह से रचनाकारों और विद्वानों से अपने रजिस्ट्रेशन करवाने का विज्ञापन निकाला गया, सुरक्षा के नाम पर जिस तरह बारकोड चैक करने की बात की जा रही है, सम्मेलन के उदघाटन समारोह के कार्ड के पीछे छपे निर्देशों को पढ़ें तो आश्चर्य होता है कि ये सारी व्यवस्थाएँ देश के सबसे बड़े समुदाय द्वारा बोली जाने वाली भाषा के सम्मेलन की है या किसी जासूसी नाटक की रिहर्सल चल रही है ?
सम्मेलन के उदघाटन समारोह के कार्ड पर सिर्फ मंत्रियों के याने उदघाटक प्रधान मंत्री अध्यक्ष विदेश मंत्री, विशेष अतिथि मुख्य मंत्री है। इसमें न तो कोई लेखक है न भाषाविद। इसी तरह समापन के कार्ड पर भी मुख्य अतिथि भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, अध्यक्ष विदेश मंत्री, विशेष अतिथि मुख्यमंत्री है और विशेष उपस्थिति -एक फिल्मी अभिनेता की है, जिनका नाम अमिताभ बच्चन है। हिन्दी के किसी शीर्षस्थ भाषाविद या रचनाकार के लिये कोई जगह नहीं है। भाषा के प्रचार प्रसार में फिल्म इंडस्ट्री के योगदान से इंकार नहीं, इसके लिये इस विषय पर एक सेमिनार आयोजित हो सकता था लेकिन अगर विश्व हिन्दी सम्मेलन को एक पापुलिस्ट....यानि सस्ती लोकप्रियतावादी छवि ही दी जानी है तो बेहतर होता कि सरकार और इसके आयोजक इसे बालीवुड को सौंप देते। शायद बालीवुड इस सम्मेलन को ज्यादा बेहतर स्वरूप दे देता लेकिन विश्व हिन्दी सम्मेलन की आड़ में जो राजनीति का खेल खेला जाना है वह तब शायद पूरा नहीं हो पाता। ई की मात्रा की आड़ में उ की मात्रा का खेल जारी है।
लेखक साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित
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