Tuesday, September 1, 2015

विश्व से स्वयं तक की यात्रा - मेरे दादा और वसुधैवकुटुंबकम

विश्व से स्वयं तक की यात्रा 

मेरे दादा और वसुधैवकुटुंबकम 

मेरे पिता और मुझ में असहमति के प्रगाढ़ सम्बन्ध थे,
मुझे याद आता है की कुछ निजी पारिवारिक मुद्दों को छोड़ के सामाजिक या राजनेतिक पे हमारी परस्पर सहमति कभी नहीं बनी .

तो एक बार मेने सोचा की में आज की चर्चा में बिलकुल असहमति दर्ज नही करूँगा , सिर्फ हाँ हाँ ही बोलूँगा।
तो चर्चा उन्होंने शुरू की कि हमारी संस्कृति सारे विश्व को एक परिवार और बन्धु मानती हैं .

मेने कहा हाँ 

तो दुनिया के सब देश हमारे जैसे पवित्र बल शाली और सुसंस्कृत हैं ? मेने कहा ,
वो बोले वो तो सही है , लेकिन उन सब में भारत बड़ा महान है , हमारे यहाँ भगवान और देवता जन्म लिए , हमारे यहाँ हर तरह के धर्म और जातिया है.

मेने कहा हां ,

तो फिर हमारे देश में सारे धर्म बराबर हैं ?
उन्होंने कहा वो तो सही है , लेकिन हिन्दू धर्म तो हमारे देश का है , बांकी तो बाहर से आये है .
और फिर हिन्दू धर्म ही तो है , जहाँ जाति की परिपूर्ण व्यवस्था है 
.
मेने कहा हां
.
तो फिर सारे वर्ण बराबर है ?
उन्होंने तुरंत कहा की हमारे धर्म में किसी वर्ण को छोटा बड़ा नहीं बताया.
लेकिन यक़ीनन ब्राहमण तो बदमाश और चालाक कोम है,
बनिया तो लूटने और चूसने का काम करते रहे हैं 

और शुद्रो की बात तो कई ग्रंथो में स्पष्ट लिखी है ,
बस राजपूत ही सच्चे देश भक्त है जो हमेशा अपना सर कटवाने को तैयार रहते हैं ।

मेने कहा हां .
तो फिर सारे राजपूत बराबर ही होंगे ?
वे बोले
वो तो ठीक ही कहा , लेकिन राजपूतो में तोमर चौहान भदोरिया सेंगरो में सिकरवार सबसे बड़े राजपूत है .

मेने कहा हाँ
तो सिकरवार में सारे परिवार बराबर होंगे ?
वे बोले कहने को तो सब बराबर ही कहे जा सकते है , लेकिन देखो न कई सिकरवारों ने जाती के बाहर शादियाँ कर के गड़बड़ कर ली ,
बस हमारा परिवार ही उनमे से अकेला बचा है .

मेने कहा हां .
,
मुझे लगा आज की बातचीत में निर्णय हो गया की हमारा परिवार दुनिया में सर्वोत्तम है .
फिर भी में पुछ बैठा की
तो हमारे परिवार में सब योग्य और श्रेष्ठ है न ?
तो उन्होंने बांकी सब का कच्चा चिटठा खोल दिया .
और अंत में चर्चा इस बात पे समाप्त हुई की वे ही
दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं 

मेने कहा हां
बाद में वो हसने लगे और कहे
की देखो ये बराबरी का कीड़ा कम्यूनिस्टो द्वारा पैदा किया हैं ।
वर्ना हमारे यहाँ तो भगवान का आशीर्वाद और प्रसाद तक पात्रतानुसार बाटने का आदेश है।

( यह संवाद 1992 में भोपाल के एक समाचार पत्र में छप चुका है ,जिसे दादा ने भी पढ़ा और खुश हुए )

[ डा लाखन सिंह ]

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