किसी कंपनी के लिए राज्य द्वारा भूमि का अधिग्रहण सार्वजनिक उद्देश्य के दायरे में नहीं आता.
सुप्रीमकोर्ट
* * लोहाडीगुडा में भी आदिवासियों को जमीन वापस की जायें।
***
सिंगूर के मामले में सुप्रीमकोर्ट का एतिहासिक फैसला . सामाजिक संगठन के लोग हमेशा से यही कहते रहे है कि किसी सरकार द्वारा उधोग के लिये भूमि अधिग्रहण सार्वजनिक हित कैसे हो सकता है .
विशुद्ध रूप से उधोगपति अपने हित और स्वार्थ के लिये राज्य जिला और पुलिस का एकतरफा स्तेमाल करके जरूरत से कई गुना जमीन पर काबिज़ हो जाते है ,जब भूमि मालिक इसके खिलाफ सरकार से अपील करता है जनहित का तर्क देकर यही सरकारें सामने आ जाती है .
सुप्रीमकोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया है सार्वजनिक हित के नाम पर उधोगों के लिये जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता .कोर्ट ने न केवल दो महीने में जमीन किसानों को वापस करने का आदेश दिया बल्कि यह भी कहा कि किसानों से मुआवज़ा वापस नहीं लिया जा सकता क्योकि अपनी जमीन का किसान उपयोग नहीं कर पा रहे थे।
सामाजिक कार्य कर्ता अतिन्दरो कहते है कि
"" सिंगुर विषयक चर्चा में एक बात बारबार आ रहा है कि ज़मीन "किसानों के पास" वापस किया जा रहा है। लेकिन वास्तविक रूप में तो वह ज़मीन कृषिकार्य का उपयोगी रहा ही नहीं है। पूरा एरिया में कंस्ट्रक्शन हो चूका है। चिंता की बात ये है कि पश्चिम बंगाल में जो नोटोरोइस 'लैंड सिंडिकेट' यानि जमीन माफिया यानि प्रोमोटर-राज का घराना को बामफ्रण्ट सरकार एवं उसके बाद तृणमूल सरकार ने आगे लेके गया है, वही सिंडिकेट के चक्कर में वहाँ विकट डेवलपमेंटल कुछ काम, जैसे की हाउसिंग काम्प्लेक्स (बन्ध हुआ हिंदमोटोर कारखाना के कंपाउंड में जैसी काम्प्लेक्स बना दिया है "श्रीराम देवेलोपेर्स") ना बन जाये।
डिटेल में देखे तो, सिंगुर में टाटा जब ज़मीन लिए थे तब जिन लोग उस ज़मीन में खेती-किसानी करते थे उन लोगो के विषय में या उन किसानों का इस विषय कहना क्या है, उस ज़मीन में खेती करना असंभव है तो दूसरा जमीन मिलेगा या नहीं, कैसे मिलेगा - ये सब चीजों लेके कुछ चर्चा या विवेचना आ नहीं रहा है, ना तो मीडिया रिपोर्ताज में और ना ही सुप्रीम कोर्ट का निर्देश में।"
वे आगे बताते है कि , " ऐसे टाटा या अन्य दानवों ज़मीन वापस लेने का लड़ाई में, सबसे पहले ये सब डिटेल्स को पता करते हुए ही आगे चलना चाहिए, ता की जाथार्थ न्याय हो पाय, और जिन लोगों एवं कौमों से ज़मीन छिना हुआ है उन्ही लोगों तथा कौमों के पास ही ज़मीन वापस जाये।"
*** लोहाडीगुडा में भी आदिवासियों को जमीन वापस की जायें।
छत्तीसगढ़ सरकार ने बस्तर में टाटा स्टील प्लांट के लिये 2500 हेक्टेयर जमीन विशुद्ध गैरकानूनी रूप से कब्जाई है,न प्रोपर ग्रामसभा हुई और न जनसुनवाई ,अर्धसैनिक बलों के हस्तक्षेप और गुण्डागर्दी से जमीनों का अधिग्रहण किया गया ,एसे भी हजारों आदिवासी थे जिनके पास जमीन ही नहीं थी उन्हें उनके गांव से खदेड़ दिया गया .
अब जब टाटा ने स्टील प्लांट को न खोलने की औपचारिक घोषणा कर दी है तो प्रभावित आदिवासियों को तुरंत जमीन वापस की जायें और जौ लोग गांव छोडकर चले गये उन्हें वापस बसाया जायें.
टाटा के स्टील प्लांट के लिये लोहांडीगुडा इलाके में दस गांव के 1709 लोग प्रभावित हुये थे इनमें से ह1165 लोगों की जमीन अधिग्रहित की गई ,जिनकी जमीन नहीं गई या जिनके पास जमीन थी ही नहीं एसे परिवार भी उनके घरबार बर्बाद हो गये.
आदिवासी जमीन देने का लगातार विरोध करते रहे ,बड़े बड़े आंदोलन भी हुये ,सरकार ने कहा कि मुआवज़े के साथ परिवार के लोगों को नौकरी ,चिकित्सा और अन्य जीने योग्य जरूरी सुविधाएँ दी जायेंगी. ओर अब जबकि टाटा ग्यारह साल बाद बस्तर को छोडकर जा रहा है ,तो स्वाभाविक ही है कि आदिवासी अपनी जमीन की वापसी की म कर रहे है .
लेकिन सरकार किसी की सुनने को तैयार नहीं है लोग धरना प्रदर्शन भी कर रहे है ,हालात यह है कि अधिग्रहित जमीन पर कब्जा उधोग विभाग का है जिसकी मंशा कब्जा छोडने की नहीं है।
प्रभावित आदिवासियों के राशन कार्ड तक नहीं बन रहे है .
सुप्रीम कोर्ट के आदेश में स्पष्ट है कि अधिग्रहित जमीन का उपयोग किसी और काम में नहीं किया जा सकता, तो सरकार के पास जमीन वापसी के अलावा कोई रास्ता नहीं है .
****
Dr. Lakhan singh
सुप्रीमकोर्ट
* * लोहाडीगुडा में भी आदिवासियों को जमीन वापस की जायें।
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सिंगूर के मामले में सुप्रीमकोर्ट का एतिहासिक फैसला . सामाजिक संगठन के लोग हमेशा से यही कहते रहे है कि किसी सरकार द्वारा उधोग के लिये भूमि अधिग्रहण सार्वजनिक हित कैसे हो सकता है .
विशुद्ध रूप से उधोगपति अपने हित और स्वार्थ के लिये राज्य जिला और पुलिस का एकतरफा स्तेमाल करके जरूरत से कई गुना जमीन पर काबिज़ हो जाते है ,जब भूमि मालिक इसके खिलाफ सरकार से अपील करता है जनहित का तर्क देकर यही सरकारें सामने आ जाती है .
सुप्रीमकोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया है सार्वजनिक हित के नाम पर उधोगों के लिये जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता .कोर्ट ने न केवल दो महीने में जमीन किसानों को वापस करने का आदेश दिया बल्कि यह भी कहा कि किसानों से मुआवज़ा वापस नहीं लिया जा सकता क्योकि अपनी जमीन का किसान उपयोग नहीं कर पा रहे थे।
सामाजिक कार्य कर्ता अतिन्दरो कहते है कि
"" सिंगुर विषयक चर्चा में एक बात बारबार आ रहा है कि ज़मीन "किसानों के पास" वापस किया जा रहा है। लेकिन वास्तविक रूप में तो वह ज़मीन कृषिकार्य का उपयोगी रहा ही नहीं है। पूरा एरिया में कंस्ट्रक्शन हो चूका है। चिंता की बात ये है कि पश्चिम बंगाल में जो नोटोरोइस 'लैंड सिंडिकेट' यानि जमीन माफिया यानि प्रोमोटर-राज का घराना को बामफ्रण्ट सरकार एवं उसके बाद तृणमूल सरकार ने आगे लेके गया है, वही सिंडिकेट के चक्कर में वहाँ विकट डेवलपमेंटल कुछ काम, जैसे की हाउसिंग काम्प्लेक्स (बन्ध हुआ हिंदमोटोर कारखाना के कंपाउंड में जैसी काम्प्लेक्स बना दिया है "श्रीराम देवेलोपेर्स") ना बन जाये।
डिटेल में देखे तो, सिंगुर में टाटा जब ज़मीन लिए थे तब जिन लोग उस ज़मीन में खेती-किसानी करते थे उन लोगो के विषय में या उन किसानों का इस विषय कहना क्या है, उस ज़मीन में खेती करना असंभव है तो दूसरा जमीन मिलेगा या नहीं, कैसे मिलेगा - ये सब चीजों लेके कुछ चर्चा या विवेचना आ नहीं रहा है, ना तो मीडिया रिपोर्ताज में और ना ही सुप्रीम कोर्ट का निर्देश में।"
वे आगे बताते है कि , " ऐसे टाटा या अन्य दानवों ज़मीन वापस लेने का लड़ाई में, सबसे पहले ये सब डिटेल्स को पता करते हुए ही आगे चलना चाहिए, ता की जाथार्थ न्याय हो पाय, और जिन लोगों एवं कौमों से ज़मीन छिना हुआ है उन्ही लोगों तथा कौमों के पास ही ज़मीन वापस जाये।"
*** लोहाडीगुडा में भी आदिवासियों को जमीन वापस की जायें।
छत्तीसगढ़ सरकार ने बस्तर में टाटा स्टील प्लांट के लिये 2500 हेक्टेयर जमीन विशुद्ध गैरकानूनी रूप से कब्जाई है,न प्रोपर ग्रामसभा हुई और न जनसुनवाई ,अर्धसैनिक बलों के हस्तक्षेप और गुण्डागर्दी से जमीनों का अधिग्रहण किया गया ,एसे भी हजारों आदिवासी थे जिनके पास जमीन ही नहीं थी उन्हें उनके गांव से खदेड़ दिया गया .
अब जब टाटा ने स्टील प्लांट को न खोलने की औपचारिक घोषणा कर दी है तो प्रभावित आदिवासियों को तुरंत जमीन वापस की जायें और जौ लोग गांव छोडकर चले गये उन्हें वापस बसाया जायें.
टाटा के स्टील प्लांट के लिये लोहांडीगुडा इलाके में दस गांव के 1709 लोग प्रभावित हुये थे इनमें से ह1165 लोगों की जमीन अधिग्रहित की गई ,जिनकी जमीन नहीं गई या जिनके पास जमीन थी ही नहीं एसे परिवार भी उनके घरबार बर्बाद हो गये.
आदिवासी जमीन देने का लगातार विरोध करते रहे ,बड़े बड़े आंदोलन भी हुये ,सरकार ने कहा कि मुआवज़े के साथ परिवार के लोगों को नौकरी ,चिकित्सा और अन्य जीने योग्य जरूरी सुविधाएँ दी जायेंगी. ओर अब जबकि टाटा ग्यारह साल बाद बस्तर को छोडकर जा रहा है ,तो स्वाभाविक ही है कि आदिवासी अपनी जमीन की वापसी की म कर रहे है .
लेकिन सरकार किसी की सुनने को तैयार नहीं है लोग धरना प्रदर्शन भी कर रहे है ,हालात यह है कि अधिग्रहित जमीन पर कब्जा उधोग विभाग का है जिसकी मंशा कब्जा छोडने की नहीं है।
प्रभावित आदिवासियों के राशन कार्ड तक नहीं बन रहे है .
सुप्रीम कोर्ट के आदेश में स्पष्ट है कि अधिग्रहित जमीन का उपयोग किसी और काम में नहीं किया जा सकता, तो सरकार के पास जमीन वापसी के अलावा कोई रास्ता नहीं है .
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Dr. Lakhan singh
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