कोर्ट में चल रहा था केस, फैसले से पहले नक्सली बताकर भून डाला गोली से
राजकुमार सोनी
/रायपुर. बस्तर में आदिवासियों को मिलते-जुलते नामों का खामियाजा तो भुगतना पड़ रहा है, अब संविधान और कानून पर भरोसा भी उनकी मौत की वजह बन रहा है। सुकमा जिले के गोमपाड़ इलाके की मड़कम हिडमे सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार दी गई थी, क्योंकि सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई एक याचिका में मड़कम हिड़मे नाम की एक अन्य युवती का नाम शामिल था। गंगालूर इलाके के पालनार इलाके में ग्रामीण किसान सीतू हेमला को भी सुरक्षाबलों ने सिर्फ इसलिए मौत के घाट उतार दिया था, क्योंकि इस इलाके में इसी (सीतू हेमला) नाम के एक दीगर नक्सली कमांडर की तूती बोलती थीं।
इधर, स्वाधीनता दिवस के ठीक दूसरे दिन पुलिस ने अर्जुन नाम के युवक को नक्सली कमांडर बताकर गोलियों से भून डाला है उसके बारे में लीगल एड की अधिवक्ता ईशा खंडेलवाल का कहना है कि वह दसवीं कक्षा का विद्यार्थी था और साल भर पहले पुलिस ने उसे नक्सली होने के झूठे आरोप में गिरफ्तार किया था। अर्जुन को अदालत ने जमानत दे दी थी और वह नियमित रुप से कोर्ट की हर पेशी में उपस्थित होता था।
मुठभेड़ में मारने का दावा
16 अगस्त को आईजी शिवराम कल्लूरी और पुलिस अधीक्षक आरएन दास की ओर से मीडिया को बताया गया कि बस्तर के दरभा इलाके के गांव तुलसी डोंगरी, कोलेंग, मुड़ागढ़ व कांदानार इलाके में पुलिस की सर्चिंग चल रही थी तभी एक गांव चांदामेटा के जंगल में नक्सली और पुलिस जवान आमने-सामने हो गए। दोनों ओर से एक घंटे तक फायरिंग हुई। जब गोलीबारी खत्म हुई तो पुलिस को एक वर्दीधारी नक्सली का शव मिला जिसकी शिनाख्त जनमिलिशिया कमांडर एवं माचकोट के हार्डकोर नक्सली अर्जुन के रुप में की गई है। पुलिस अधिकारियों ने कहा कि अर्जुन 3 लाख का ईनामी नक्सली था और वर्ष 2014 में संजीवनी वाहन विस्फोट की घटना में शामिल था। इस घटना में सीआपीएफ के दो जवान शहीद हुए थे। उसने इलाके के दर्जनभर ग्रामीणों की हत्या भी की थी।
पुलिस ने पकड़ा था 17 साल के अर्जुन को
इधर लीगल एड की अधिवक्ता ईशा खंडेलवाल का कहना है कि चांदामेटा गांव के जिस अर्जुन को पुलिस ने मौत के घाट उतार दिया है उसे पहली बार पुलिस ने 15 अगस्त 2015 को एक बाजार से गिरफ्तार किया था। गिरफ्तारी के दौरान अर्जुन की उम्र महज 17 साल की थी, लेकिन पुलिस ने उसे 30 साल का व्यस्क बताकर जेल में ठूंस दिया था। स्कूल की मार्कशीट और अन्य दस्तावेजों के आधार पर जब यह साबित हो गया कि अर्जुन नाबालिग है तो अदालत ने पूरा मामला किशोर न्यायालय के सुर्पुद कर दिया था। अर्जुन पर वाहन विस्फोट में शामिल होने का आरोप लगा था, लेकिन पुलिस की ओर से जो गवाह पेश किए गए थे वे झूठे निकले। अर्जुन जमानत पर रिहा कर दिया गया था और किशोर न्यायालय की ओर से मुकर्रर की गई हर पेशी में उपस्थित रहता था।
अदालत से छूट भी जाओगे तो जान से जाओगे?
अर्जुन की मौत को पूरी तरह से फर्जी करार देते हुए सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार कहते हैं, बस्तर से लोकतंत्र गायब है। अर्जुन को मुठभेड़ में मौत के घाट उतारकर पुलिस यह बताना चाहती है कि अगर अदालत से छूट भी जाओगे तो जान से हाथ धो बैठोगे। पुलिस द्वारा फंसाए जाने के बाद अर्जुन की पढ़ाई छूट गई थी मगर वह अपने माता-पिता का बोझ हल्का करने के लिए खेती-बाड़ी में उनका सहयोग करता था। 16 अगस्त को वह अपने घर की बकरियों को जंगल लेकर गया था तब पुलिस ने उसे गोलियों से भून डाला। यदि अर्जुन नक्सली होता तो क्या कोर्ट की हर पेशी में मौजूद रहता? अर्जुन की मौत से यह साबित होता है कि बस्तर में कानून का नहीं हिटलर का शासन संचालित है।
लड़ी जा सकती है कानूनी लड़ाई
लीगल एड अधिवक्ता ईशा खंडेलवाल ने कहा कि फिलहाल हमें इतनी सूचना मिली है कि अर्जुन के माता-पिता को भी पुलिस ने अपनी गिरफ्त में ले रखा है। वे कब तक गिरफ्त में रहेंगे यह साफ नहीं है। यदि अर्जुन के अभिभावक कानूनी लड़ाई लडऩा चाहेंगे तो लीगल एड उनकी मदद जरूर करेगा।
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